जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

शनिवार, मार्च 15, 2014

होली और उस पर हमारा कर्तव्य -3-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

फाल्गुन कृष्ण , चतुर्दशी, शनिवार, वि० स० २०७०

 होली और उस पर हमारा कर्तव्य -3-

गत ब्लॉग से आगे ......कहा जाता है की भक्तराज प्रह्लादकी अग्नि परीक्षा इसी दिन हुई थी । प्रहलाद के पिता  दैत्यराज हिरन्यकशिपु ने अपनी बहन ‘होलका’ से (जिसको भगवदभक्त के न सताने तक अग्नि में न जलने का वरदान मिला था) प्रहलाद को जला देने के लिए कहा, होलका  राक्षसी उसे गोद में ले कर बैठ गयी, चारो तरफ आग लगा दी गयी । प्रह्लाद भगवान के अनन्य भक्त थे, वे भगवान का नाम रटने लगे । भगवतकृपा से प्रह्लाद के लिए अग्नि शीतल हो गयी और वरदान के शर्त के अनुसार ‘होलका’ उसमे जल मरी । भक्तराज प्रह्लाद  इस कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और आकर पिता से कहने लगे

राम नामके जापक जन है तीनो लोकों में निर्भय ।

मिटते सारे ताप नाम की औषध से पक्का निश्चय ।।

नहीं मानते हो तो मेरे तन की और निहारो तात ।

पानी पानी हुई आग है जला नहीं किन्च्चित भी गात ।।

इन्ही भक्तराज और इनकी विशुद्ध भक्ति का स्मारक रूप यह होली का त्यौहार है । आज भी ‘होलिका-दहन’ के समय प्राय: सब मिलकर एकस्वर में ‘भक्तप्रवर प्रह्लाद की जय’ बोलते है । हिरान्यक्शुपू के राजकाल में अत्याचारनी होलका का दहन हुआ और भक्ति तथा भगवान के अटल प्रताप से दृढव्रत भक्त प्रह्लाद की रक्षा हुई और उन्हें भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन हुए ।    

इसके सिवा इस दिन सभी वर्ण के लोग भेद छोड़कर परस्पर मिलते-जुलते है । शायद किसी ज़माने में इसी विचारसे यह त्यौहार बना हो की सालभर के विधि-निषेधमय जीवन को अलग-अलग अपने-अपने कामों में बिताकर इस एक दिन सब भाई परस्पर गले लग कर प्रेम बढ़ावे । कभी भूलसे या किसी कारण से किसी का मनोमालिन्य हो गया हो तो उसे इस दिन आनन्दके त्यौहार में एक साथ मिल-जुलकर हटा दे । असल में एक ऐसा राष्ट्रीय उत्सव होना भी चाहिये की जिसमे सभी लोग छोटे-बड़े और रजा-रंक का भेद भूले बिना किसी भी रूकावट के शामिल होकर परस्पर प्रेमालिंगन कर सके । यही होली का एतिहासिक, पारमार्थिक  और राष्ट्रीय तत्व मालूम होता है । शेष अगले ब्लॉग में ......

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

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