श्रीकृष्णदर्शन की
साधना
हम लोग धन-संतान और मान-कीर्ति के लिये जितना जी-तोड़ परिश्रम और सच्चे
मन से प्रयत्न करते हैं जितना छटपताते हैं उतना परमात्मा के लिये क्या अपने जीवनभर
में कभी किसी दिन भी हमने प्रयत्न किया है या हम छटपटाते हैं? तुच्छ धन-मान के लिये तो हम भटकते
और रोते फिरते हैं; क्या परमात्मा के लिये व्याकुल होकर
सच्चे मन से हमने कभी एक भी आँसू गिराया है? इस अवस्था में
हम कैसे कह सकते हैं कि परमात्मा के दर्शन नहीं होते। हमारे मन में परमात्मा के दर्शन की लालसा
ही कहाँ है। हमने तो अपना सारा मन अनित्य सांसारिक विषयों के कूड़े-कर्कट से भर
रखा है। जोर की भूख या प्यास लगने पर
क्या कभी कोई स्थिर रह सकता है? परंतु हमारी भोग-लिप्सा और
भगवान् के प्रति उदासीनता इस बात को सिद्ध करती है कि हम लोगों को भगवान् के लिय
जोर की भूख या प्यास नहीं लगी। जिस दिन वह भूख लगेगी, उस दिन भगवान् को छोड़कर दूसरी कोई वस्तु हमें
नहीं सुहायेगी। उस दिन हमारा चित्त सब ओर से हटकर
केवल उसी के चिन्तनमें तल्लीन हो जायेगा। जिस प्रकार विशाल साम्राज्य के प्राप्त
हो जाने पर साधारण कौड़ियों के तुच्छ व्यापार से स्वाभाविक ही मन हट जाता है,
उसी प्रकार जगत् के बड़े-से-बड़े भोग हमें
तुच्छ और नीरस प्रतीत होने लगेंगे। उस समय हम अनायास ही कह उठेंगे-
इस जगकी कोई वस्तु न हमें सुहाती।
पल-पल में श्यामल मूर्ति स्मरण है आती।।
भगवान् के परम मधुर और परम आनन्दस्वरूप् होने
पर भी हमारा उनकी ओर पूरा आकर्षण नहीं है, इसका
कारण यही है कि हमने उनके महत्त्व को भली-भाँति समझा नहीं; इसीलिये
अमृत को छोड़कर हम रमणीय विषयों के विष भरे लड्डुओं के लिये दिन-रात भटकते हैं और उन्हें
खा-खाकर बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं। भगवान् के दर्शन दुर्लभ नहीं, दुर्लभ है उनके दर्शन की दम्भशून्य और एकान्त लालसा! जो भगवान् नित्य और सत्य हैं, सब समय सभी स्थानों
में व्यापक हैं, किसी एक युग विशेष में उनके दर्शन न हों- यह
बात कैसे मानी जा सकती है। ऐसा कहने वाले लोग या तो श्रद्धा से रहित हैं या भगवान्
की महिमा का भाव समझने के लिये उन्हें कभी अवसर नहीं मिला।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इन नेत्रों की
सफलता नित्य अतृप्तरूप से उस नवीन नीलनीरजकान्ति श्यामसुन्दर की विश्व-विमाहिनी
रूपमाधुरी का दर्शन करने में ही है। परंतु जहाँ तक भगवत्कृपा से इन नेत्रों को
दिव्य भाव नहीं प्राप्त होता, वहाँ तक ये
नेत्र उस रूप-छटा के दर्शन से वंचित ही रहते हैं। नेत्रों
को दिव्य बनाकर उन्हें सार्थक करने का ‘सिद्धमार्ग’ उपर्युक्त ‘परम व्याकुलता’ ही
है। जिस महानुभाव के हृदय में श्री कृष्णदर्शन तीव्रतम विरहाग्नि जल रही है,
वह सर्वथा स्तुति का पात्र है।
विरहाग्नि
प्रायः बाहर नहीं निकला करती और जब कभी वियोग-वेदना सर्वथा असह्य होकर बाहर फूट
निकलती है, तब वह उसके सारे पाप-तापों को
तुरंत जलाकर उसे प्रेम में पागल बना देती है। उस समय वह
भक्त अनन्य प्रेम में मतवाला भक्त-व्रजगोपियों की भाँति सब कुछ भूलकर उस प्राणाधिक
मनमोहन के दर्शन के लिये दौड़ पड़ता है और अपनी सारी शक्ति और सारा उत्साह लगाकर
उसको पुकारता है। बस, इसी
अवस्था में उसे भगवान के दर्शन प्राप्त होते हैं। दर्शन उसी रूप में
होते हैं, जिस रूप में वह दर्शन करना चाहता है एंव व्यवहार,
बर्ताव या वार्तालाप भी प्रायः उसी प्रकार का होता है, जिस प्रकार का उसने पहले चाहा है। ऐसी
स्थिति को प्राप्त होने के लिये साधक को चाहिये कि
पहले वह सत्संग के द्वारा भगवान् के अतुलनीय महत्त्व को कुछ समझे और उनके निरन्तर
नाम-जप तथा ध्यान के द्वारा अपने अन्तर में उनके प्रति कुछ प्रेम उत्पन्न करे। ज्यों-ज्यों भगवत्-प्रेम से हृदय भरता जायगा, त्यों-ही-त्यों वहाँ से विषय हटते चले जायेंगे।
यों करते-करते जिस दिन वह अपना हृदयासन केवल परमात्मा के लिये सजा सकेगा, उसी दिन और उसी क्षण उसके हृदय में परम व्याकुलता उत्पन्न होगी और वह
व्याकुलता अत्यन्त तीव्र होकर भगवान् के हृदय में भी भक्त को दर्शन देने के लिये
वैसी ही व्याकुलता उत्पन्न कर देगी। इसके बाद तत्काल
ही वह शुभ समय प्राप्त होगा, जिसमें भक्त और भगवान् का
परस्पर प्रत्यक्ष मिलन होगा और उससे भूमि पावन हो जायगी।
—परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार-भाईजी
पुस्तक- श्रीराधा-माधव-चिन्तन,गीताप्रेस गोरखपुर।
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