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सच्चा भिखारी -७-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

माघ कृष्ण, षष्ठी, बुधवार, वि० स० २०७०

सच्चा भिखारी  -७-

 
गत ब्लॉग से आगे....पूर्ण दीनतामय भाव के सूक्ष्म सूत्र का अवलम्बन करके ही भावस्वरूप भगवान् प्रगट होते है । पापियों के अत्याचार से जब पृथ्वी पर दीनता छा जाती है, पुण्य का पूर्ण अभाव हो जाता है, तभी भगवान का अवतार होता है ।  साठ हज़ार शिष्यों को साथ लेकर जिस समय ऋषि दुर्वासा वन में पांडवो की कुटिया पर पहुचे, उस समय द्रौपदी के सूर्यप्रदत पात्र में अन्न का एक कण भी नहीं था ।

उस पूर्ण आभाव  के समय-पूरी दीनता के काल में-द्रौपदी ने पूर्णरूप प्रभु को कातरस्वर में पुकार कर कहाँ था-‘हे द्वारकाधीश ! इस कुसमय में दर्शन दो ! दीनबन्धो ! विपत्ति के इस तीरहीन समुन्द्र में तुम्हे देखकर कुछ भरोसा होगा ।’

द्रौपदी की आर्त-प्रार्थना सुनकर जगत-प्रभु स्थिर नहीं रह सके । ऐश्वर्यशालिनी रुक्मिणी और सत्यभामा को छोड़कर भिखारिणी दरिद्रा  द्रौपदी की और दौड़े । द्वारका के अतुलनीय ऐश्वर्यस्तम्भ को देखकर अरण्यवासी पाण्डवों की पर्णकुटी में विभूतिस्वरुप प्रखर प्रभा प्रकाशित हो गयी । द्रौपदी ने कहा, ‘नाथ ! क्या इतनी देर करके आना चाहिये ?’

भगवान बोले, ‘तुमने मुझको द्वारकाधीश के नाम से क्यों पुकारा था, प्राणेश्वर क्यों नहीं कहाँ ? जानती नही हों, द्वारका यहाँ से कितनी दूर है ? इसी से आने में देर हुई ।’

जो हमारे प्राणों के अन्दर की प्रत्येक क्रिया को जानते है, उनके सामने माँगने के लिए मुहँ खोलना बुद्धिमानी नहीं है । भीख की झोली बगल में लेकर दरवाजे पर खड़े होते ही वे दया करते है । बस, हमे तो चुपचाप उनकी सेवा करनी चाहिये ।......शेष अगले ब्लॉग में ।

 

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!   

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