जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति — १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय | भगवान् में विश्वास करनेवाले सच्चे वे ही हैं,जिनका विश्वास विपत्तिकी अवस्थामें भी नहीं हिलता। जो सम्पत्तिमें भगत्कृपा मानते हैं और विपत्तिमें नहीं, वे सच्चे विश्वासी नहीं हैं। भगवान् की रुचिके सामने अपनी रुचि रखनेसे कोई लाभ नहीं होता। उनकी रुचि ही कल्याणमयी है। उनकी रुचिके लिये सदा अपनी रुचिका त्याग कर देना चाहिये। कामनाओंकी पूर्ति कामनाओंके विस्तारका हेतु होती है। सच्चा आनन्द कामनाकी पूर्तिमें नहीं कामनापर विजय प्राप्त करनेमें है। विषय-चिन्तन, विषयासक्ति, विषयकामना,विषय-भोग सभी महान् दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं और नरकाग्निमें जलानेके हेतु हैं। भजन मन, वचन और तन—तीनोंसे ही करना चाहिये। भगवान् का चिन्तन मनका भजन है, नाम-गुण-गान वचनका भजन है और भगवद्भावसे की हुई जीवसेवा तनका भजन है। भगवान् की कृपा सभीपर है, परंतु उस कृपाके तबतक दर्शन नहीं होते, जबतक मनुष्य उसपर विश्वास नहीं करता और भगवत्कृपाके सामने लौकिक-पारलौकिक सारे भोगों और साधनोंको तुच्छ नहीं समझ लेता। तन-मनसे भजन न बन पड़े तो केवल वचनसे ही भजन करना चाहिये। भजनमें स्वयं ऐसी शक्ति है कि जिसके प्रतापसे आगे चलकर अपने-आप ही सब कुछ भजनमय हो जाता है।
ॐ कलीं श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:

बुधवार, सितंबर 11, 2019

श्रीकृष्णदर्शन की साधना 1


श्रीकृष्णदर्शन की साधना

श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार  श्रीकृष्णदर्शन की साधना

एक गुजराती सज्जन निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर बड़ी उत्कण्ठा के साथ चाहते हैं। नाम प्रकाश न करने के लिये उन्होंने लिख दिया है, इसलिये उनका नाम प्रकाशित नहीं किया गया है, प्रश्नों की रक्षा करते हुए कुछ शब्द बदले गये हैं।

  1. कई महात्मा पुरुष कहते हैं कि इस समय ईश्वर दर्शन नहीं हो सकता। क्या यह बात मानने योग्य है? यदि थोड़ी देर के लिये मान लें तो फिर भक्त तुलसीदास और नरसी मेहता आदि को इस कलियुग में उस श्याम सुन्दर की मनमोहिनी मूर्ति का दर्शन हुआ था, यह बात क्या असत्य है?
  2.   जैसे आप मेरे सामने बैठे हो और मैं आपसे बातें कर रहा हूँ, क्या प्यारे कृष्णचन्द्र का इस प्रकार दर्शन होना सम्भव है? यदि सम्भव है तो हमें क्या करना चाहिये कि जिससे हम उस मोहिनी मूर्ति को शीघ्र देख सकें?
  3. जहाँ तक ये चर्म-चक्षु उस प्यारे को तृप्त होने तक नहीं देख सकेंगेवहाँ तक ये किसी काम के नहीं हैं। नेत्रों को सार्थक करने का ‘सिद्ध-मार्ग’ कौन-सा हैवह बताइये।
  4.  कृष्णदर्शन की तीव्रतम विरहाग्नि हृदय में जल रही है, न जाने वह बाहर क्यों नहीं निकलती! इसी से मैं और भी घबरा रहा हूँ।

इन प्रश्नों के साथ उक्त सज्जन ने और भी बहुत-सी बातें लिखी हैं, जिनसे विदित होता है कि उनके हृदय में भगवद्दर्शन की अभिलाषा जाग्रत् हुई है। इन प्रश्नों का यथार्थ उत्तर तो उन पूज्य महापुरुष से मिलना सम्भव है, जो उस श्यामसुन्दर की मनोहर और दिव्य रूप-माधुरी का दर्शन करके धन्य हो चुके हैं। परंतु महापुरुषों की अनुभवयुक्त वाणी से जो कुछ सुनने में आया है, उसी के आधार पर इन प्रश्नों का उत्तर देने की कुछ चेष्टा की जाती है। प्रश्नकर्ता सज्जन ने ये प्रश्न करके मुझको जो भगवत्-चर्चा का शुभ अवसर प्रदान किया है, इसके लिये मैं उनका कृतज्ञ हूँ। चारों प्रश्नों का उत्तर पृथक्-पृथक् न लिखकर एक ही साथ लिखा जाता है।

मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस युग में भगवान् के दर्शन अवश्य हो सकते हैं, बल्कि अन्याय युगों की अपेक्षा थोड़े समय में और थोड़े प्रयास से ही हो सकते हैं। भक्तशिरोमणि तुलसीदास जी  और नरसी मेहता  आदि प्रेमियों को भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन हुए हैं, इस बातको मैं सर्वथा सत्य मानता हूँ। यदि भक्त चाहे तो वह दो मित्रों की भाँति एक स्थान पर मिलकर भगवान् से परस्पर वार्तालाप कर सकता है। अवश्य ही भक्त में वैसी योग्यता होनी चाहिये। भक्तों के ऐसे अनेक पुनीत चरित इस बात के प्रमाण हैं। भगवान् के शीघ्र दर्शन का सबसे उत्तम उपाय दर्शन की तीव्र और उत्कट अभिलाषा ही है। जिस प्रकार जल में डूबता हुआ मनुष्य ऊपर आने के लिये परम व्याकुल होता है, उसी प्रकार की परम व्याकुलता यदि भगवदर्शन के लिये हो तो भगवान् का दर्शन होना कोई बड़ी बात नहीं। व्याकुलता बनावटी न होकर असली होनी चाहिये। किसी का इकलौता पुत्र मर रहा हो या किसी की सैकड़ों वर्षों से बनी हुई इज्जत जाती हो, उस समय मन में जैसी स्वाभाविक और निष्कपट व्याकुलता होती है, वैसी ही व्याकुलता परमात्मा के दर्शन के लिये जिस परम भाग्यवान् भक्त के अन्तर में उत्पन्न होती है, उसको दर्शन दिये बिना भगवान् कभी नहीं रह सकते।

ऐसी व्याकुलता तभी होती है, जब वह भक्त संसार के समस्त पदार्थों से परमात्मा को बड़ा समझता है, इस लोक और परलोक के समस्त भोगोंको अत्यन्त तुच्छ और नगण्य समझकर केवल एक परम प्यारे श्यामसुन्दर के लिये अपने जीवन, धन, ऐश्वर्य, मान, लोक-लज्जा, लोकधर्म और वेदधर्म सबको समर्पण कर चुकता है! देवर्षि नारद जी ने भक्ति का स्वरूप वर्णन करते हुए कहा है-  

तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति।[1]
अपने समस्त कर्म भगवान् को अर्पण कर देना और उन्हें भूलते ही परम व्याकुल होना भक्ति है।’

जब तक जगत् के भोगों की इच्छा है, जब तक जगत् के अनित्य पदार्थ सुन्दर, सुखरूप और तृप्तिकर जान पड़ते हैं और जब तक उनमें रस आता है, तब तक हमारे हृदय का पूरा स्थान भगवान् के लिये ख़ाली नहीं।

गोसाईं तुलसीदासजी ने कहा है-
जे मोहिं राम लागते मीठे।तौ नवरस षटरस रस अनरस हले जाते सब सीठे।। 
‘यदि मुझे भगवान् राम प्यारे लगते तो श्रृंगारादि नवों रस और अम्ल आदि छओं रस नीरस होकर सीठे (सारहीन-फीके) हो जाते।’

 हम अपने अन्तर में भगवान् को जितना-सा स्थान देते हैं, उतना-सा उसका फल ही हमें प्राप्त होता है; परंतु जब तक हम अपने हृदय का पूरा आसन उस हृदयेश्वर के लिये सजाकर तैयार नहीं करते, जब तक हमारे अन्तःकरण में अनवरत और निरन्तर अटूट तैलधारा की भाँति भगवद्भाव का स्त्रोत नहीं बहता, तब तक उसके लिये व्याकुलता नहीं हो सकती और जब तक हम व्याकुल नहीं होते तब तक भगवान् भी हमारे लिये व्याकुल नहीं होते; क्योंकि भगवान् यह एक शर्त है-

ये यथां मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।[2]
 ‘जो मुझको जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे ही भजता हूँ।’

जब भक्त प्रेम में तन्मय होकर मतवाले की तरह घर-बार, स्त्री-पुत्र, लोक-परलोक, हर्ष-शोक, मान-अपमान आदि सबका विसर्जन करके उस परमात्मा के लिये परम व्याकुल होता है, एक क्षण भर के विछोह से भी जो जल से अलग की हुई मछली के समान छटपटाने लगता है, भक्तिमती गोपियों की भाँति जिसके प्राण विरह-वेदना से व्याकुल हो उठते हैं, उसको भगवान् के दर्शन अत्यन्त शीघ्र हो सकते हैं; परंतु हम लोगों में वैसी अनन्य व्याकुलता प्रायः नहीं है। इसीलिये दर्शन में भी विलम्ब हो रहा है।

—परम श्रद्धेय श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार-भाईजी
पुस्तक- श्रीराधा-माधव-चिन्तन,गीताप्रेस गोरखपुर

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