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आज का भ्रष्टाचार और उससे बचने के उपाय -१-


     || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, नवमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 

भगवत्स्वरूप भक्तशिरोमणि भरत जी भगवान् राघवेन्द्र श्री रामचन्द्र जी से संत-असंत के लक्षण पूछना चाहते है, परन्तु संकोच वश निवेदन करने में हिचकते है | भरतजी आदि भ्रातागण सब हनुमान जी की और ताकते है | इसलिए की श्रीहनुमानजी भगवान के अतिसय प्रिय भक्त है, वे हमारी और से निवेदन कर दे | अन्तर्यामी प्रभु सब जानते ही थे, वे कहते है ‘हनुमान ! कहो, क्या पूछना चाहते हो ?’ हनुमान जी हाथ जोड़ कर कहते है , ‘नाथ ! भारत जी कुछ पूछना चाहते है, परन्तु शीलवश प्रश्न करते सकुचाते है |’ प्रेमसिन्धु भगवान कहते है ‘हनुमान तुम तो मेरा स्वाभाव जानते हो, भारत जी और मुझमे क्या कोई अन्तर है ?’ भरत जी भगवान के वचन सुनकर उनके चरण पकड़ लिए और अपने अनुरूप ही निवेदन किया

नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहूँ  सोक न मोह |   

केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह ||

फिर उन्होंने संत-असंत के भेद और लक्षण पूछे | भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने पहले संतों के अति सुन्दर लक्षण बतलाकर फिर असंतों का स्वभाव बतलाते हुए कहा :

सुनहूँ असंतन्ह केर सुभाऊ | भूलेहूँ संगति करिअ न काऊ ||

तिन्ह कर संग सदा दुःखदाई | जिमि कपिलही घालइ हरहाई ||

खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी | जरहिं सदा पर संपति देखी ||

जहँ कहूँ निंदा सुनही पराई | हरषही मनहूँ परी निधि पाई ||

काम क्रोध मद लोभ परायन | निर्दय कपटी कुटिल मलायन ||

बयरु अकारन सब काहूँ सो | जो कर हित अनहित ताहू सो ||

झूठइ लेना झूठइ देना |  झूठइ भोजन झूठइ चबेना ||

बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा | खाई महा अहि ह्रदय कठोरा ||

शेष अगले ब्लॉग में ....

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!    

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