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भोगो के आश्रय से दुःख -३-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण , चतुर्दशी, गुरूवार, वि० स० २०७१

भोगो के आश्रय से दुःख  -३-

गत ब्लॉग से आगे....... जैसे रात-दिन उसी में जीवन लगा रहता है । पर असल बात यह है की जबतक संसार से आशा रहेगी, जबतक भोगों में सुख आस्था रहेगी; तबतक सुख नही मिलेगा न आज तक किसी को सुख मिला, न मिल सकता है, न मिलेगा; क्योकि वहां वह है ही नही ।
 
संसार चाहे यों-का-यों रहे और रहता है, परन्तु जब इसमें सुख की आशा नही रहती, सुख की आस्था नही रहती, उसके बाद यह रहा करे । इसकी कोई उलझन हमारे मन को उलझा सकती है । हमारे मन पर असर नही डाल सकती । चाहे समस्या कठिन हो, चाहे अत्यन्त जटिल हो, वह अपने आप सुलझ जाती है-जब आस्था मिट जाती है तो सब जगह से आशा हटाकर, सब जगह से विश्वाश हटाकर, सब जगह से अपनापन हटाकर प्रभु में लग जाय-

या जग में जहँ लगि ता तनु की प्रीति प्रतीति सगाई ।

ते सब तुलसीदास प्रभु ही सों होहि सिमिटी इक ठाई ।।

इस जगत में जहाँ तक प्रेम, विश्वास और आत्मीयता है, वह सब जगत से सिमटकर एकमात्र प्रभु में केन्द्रित हो जाय-यह बड़ी अच्छी चीज है । न यह ग्रन्थों में सुलझती है, न यह व्याख्यानों से, व्याख्यान सुनने से, न व्याख्यान देना जानने से ।
 
ये तो वाग्विलास है । श्रवण-मधुर चीज है, आदत पड गयी सुनने-कहने की । कहते-सुनते है यह-अच्छा व्यसन है, परन्तु जब तक जीवन में वह असली चीज न आये, तब तक उस समस्या का समाधान हुए बिना शान्ति होती नही ।
 
यह समस्या सारी-की-सारी उठी हुई है हमारी भूल से । चाहे उसमे कारण प्रारब्ध हो. चाहे उसमे कारण कोई व्यक्ति हो, चाहे कोई नया कारण बन गया हो, पर मूल कारण है हमारी भूल; तो भूल को जाने बिया, भूल को छोड़े बिना भूल जाती नही ।.... शेष अगले ब्लॉग में          

श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, कल्याण वर्ष ८८, संख्या ६, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

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