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सच्चा भिखारी -५-

।। श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
माघ कृष्ण, चतुर्थी, सोमवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  -५-

गत ब्लॉग से आगे.... जो चीज बहुत दूर होती है, उसी का मिलना कठिन होता है । भगवान् जगत-प्रभु तो तुम्हारे निकट से भी निकट देश में रहते है, परन्तु वे तुम्हारे पास क्यों आवे ? तुम तो स्वयं ही प्रभु (अहं) बन रहे हो । जगतप्रभु के लिए तुमने जो हृद्यासन बिछा रखा है, वह तो बहुत ही क्षुद्र है । इतने छोटे आसन पर वे और तुम दोनों एक साथ नहीं बैठ सकते ।

इसीसे गोसाई जी महाराज ने कहाँ है-
जहाँ राम तहाँ काम नहि, जहाँ काम नहि राम ।
‘तुलसी’ कबहू की रही सके, रवि रजनी एक ठाम ।।

जहाँ श्रीराम रहते है, वहाँ काम या विषय-परायण ‘अहम’ नही रह सकता और जहाँ यह काम निवास करता है, वहाँ राम नहीं रहते । सूर्य और रात्रि कभी एक साथ रह सकते है ? अतएव ‘मैं’ और ‘भगवान’ दोनों अन्धकार-प्रकाश की भान्ति एक साथ नहीं रह सकते । ‘मैं’ इस पद को हटाना पड़ेगा । तभी ‘वे’ यहाँ पधारकर विराजित हो सकेंगे । वे तो दुर्लभ नहीं है । साधक ! झूठमूठ ही भगवान् को दुर्लभ बताकर उनपर कलंक क्यों लगाते हो ? वे तुम्हारे ह्रदय-देश में निवास करने के लिए आते है, तुम्हारे ह्रदय-कपाट खुले नहीं रहते, इसीसे ध्यान के समय श्रीराधाकृष्णकी मूर्ती-से वे तुम्हारे ‘सामने’ खड़े रहते है । यह कलंक वास्तव में हमारा है, उनका नहीं ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  


नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     

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