[ ३ ]
तर्ज लावनी—ताल कहरवा
जिनका शुचि सौन्दर्य-सुधा-रसनिधि नित
नव बढ़ता रहता।
जिनका मधु माधुर्य माधुरी नित नव रस
भरता रहता॥
नित नवीन निरुपम भावोंका जिनमें सदा
उदय होता।
जिनमें अतुल तरंगें नित नव उठतीं नहिं विराम होता॥
जिनमें अवगाहन कर कभी न होते तृप्त
स्वयं भगवान।
रसमय स्वयं सदा जिनका रस करते लोलुपकी
ज्यों पान॥
जिनको निज स्वरूप-सद्गुण-आनँदका कभी
न होता भान।
शुचि सुन्दरता, मधुर माधुरीका होता न तनिक अभिमान॥
जो अपनेको सदा समझतीं सभी भाँतिसे
दीन-मलीन।
देती रहतीं, नित्य मानतीं पर लेनेवाली अति हीन॥
ऐसी जो प्रियतमा श्यामकी, त्याग-मूर्ती, गुणवती उदार।
उन
श्रीराधापद-कमलोंमें नमस्कार है बारंबार॥
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