सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

श्रीभगवन्नाम


श्रीभगवन्नाम


Chaitanya Mahaprabhu chaitanya dev Hanuman Prasad Poddar श्रीभगवन्नाम  पापानलस्य दीप्तस्य मा कुर्वन्तु भयं नराः। गोविन्दनाममेघौधैर्नश्यते नीरबिन्दुभिः॥ (गरुडपुराण)  'हे मनुष्यो! प्रदीप्त पापाग्निको देखकर भय न करो, गोविन्दनामरूप मेघोंके के जलबिन्दु से इसका नाश हो जाएगा।"  पापों से छूटकर परमात्मा के परम पद को प्राप्त करने के लिये शास्त्रों में अनेक उपाय बतलाये गये हैं। दयामय महर्षियों ने दुःख कातर जीवों के  कल्याणार्थ वेदों के आधार पर अनेक प्रकार की ऐसी विधियाँ बतलायी हैं, जिनका तथा अधिकार आचरण करने से जीव पाप मुक्त होकर सदा के लिये निरतिशयानन्द परमात्म सुख को प्राप्त कर सकता है। परंतु इस समय कलियुग है। जीवन की अवधि बहुत थोड़ी है। मनुष्य की आयु प्रतिदिन घट रही है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तापों की वृद्धि हो रही है। भोगों की प्रबल लालसा ने प्रायः सभीको विवश और उन्मत्त बना रखा है। कामना के अशेष कलंक से बुद्धि पर कालिमा छा गयी है। परिवार, कुटुम्ब, जाति या देश के नामपर होने वाली विविध भाँति की मोहमयी क्रियाओं के तीव्र धारा-प्रवाह में जगत् बह रहा है। देश और उन्नति के नामपर धर्म, अहिंसा, सत्य और मनुष्यत्व तक का विसर्जन किया जा रहा है। सारे जगत कुवासना मय कुप्रवृत्तियों का ताण्डव नृत्य हो रहा है। शास्त्रों के कथनानुसार युग प्रभाव से या हमारे दुर्भाग्य दोष से धर्म का एक पाद भी इस समय केवल नाम मात्र को रहा है। आजकल के जीव धर्म अनुमोदित सुख से सुखी होना नहीं चाहते।  सुख चाहते हैं-अटल, अखण्ड और आत्यन्तिक सुख चाहते हैं, परन्तु सुख का मूल भित्ति धर्म का सर्वनाश करनेपर तुले हुए हैं। ऐसी स्थिति में सुखके स्वप्न से भी जगत को केवल निराश ही रहना पड़ता है।  हमारी इस दुर्दशा को महापुरुषों ने और भगवद्भक्तों ने पहले से ही जान लिया था। इसी से उन्होंने दया परवश हो हमारे लिये एक ऐसा उपाय बतलाया जो इच्छा करनेपर सहज ही में काम में लाया जा सकता है। परंत जिसका वह महान् फल होता है जो पूर्वकाल में बड़े-बड़े यज्ञ, तप और दान से भी नहीं होता था। वह है श्रीहरि नाम का जप-कीर्तन और स्मरण!  वेदान्त दर्शन के निर्माता भगवान् व्यास देव रचित भागवत में ज्ञानी-श्रेष्ठ शुकदेव जी महाराज शीघ्र ही मृत्यु का आलिंगन करने के लिये तैयार बैठे हुए राजा परीक्षित पुकार कर कहते हैं — कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः। कीर्तन देव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत ॥ कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै । द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद् धरी कीर्तनात ॥ (श्रीमद्भागवत १२ । ३। ५१-५२)  'हे राजन्! इस दोषोंसे भरे हुए कलयुग में एक महान् गुण यह है कि केवल श्रीकृष्ण के 'नाम-कीर्तन' से ही मनुष्य सारी आसक्तियों से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। सतयुग में ध्यान से, त्रेता में यज्ञों से और द्वापर में परिचर्या से जो पद प्राप्त होता था वही कलियुग में केवल श्रीहरि नाम कीर्तन से प्राप्त होता है।’  इसलिये चार सौ वर्ष पूर्व बंगाल के नवद्वीप नामक स्थान में प्रेमावतार श्रीश्रीचैतन्यदेव ने अवतीर्ण होकर मुक्त कण्ठ से इसी बात की घोषणा की थी कि 'भय न करो, सबसे बड़ा प्रायश्चित्त और परमात्मा प्रेम सम्पादन का परमोत्तम साधन ‘श्रीहरि नाम’ है, संसार वासना का परित्याग कर दृढ़ विश्वास के साथ इसीमें लग जाओ और अपना उद्धार कर लो।’ उन्होंने केवल ऐसा कहा ही नहीं, बल्कि स्वयं लोगों के घरों पर जा-जाकर और अपने परम भागवत साथियों को भेज-भेजकर येन-केन-प्रकारेण लोगों को हरि-नाम में लगाया। जगाई-मधाई-सरीखे प्रसिद्ध पात की हरि नाम परायण हो गये। लोगों को इस सन्मार्गमें लगानेके कार्य में उन्होंने गालियाँ सुनीं, कटुक्तियाँ सहीं, बल्कि श्री नित्यानंद और हरिदास आदि भक्तवरों ने तो भीषण प्रहार सहन करके पात्रापात्र का विचार छोड़कर जनता में हरि नाम वितरण किया। इसी प्रकार भक्त श्रेष्ठ कबीर, नानक, तुकाराम, रामदास, ज्ञानदेव, सोपानदेव, मीरा, तुलसीदास, सूरदास, नन्ददास, चरणदास, दादूदयाल, सुन्दरदास, सहजोबाई, दयाबाई, सखूबाई आदि भागवतों ने भी हरि नाम को ही जीवोंके के कल्याण के प्रधान उपाय समझा और अपनी दिव्य वाणीसे इसीका प्रचार किया। आधुनिक कालमें भी भारतवर्ष में जितने महात्मा संत हो गये हैं, सभीने एक स्वरसे मुक्त-कण्ठ होकर नाम महिमा का गान किया और कर रहे हैं। जिस नामका इतना प्रभाव, महत्त्व और विस्तार है उसपर मुझ जैसा रसानभिज्ञ मनुष्य क्या लिख सकता है? मेरा तो यह केवल एक तरह का दुःसाहस है, जो संतों की कृपा और प्रेमियों के प्रेम के भरोसे पर ही किया जा रहा है। मैं भगवन्नामकी महिमा क्या लिखू? मैं तो नाम का ही जिलाया जी रहा हूँ। शास्त्रों में नाम महिमा के इतने अधिक प्रसंग हैं कि उनकी गणना करना भी बड़ा कठिन कार्य है। इतना होते हुए भी जगत् के  सब लोग नाम पर विश्वास क्यों नहीं करते? नामका साधन तो कठिन नहीं प्रतीत होता। पूजा, होम, यज्ञ आदि में जितना अधिक प्रयास और सामग्रियोंका संग्रह करना पड़ता है, इसमें वह सब कुछ भी नहीं करना पड़ता।


