सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

भगवती शक्ति -7-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

आश्विन कृष्ण, सप्तमी श्राद्ध, गुरूवार, वि० स० २०७०

शक्ति और शक्तिमान की अभिन्नता

गत ब्लॉग से आगे.... इन्ही सगुण-निर्गुणरूप भगवान या भगवती से उपर्युक्त प्रकार से कभी महादेवी रूप के द्वारा, कभी महाशिव के द्वारा, कभी महाविष्णु के द्वारा, कभी श्रीकृष्ण के द्वारा, कभी श्रीराम के द्वारा सृष्टी की उत्पति होती है, और यही परमात्मरूपा महाशक्ति पुरुष और नारीरूप में विविध अवतारों में प्रगट होती है | वस्तुत: यह नारी हैं न पुरुष, और दूसरी दृष्टी में दोनों ही है | अपने पुरुष रूप अवतारों में स्वयं महाशक्ति ही लीला के लिए उन्ही के अनुसार रूपों में उनकी पत्नी बन जाती है | ऐसे बहुत से इतिहास मिलते है जिनमे महाविष्णु ने लक्ष्मी से, श्रीकृष्ण ने राधा से, श्री सदाशिव ने उमा से और श्रीराम ने सीता से कहा है की हम दोनों सर्वथा अभिन्न है, एकके ही दो रूप है, केवल लीला के लिए एक के दो रूप बन गए है, वस्तुत: हम दोनों में कोई भी अन्तर नहीं है |  
       शक्ति की उपासना

यही आदि के तीन युगल उत्पन्न करने वाली महालक्ष्मी है; इन्ही की शक्ति से ब्रह्मादीदेवता बनते है, जिनसे विश्व की उत्पत्ति होती है | इन्ही की शक्ति से विष्णु और शिव प्रगट होकर विश्व का पालन और संघार करते है | दया, क्षमा, निंद्रा, स्मृति, क्षुधा, त्रष्णा, तृप्ति, श्रधा, भक्ति, धृति, मती, तुस्टी, पुष्टि, शान्ति, कान्ति, लज्जा आदि इन्ही महाशक्तिकी शक्तियाँ है |

यही गोलोक में श्रीराधा, साकेत में श्रीसीता, क्षिरोधसागर में लक्ष्मी, दक्षकन्या सती, दुर्गनाशिनी मेनका पुत्री दुर्गा है | यही वाणी, विद्या, सरस्वती, सावित्री और गायत्री है | यही सूर्य की प्रभा शक्ति, पूर्णचंद्र की सुधावर्षिणी सोभाशक्ति, अग्नि की दाहिकाशक्ति, वायु की वहनशक्ति, जल की सीतलशक्ति, धरा की धारणा शक्ति और शस्य की प्रसूतिशक्ति है | यही तपस्विओ का तप, ब्रह्मचारियों का ब्रह्मतेज, गृहस्थो की सर्वश्रम-आश्र्यता, वानप्रस्थों की संयमशीलता, संयासिओं का त्याग, महापुरुषो की महता, और मुक्त पुरुष की मुक्ति है |... शेष अगले ब्लॉग में....        

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,