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राग भीमपलासी—ताल
कहरवा
राधा-नयन-कटाक्ष-रूप चञ्चल अञ्चलसे
नित्य व्यजित—
रहते, तो
भी बहती जिनके तनसे स्वेदधार अविरत॥
राधा-अङ्ग-कान्ति अति सुन्दर नित्य
निकेतन करते वास।
तो भी रहते क्षुब्ध नित्य,
मन
करता नव-विलास-अभिलाष॥
राधा मृदु मुसकान-रूप नित मधुर
सुधा-रस करते पान।
तो भी रहते नित अतृप्त,
जो
रसमय नित्य स्वयं भगवान॥
राधा-रूप-सुधोदधिमें जो करते नित नव
ललित विहार।
तो भी कभी नहीं मन भरता,
पल-पल
बढ़ती ललक अपार॥
ऐसे जो राधागत-जीवन,
राधामय,
राधा-आसक्त।
उनके चरण-कमलमें रत नित रहे हुआ मम मन
अनुरक्त॥
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