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पदरत्नाकर

[ ६५ ]
राग भिन्नषड्‍जतीन ताल

प्रभो!   मिटा दो मेरा सारा, सभी तरहका मद-अभिमान।
झुक जाये सिर प्राणिमात्रके चरणोंमें, तुमको पहचान॥
आचण्डाल, शृगाल, श्वान भी हों मेरे आदरके पात्र।
सबमें सदा देख पाऊँ मैं मृदु मुसकाते तुमको मात्र॥
सबका सुख-सम्मान परम हित ही हो, मेरी केवल चाह।
भूलूँ अपनेको सब विधि मैं, रहे न तनकी सुधि-परवाह॥
पूजूँ सदा सभीमें तुमको यथायोग्य कर सेवा-मान।
बढ़ती रहे वृत्ति सेवाकी, बढ़ती रहे शक्ति-निर्मान॥
परका दु:ख बने मेरा दुख, सुखपर हो परका अधिकार।
बन जाये निज हित पर-हित ही, सुखकी हो अनुभूति अपार॥
आर्त प्राणियोंको दे पाऊँ सदा सान्त्वना-सुखका दान।

उनके दु:ख-नाशमें कर पाऊँ मैं समुद आत्म-बलिदान॥

-नित्यलीलालीन भाईजी श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार 


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