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षोडश गीत

     (७ )
श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति
(राग भैरवी तर्ज-तीन ताल)
हे प्रियतमे राधिके ! तेरी महिमा अनुपम अकथ अनन्त।
युग-युगसे गाता मैं अविरत, नहीं कहीं भी पाता अन्त॥
सुधानन्द बरसाता हियमें तेरा मधुर वचन अनमोल।
बिका सदाके लिये मधुर दृग-कमल कुटिल भ्रुकुटीके मोल॥
जपता तेरा नाम मधुर अनुपम मुरलीमें नित्य ललाम।
नित अतृप्त नयनोंसे तेरा रूप देखता अति अभिराम॥
कहीं न मिला प्रेम शुचि ऐसा, कहीं न पूरी मनकी आश।
एक तुझीको पाया मैंने, जिसने किया पूर्ण अभिलाष॥
नित्य तृप्त, निष्काम नित्यमें मधुर अतृप्ति, मधुरतम काम।
तेरे दिव्य प्रेमका है यह जादूभरा मधुर परिणाम॥


                                         (८)
श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति
(राग भैरवी तर्ज-तीन ताल)
सदा सोचती रहती हूँ मैं क्या दूँ तुमको, जीवनधन !
जो धन देना तुम्हें  चाहती, तुम ही हो वह मेरा धन॥
तुम ही मेरे प्राणप्रिय हो, प्रियतम ! सदा तुम्हारी मैं।
वस्तु तुम्हारी तुमको देते पल-पल हूँ बलिहारी मैं॥
प्यारे ! तुम्हें  सुनाऊँ कैसे अपने मनकी सहित विवेक।
अन्योंके अनेक, पर मेरे तो तुम ही हो, प्रियतम ! एक॥
मेरे सभी साधनोंकी बस, एकमात्र हो तुम ही सिद्धि।
तुम ही प्राणनाथ हो, बस, तुम ही हो मेरी नित्य समृद्धि॥
तन-धन-जनका बन्धन टूटा, छूटा, भोग-मोक्षका रोग।
धन्य हु‌ई मैं, प्रियतम ! पाकर एक तुम्हारा प्रिय संयोग॥
-नित्यलीलालीन भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार


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