(११) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग शिवरजनी-तीन ताल) मेरा तन-मन सब तेरा ही, तू ही सदा स्वामिनी एक। अन्योंका उपभोग्य न भोक्ता है कदापि, यह सच्ची टेक॥ तन समीप रहता न स्थूलतः, पर जो मेरा सूक्ष्म शरीर। क्षणभर भी न विलग रह पाता, हो उठता अत्यन्त अधीर॥ रहता सदा जुड़ा तुझसे ही, अतः बसा तेरे पद-प्रान्त। तू ही उसकी एकमात्र जीवनकी जीवन है निर्भ्रान्त॥ हुआ न होगा अन्य किसीका उसपर कभी तनिक अधिकार। नहीं किसीको सुख देगा, लेगा न किसीसे किसी प्रकार॥ यदि वह कभी किसीसे किंचित् दिखता करता-पाता प्यार। वह सब तेरे ही रसका बस, है केवल पवित्र विस्तार॥ कह सकती तू मुझे सभी कुछ, मैं तो नित तेरे आधीन। पर न मानना कभी अन्यथा, कभी न कहना निजको दीन॥ इतने पर भी मैं तेरे मनकी न कभी हूँ कर पाता। अतः बना रहता हूँ संतत तुझको दुःखका ही दाता॥ अपनी ओर देख तू मेरे सब अपराधोंको जा भूल। करती रह कृतार्थ मुझको वे पावन पद-पंकजकी धूल॥ (१२) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग शि
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