[ ३९ ]
राग माँड़—ताल
कहरवा
मोहन-मन-धन-हारिणी,
सुखकारिणी
अनूप।
भावमयी श्रीराधिका,
आनन्दाम्बुधि-रूप॥
आकर्षक ऋषि-मुनि-हृदय अनुपम रूप ललाम।
कृष्णरसार्णव रस-स्वयं लोकोत्तर
सुखधाम॥
दीन-हीन मति मलिन मैं असत-पंथ आरूढ़।
दु:खद भोगोंमें सदा अति आसक्त विमूढ़॥
युगल कृपानिधि! कीजिये मुझपर कृपा उदार।
पद-रज-सेवाका
सतत मिले मुझे अधिकार॥
टिप्पणियाँ