जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

बुधवार, दिसंबर 04, 2013

प्रार्थना -५-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

मार्गशीर्ष शुक्ल, द्वितीया, बुधवार, वि० स० २०७०

 प्रार्थना -५-

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हे प्रभो ! बगीचे के रंग-बिरंगे फूलों की सुन्दरता और सुगन्ध आकाशमें उड़नेवाले पक्षियोंकी चित्र-विचित्र वर्णों की बनावट और उनकी सुमधुर काकली, सरोवरोंमें और नदियों में इधर-से-उधर फुदकनेवाली मछलियों की मोहिनी सूरत और पुष्पोंके रस पर मंडराती हुई तितलियों की कलापूर्ण रचना, सब मनको हरण किये डालती हैं । यह सुन्दरता, सौरभ, कला और यह मीठा स्वर, हे सौन्दर्य और माधुर्यके अनन्त सागर ! तुम्हारे ही तो जलकण हैं । बस, हे अखिल सौन्दर्यमाधुर्य निधि ! ऐसी कृपा करों, जिससे मैं इस बात को सदा स्मरण रख सकूँ और प्रत्येक सौन्दर्य-माधुर्यकी बहती धाराका सहारा लेकर तुम्हारे अनन्त सौन्दर्य-माधुर्यका कुछ अंशों में तो उपभोग करूँ !

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हे प्रभों ! मेरे हृदय में ऐसी आग लगा दो, जो सदा बढती रहे । विषयों की सारी आसक्ति और कामना उसका ईधन बनकर उसे और भी प्रचण्ड कर दे कि फिर वह तुम्हारी दर्शन-सुधा-वृष्टिके बिना कभी बुझे ही नहीं !

हे प्रभो ! जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्यकी किरणों का स्पर्श पाते ही जल उठती है, वैसे ही हे नाथ ! तुम्हारे भक्त साधुओं का जाने-अनजाने संग पाते ही मेरे मन में तुम्हारे प्रेम की आग भड़क उठे । हे अनन्त ब्रह्मांडो में अनन्त सूर्यों के प्रकाशक ! मेरे मन को सूर्यकान्तमणि के सदृश बना दो !...शेष अगले ब्लॉग में.

 श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, प्रार्थना पुस्तक से, पुस्तक कोड ३६८, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!   

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