सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

प्रार्थना -४-


  ।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा, मंगलवार, वि० स० २०७०

 प्रार्थना -४-

गत ब्लॉग से आगे...

हे प्रभो ! मैं दिन-रात दुनियामें दुःखकी, शोककी, पीड़ाकी, निराशाकी, असफलता की, अपमानकी, अभावकी, अकालकी, अकीर्तिकी, दरिद्रताकी, वियोगकी, रोगकी और मृत्युकी डरावनी सूरतोंको देख-देखकर भयभीत होता हूँ । परन्तु हे मेरे चतुर खिलाड़ी ! हे मेरे विलक्षण बहरूपिये ! क्या यह सत्य नहीं है कि इन सब रूपों को धारण करके एक तुम्हीं तो मुझसे खेलने आते हों ? और क्या यह भी सत्य नहीं है कि मैं तुम्हें न पहचानने के कारण ही डरकर इनसे दूर भागना चाहता हूँ । प्यारे ! मुझे ऐसी दिव्य आँखे दे दो कि फिर तुम्हें पहचानने में मैं कभी भूलूँ ही नहीं ! चाहे तुम किसी भी रूप में आओं, मैं तुम्हे पहचान ही लूँ और तुम्हारे नये-नये खेलों को देख-देखकर वैसा ही खिलता रहूँ, जैसे सूर्य की किरणों को देखते हुए कमल खिल उठते हैं । दे डालों न प्रभों ! ऐसी पर्दों के भीतर की वस्तुको पहचाननेवाली पैनी नजर ! 

    * * * * * * * * *

हे प्रभो ! मैं माता के स्नेहसे, पिता के वात्सल्य से, मित्रकी मैत्री से, पत्नीके प्रेम से, संतान के प्यार से, सुकर्मों की कीर्ति से और लक्ष्मीकी मोहिनी से मुग्ध हो रहा हूँ । सदा अन्धा ही बना रहता हूँ, परन्तु ओ मेरे महामायावी ! क्या यह सत्य नहीं है कि तुम्हीं माँ बनकर स्नेह करते हो, पिता बनकर पालन करते हो, मित्र बनकर मैत्री करते हो, पत्नी बनकर प्रेम करते हो, संतान बनकर अपनी तोतली वाणी से मोहते हो, सुकर्म बनकर कीर्तिके रूप में आते हो और माँ लक्ष्मी बनकर मुझे अपना गुलाम बना लेते हो ? क्या यह स्नेह, वात्सल्य आदि की सारी धाराओं का मूल स्रोत्र तुम्हीं एकमात्र अखिल भावों के महान सागरसे ही निकल रहा है ? और क्या यह भाव-धारापुन: लौटकर तुम समुद्ररूप में ही मिलने को नहीं जा रही है ? ओं मेरे मनचोर ! बस इतनी कृपा करों कि मैं इन सबमे और इन सभी सम्बन्धों और भावों में तुम्हीं को देख-देखकर सदा मुग्ध होता रहूँ !...शेष अगले ब्लॉग में.

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, प्रार्थना पुस्तक से, पुस्तक कोड ३६८, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!   

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच...

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये। ...

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहत...