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षोडश गीत

  (११) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग शिवरजनी-तीन ताल) मेरा तन-मन सब तेरा ही, तू ही सदा स्वामिनी एक। अन्योंका उपभोग्य न भोक्ता है कदापि, यह सच्ची टेक॥ तन समीप रहता न स्थूलतः, पर जो मेरा सूक्ष्म शरीर। क्षणभर भी न विलग रह पाता, हो उठता अत्यन्त अधीर॥ रहता सदा जुड़ा तुझसे ही, अतः बसा तेरे पद-प्रान्त। तू ही उसकी एकमात्र जीवनकी जीवन है निर्भ्रान्त॥ हु‌आ न होगा अन्य किसीका उसपर कभी तनिक अधिकार। नहीं किसीको सुख देगा, लेगा न किसीसे किसी प्रकार॥ यदि वह कभी किसीसे किंचित्‌ दिखता करता-पाता प्यार। वह सब तेरे ही रसका बस, है केवल पवित्र विस्तार॥ कह सकती तू मुझे सभी कुछ, मैं तो नित तेरे आधीन। पर न मानना कभी अन्यथा, कभी न कहना निजको दीन॥ इतने पर भी मैं तेरे मनकी न कभी हूँ कर पाता। अतः बना रहता हूँ संतत तुझको दुःखका ही दाता॥ अपनी ओर देख तू मेरे सब अपराधोंको जा भूल। करती रह कृतार्थ मुझको वे पावन पद-पंकजकी धूल॥                                                                                        (१२) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग शि

षोडश गीत

(९) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग गूजरी-ताल कहरवा) राधे, हे प्रियतमे, प्राण-प्रतिमे, हे मेरी जीवन मूल ! पलभर भी न कभी रह सकता, प्रिये मधुर ! मैं तुमको भूल॥ श्वास-श्वासमें तेरी स्मृतिका नित्य पवित्र स्रोत बहता। रोम-रोम अति पुलकित तेरा आलिंगन करता रहता॥ नेत्र देखते तुझे नित्य ही, सुनते शब्द मधुर यह कान। नासा अंग-सुगन्ध सूँघती, रसना अधर-सुधा-रस-पान॥ अंग-‌अंग शुचि पाते नित ही तेरा प्यारा अंग-स्पर्श। नित्य नवीन प्रेम-रस बढ़ता, नित्य नवीन हृदयमें हर्ष॥                                        (१०) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग गूजरी-ताल कहरवा) मेरे धन-जन-जीवन तुम ही, तुम ही तन-मन, तुम सब धर्म। तुम ही मेरे सकल सुखसदन, प्रिय निज जन, प्राणोंके मर्म॥ तुम्हीं एक बस, आवश्यकता, तुम ही एकमात्र हो पूर्ति। तुम्हीं एक सब काल सभी विधि हो उपास्य शुचि सुन्दर मूर्ति॥ तुम ही काम-धाम सब मेरे, एकमात्र तुम लक्ष्य महान। आठों पहर बसे रहते तुम मम मन-मन्दिरमें भगवान॥* सभी इन्द्रियोंको तुम शुचितम करते नित्य स्पर्श-सुख-दान। बाह्याभयन्तर नित्य निरन्तर तुम छेड़े रहते

षोडश गीत

     (७ ) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) हे प्रियतमे राधिके ! तेरी महिमा अनुपम अकथ अनन्त। युग-युगसे गाता मैं अविरत, नहीं कहीं भी पाता अन्त॥ सुधानन्द बरसाता हियमें तेरा मधुर वचन अनमोल। बिका सदाके लिये मधुर दृग-कमल कुटिल भ्रुकुटीके मोल॥ जपता तेरा नाम मधुर अनुपम मुरलीमें नित्य ललाम। नित अतृप्त नयनोंसे तेरा रूप देखता अति अभिराम॥ कहीं न मिला प्रेम शुचि ऐसा, कहीं न पूरी मनकी आश। एक तुझीको पाया मैंने, जिसने किया पूर्ण अभिलाष॥ नित्य तृप्त, निष्काम नित्यमें मधुर अतृप्ति, मधुरतम काम। तेरे दिव्य प्रेमका है यह जादूभरा मधुर परिणाम॥                                          (८) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) सदा सोचती रहती हूँ मैं क्या दूँ तुमको, जीवनधन ! जो धन देना तुम्हें  चाहती, तुम ही हो वह मेरा धन॥ तुम ही मेरे प्राणप्रिय हो, प्रियतम ! सदा तुम्हारी मैं। वस्तु तुम्हारी तुमको देते पल-पल हूँ बलिहारी मैं॥ प्यारे ! तुम्हें  सुनाऊँ कैसे अपने मनकी सहित विवेक। अन्योंके अनेक, पर मेरे तो तुम ह

षोडश गीत

   (५ ) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति हे वृषभानुराजनन्दिनि ! हे अतुल प्रेम-रस-सुधा-निधान ! गाय चराता वन-वन भटकूँ, क्या समझूँ मैं प्रेम-विधान ! ग्वाल-बालकोंके सँग डोलूँ, खेलूँ सदा गँवारू खेल। प्रेम-सुधा-सरिता तुमसे मुझ तप्त धूलका कैसा मेल ! तुम स्वामिनि अनुरागिणि ! जब देती हो प्रेमभरे दर्शन। तब अति सुख पाता मैं, मुझपर बढ़ता अमित तुहारा ऋण॥ कैसे ऋणका शोध करूँ मैं, नित्य प्रेम-धनका कंगाल ! तुम्हीं दया कर प्रेमदान दे मुझको करती रहो निहाल।।                                          (६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग परज-तीन ताल) सुन्दर श्याम कमल-दल-लोचन दुखमोचन व्रजराजकिशोर। देखूँ तुम्हें  निरन्तर हिय-मन्दिरमें, हे मेरे चितचोर ! लोक-मान-कुल-मर्यादाके शैल सभी कर चकनाचूर। रक्खूँ तुम्हें  समीप सदा मैं, करूँ न पलक तनिकभर दूर॥ पर मैं अति गँवार ग्वालिनि गुणरहित कलंकी सदा कुरूप। तुम नागर, गुण-‌आगर, अतिशय कुलभूषण सौन्दर्य-स्वरूप॥ मैं रस-ज्ञान-रहित रसवर्जित, तुम रसनिपुण रसिक सिरताज॥ इतनेपर भी दयासिन्धु तुम मेरे उरमें रहे विराज॥ श्रीहनुमा

सत्संग के बिखरे मोती

षोडश गीत

(३ ) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति   (राग भैरवी-तीन ताल) हे आराध्या राधा ! मेरे मनका तुझमें नित्य निवास। तेरे ही दर्शन कारण मैं करता हूँ गोकुलमें वास॥ तेरा ही रस-तव जानना, करना उसका आस्वादन। इसी हेतु दिन-रात घूमता मैं करता वंशीवादन॥ इसी हेतु स्नानको जाता, बैठा रहता यमुना-तीर। तेरी रूपमाधुरीके दर्शनहित रहता चित अधीर॥ इसी हेतु रहता कदम्बतल, करता तेरा ही नित ध्यान। सदा तरसता चातककी ज्यौं, रूप-स्वातिका करने पान॥ तेरी रूप-शील-गुण-माधुरि मधुर नित्य लेती चित चोर। प्रेमगान करता नित तेरा, रहता उसमें सदा विभोर॥                                      (४ ) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) मेरी इस विनीत विनतीको सुन लो, हे व्रजराजकुमार ! युग-युग, जन्म-जन्ममें मेरे तुम ही बनो जीवनाधार॥ पद-पंकज-परागकी मैं नित अलिनी बनी रहूँ, नँदलाल ! लिपटी रहूँ सदा तुमसे मैं कनकलता ज्यों तरुण तमाल॥ दासी मैं हो चुकी सदाको अर्पणकर चरणोंमें प्राण। प्रेम-दामसे बँध चरणोंमें, प्राण हो गये धन्य महान॥ देख लिया त्रिभुवनमें बिना तुहारे और कौन मेर