पापानलस्य दीप्तस्य मा कुर्वन्तु भयं नराः।
गोविन्दनाममेघौधैर्नश्यते नीरबिन्दुभिः॥
(गरुडपुराण)
'हे मनुष्यो! प्रदीप्त पापाग्निको देखकर भय न करोगोविन्दनामरूप मेघोंके के जलबिन्दु से इसका नाश हो जाएगा।"

पापों से छूटकर परमात्मा के परम पद को प्राप्त करने के लिये शास्त्रों में अनेक उपाय बतलाये गये हैं। दयामय महर्षियों ने दुःख कातर जीवों के  कल्याणार्थ वेदों के आधार पर अनेक प्रकार की ऐसी विधियाँ बतलायी हैंजिनका तथा अधिकार आचरण करने से जीव पाप मुक्त होकर सदा के लिये निरतिशयानन्द परमात्म सुख को प्राप्त कर सकता है। परंतु इस समय कलियुग है। जीवन की अवधि बहुत थोड़ी है। मनुष्य की आयु प्रतिदिन घट रही है। आध्यात्मिकआधिभौतिक और आधिदैविक तापों की वृद्धि हो रही है। भोगों की प्रबल लालसा ने प्रायः सभीको विवश और उन्मत्त बना रखा है। कामना के अशेष कलंक से बुद्धि पर कालिमा छा गयी है। परिवारकुटुम्बजाति या देश के नामपर होने वाली विविध भाँति की मोहमयी क्रियाओं के तीव्र धारा-प्रवाह में जगत् बह रहा है। देश और उन्नति के नामपर धर्मअहिंसासत्य और मनुष्यत्व तक का विसर्जन किया जा रहा है। सारे जगत कुवासना मय कुप्रवृत्तियों का ताण्डव नृत्य हो रहा है। शास्त्रों के कथनानुसार युग प्रभाव से या हमारे दुर्भाग्य दोष से धर्म का एक पाद भी इस समय केवल नाम मात्र को रहा है। आजकल के जीव धर्म अनुमोदित सुख से सुखी होना नहीं चाहते।
सुख चाहते हैं-अटलअखण्ड और आत्यन्तिक सुख चाहते हैंपरन्तु सुख का मूल भित्ति धर्म का सर्वनाश करनेपर तुले हुए हैं। ऐसी स्थिति में सुखके स्वप्न से भी जगत को केवल निराश ही रहना पड़ता है।
हमारी इस दुर्दशा को महापुरुषों ने और भगवद्भक्तों ने पहले से ही जान लिया था। इसी से उन्होंने दया परवश हो हमारे लिये एक ऐसा उपाय बतलाया जो इच्छा करनेपर सहज ही में काम में लाया जा सकता है। परंत जिसका वह महान् फल होता है जो पूर्वकाल में बड़े-बड़े यज्ञतप और दान से भी नहीं होता था। वह है श्रीहरि नाम का जप-कीर्तन और स्मरण!

वेदान्त दर्शन के निर्माता भगवान् व्यास देव रचित भागवत में ज्ञानी-श्रेष्ठ शुकदेव जी महाराज शीघ्र ही मृत्यु का आलिंगन करने के लिये तैयार बैठे हुए राजा परीक्षित पुकार कर कहते हैं —
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः।
कीर्तन देव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत ॥
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद् धरी कीर्तनात ॥
(श्रीमद्भागवत १२ । ३। ५१-५२)
'हे राजन्! इस दोषोंसे भरे हुए कलयुग में एक महान् गुण यह है कि केवल श्रीकृष्ण के 'नाम-कीर्तन' से ही मनुष्य सारी आसक्तियों से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। सतयुग में ध्यान सेत्रेता में यज्ञों से और द्वापर में परिचर्या से जो पद प्राप्त होता था वही कलियुग में केवल श्रीहरि नाम कीर्तन से प्राप्त होता है।’
इसलिये चार सौ वर्ष पूर्व बंगाल के नवद्वीप नामक स्थान में प्रेमावतार श्रीश्रीचैतन्यदेव ने अवतीर्ण होकर मुक्त कण्ठ से इसी बात की घोषणा की थी कि 'भय न करोसबसे बड़ा प्रायश्चित्त और परमात्मा प्रेम सम्पादन का परमोत्तम साधन ‘श्रीहरि नाम’ है, संसार वासना का परित्याग कर दृढ़ विश्वास के साथ इसीमें लग जाओ और अपना उद्धार कर लो।’ उन्होंने केवल ऐसा कहा ही नहींबल्कि स्वयं लोगों के घरों पर जा-जाकर और अपने परम भागवत साथियों को भेज-भेजकर येन-केन-प्रकारेण लोगों को हरि-नाम में लगाया। जगाई-मधाई-सरीखे प्रसिद्ध पात की हरि नाम परायण हो गये। लोगों को इस सन्मार्गमें लगानेके कार्य में उन्होंने गालियाँ सुनींकटुक्तियाँ सहींबल्कि श्री नित्यानंद और हरिदास आदि भक्तवरों ने तो भीषण प्रहार सहन करके पात्रापात्र का विचार छोड़कर जनता में हरि नाम वितरण किया। इसी प्रकार भक्त श्रेष्ठ कबीरनानकतुकारामरामदासज्ञानदेवसोपानदेवमीरातुलसीदाससूरदासनन्ददासचरणदासदादूदयालसुन्दरदाससहजोबाईदयाबाईसखूबाई आदि भागवतों ने भी हरि नाम को ही जीवोंके के कल्याण के प्रधान उपाय समझा और अपनी दिव्य वाणीसे इसीका प्रचार किया। आधुनिक कालमें भी भारतवर्ष में जितने महात्मा संत हो गये हैंसभीने एक स्वरसे मुक्त-कण्ठ होकर नाम महिमा का गान किया और कर रहे हैं। जिस नामका इतना प्रभावमहत्त्व और विस्तार है उसपर मुझ जैसा रसानभिज्ञ मनुष्य क्या लिख सकता हैमेरा तो यह केवल एक तरह का दुःसाहस हैजो संतों की कृपा और प्रेमियों के प्रेम के भरोसे पर ही किया जा रहा है। मैं भगवन्नामकी महिमा क्या लिखूमैं तो नाम का ही जिलाया जी रहा हूँ। शास्त्रों में नाम महिमा के इतने अधिक प्रसंग हैं कि उनकी गणना करना भी बड़ा कठिन कार्य है। इतना होते हुए भी जगत् के  सब लोग नाम पर विश्वास क्यों नहीं करतेनामका साधन तो कठिन नहीं प्रतीत होता। पूजाहोमयज्ञ आदि में जितना अधिक प्रयास और सामग्रियोंका संग्रह करना पड़ता हैइसमें वह सब कुछ भी नहीं करना पड़ता।

  - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 


पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीभगवन्नाम- 8 -नाम-भजन के कई प्रकार हैं-

- नाम-भजन के कई प्रकार हैं- जप ,  स्मरण और कीर्तन।   इनमें सबसे पहले जप की बात कही जाती है।   परमात्मा के जिस नाम में रुचि हो ,  जो अपने मन को रुचिकर हो उसी नाम की परमात्मा की भावना से बारम्बार आवृत्ति करने का नाम ' जप ' है।   जप की शास्त्रों में बड़ी महिमा है। जप को यज्ञ माना है और श्री गीताजी में भगवान के इस कथन से कि   ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ' ( यज्ञों में जप-यज्ञ मैं हूँ)   जप का महत्त्व बहुत ही बढ़ गया है। जप के तीन प्रकार हैं-साधारण ,  उपांशु और मानस। इनमें पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर दस गुणा अधिक फलदायक है। भगवान मनु कहते हैं –   विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः। उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः॥ दर्श-पौर्णमासादि विधि यज्ञों से (यहाँ मनु महाराज ने भी विधि यज्ञों से जप-यज्ञ को ऊँचा मान लिया है) साधारण जप दस श्रेष्ठ है ,  उपांशु-जप सौ गुणा श्रेष्ठ है और मानस-जप हजार गुणा श्रेष्ठ है। जो फल साधारण जप के हजार मन्त्रों से होता है वही फल उपांशु जप के सौ मन्त्रों से और मानस-जप के एक मंत्र से हो जाता है।   उच्च स्वर से होने वाले जप को साधारण जप क

श्रीभगवन्नाम- 6 नामके दस अपराध

नामके दस अपराध बतलाये गये हैं- (१) सत्पुरुषों की निन्दा , ( २) नामों में भेदभाव , ( ३) गुरु का अपमान , ( ४) शास्त्र-निन्दा , ( ५) हरि नाम में अर्थवाद (केवल स्तुति मंत्र है ऐसी) कल्पना , ( ६) नामका सहारा लेकर पाप करना , ( ७) धर्म , व्रत , दान और यज्ञादि के साथ नाम की तुलना , ( ८) अश्रद्धालु , हरि विमुख और सुनना न चाहने वाले को नामका उपदेश करना , ( ९) नामका माहात्म्य सुनकर भी उसमें प्रेम न करना और (१०) ' मैं ', ' मेरे ' तथा भोगादि विषयों में लगे रहना।   यदि प्रमादवश इनमें से किसी तरहका नामापराध हो जाय तो उससे छूटकर शुद्ध होने का उपाय भी पुन: नाम-कीर्तन ही है। भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए नाम का कीर्तन करने से नामापराध छूट जाता है। पद्मपुराण   का वचन है — नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम्। अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि च॥ नामापराधी लोगों के पापों को नाम ही हरण करता है। निरन्तर नाम कीर्तन से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। नाम के यथार्थ माहात्म्य को समझकर जहाँ तक हो सके , नाम लेने में कदापि इस लोक और परलोक के भोगों की जरा-सी भी कामना नहीं करनी चाहिये।

षोडश गीत

  (१५) श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति (राग भैरवी-तीन ताल) राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और। लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥ मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता। कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥ पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व। उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥ तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता। केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥ एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती। रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥ अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती। सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥ सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य। कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥ जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य। यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥                                             (१६) श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति (राग भैरवी तर्ज-तीन ताल) तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र,