षोडश गीत

          .            .          (२ )               श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग रागेश्वरी-ताल दादरा) हौं तो दासी नित्य तिहारी। प्राननाथ जीवनधन मेरे, हौं तुम पै बलिहारी॥ चाहैं तुम अति प्रेम करौ, तन-मन सौं मोहि अपना‌औ। चाहैं द्रोह करौ, त्रासौ, दुख दे‌इ मोहि छिटका‌औ॥ तुहरौ सुख ही है मेरौ सुख, आन न कछु सुख जानौं। जो तुम सुखी हो‌उ मो दुख में, अनुपम सुख हौं मानौं॥ सुख भोगौं तुहरे सुख कारन, और न कछु मन मेरे। तुमहि सुखी नित देखन चाहौं निस-दिन साँझ-सबेरे॥ तुमहि सुखी देखन हित हौं निज तन-मन कौं सुख देऊँ। तुमहि समरपन करि अपने कौं नित तव रुचि कौं सेऊँ॥ तुम मोहि ’प्रानेस्वरि’, ’हृदयेस्वरि’, ’कांता’ कहि सचु पावौ। यातैं हौं स्वीकार करौं सब, जद्यपि मन सकुचावौं॥

षोडश गीत

                              (१)         श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति                 (राग मालकोस-तीन ताल) राधिके ! तुम मम जीवन-मूल। अनुपम अमर प्रान-संजीवनि, नहिं कहुँ को‌उ समतूल॥ जस सरीर में निज-निज थानहिं सबही सोभित अंग। किंतु प्रान बिनु सबहि यर्थ, नहिं रहत कतहुँ को‌उ रंग॥ तस तुम प्रिये ! सबनि के सुख की एकमात्र आधार। तुहरे बिना नहीं जीवन-रस, जासौं सब कौ प्यार॥ तुहारे प्राननि सौं अनुप्रानित, तुहरे मन मनवान। तुहरौ प्रेम-सिंधु-सीकर लै करौं सबहि रसदान॥ तुहरे रस-भंडार पुन्य तैं पावत भिच्छुक चून। तुम सम केवल तुमहि एक हौ, तनिक न मानौ ऊन॥ सो‌ऊ अति मरजादा, अति संभ्रम-भय-दैन्य-सँकोच। नहिं को‌उ कतहुँ कबहुँ तुम-सी रसस्वामिनि निस्संकोच। तुहरौ स्वत्व अनंत नित्य, सब भाँति पूर्न अधिकार। काययूह निज रस-बितरन करवावति परम उदार॥ तुहरी मधुर रहस्यम‌ई मोहनि माया सौं नित्य। दच्छिन बाम रसास्वादन हित बनतौ रहूँ निमिा॥

षोडश गीत

                श्रीराधा-माधव-रस-सुधा                          [षोडश-गीत]                  महाभाव रसराज वन्दना  दो‌उ चकोर, दो‌उ चंद्रमा, दो‌उ अलि, पंकज दो‌उ। दो‌उ चातक, दो‌उ मेघ प्रिय, दो‌उ मछरी, जल दो‌उ॥ आस्रय-‌आलंबन दो‌उ, बिषयालंबन दो‌उ। प्रेमी-प्रेमास्पद दो‌उ, तत्सुख-सुखिया दो‌उ॥ लीला-‌आस्वादन-निरत, महाभाव-रसराज। बितरत रस दो‌उ दुहुन कौं, रचि बिचित्र सुठि साज॥ सहित बिरोधी धर्म-गुन जुगपत नित्य अनंत। बचनातीत अचिन्त्य अति, सुषमामय श्रीमंत॥ श्रीराधा-माधव-चरन बंदौं बारंबार। एक तव दो तनु धरें, नित-रस-पाराबार॥

सत्संग के बिखरे मोती