श्रीभगवन्नाम
पापानलस्य दीप्तस्य मा कुर्वन्तु भयं नराः।
गोविन्दनाममेघौधैर्नश्यते नीरबिन्दुभिः॥
(गरुडपुराण)
'हे मनुष्यो! प्रदीप्त पापाग्निको देखकर भय न करो, गोविन्दनामरूप मेघोंके के जलबिन्दु से इसका नाश हो जाएगा।"
पापों से छूटकर परमात्मा के परम पद को प्राप्त करने के लिये शास्त्रों में अनेक उपाय बतलाये गये हैं। दयामय महर्षियों ने दुःख कातर जीवों के कल्याणार्थ वेदों के आधार पर अनेक प्रकार की ऐसी विधियाँ बतलायी हैं, जिनका तथा अधिकार आचरण करने से जीव पाप मुक्त होकर सदा के लिये निरतिशयानन्द परमात्म सुख को प्राप्त कर सकता है। परंतु इस समय कलियुग है। जीवन की अवधि बहुत थोड़ी है। मनुष्य की आयु प्रतिदिन घट रही है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तापों की वृद्धि हो रही है। भोगों की प्रबल लालसा ने प्रायः सभीको विवश और उन्मत्त बना रखा है। कामना के अशेष कलंक से बुद्धि पर कालिमा छा गयी है। परिवार, कुटुम्ब, जाति या देश के नामपर होने वाली विविध भाँति की मोहमयी क्रियाओं के तीव्र धारा-प्रवाह में जगत् बह रहा है। देश और उन्नति के नामपर धर्म, अहिंसा, सत्य और मनुष्यत्व तक का विसर्जन किया जा रहा है। सारे जगत कुवासना मय कुप्रवृत्तियों का ताण्डव नृत्य हो रहा है। शास्त्रों के कथनानुसार युग प्रभाव से या हमारे दुर्भाग्य दोष से धर्म का एक पाद भी इस समय केवल नाम मात्र को रहा है। आजकल के जीव धर्म अनुमोदित सुख से सुखी होना नहीं चाहते।
सुख चाहते हैं-अटल, अखण्ड और आत्यन्तिक सुख चाहते हैं, परन्तु सुख का मूल भित्ति धर्म का सर्वनाश करनेपर तुले हुए हैं। ऐसी स्थिति में सुखके स्वप्न से भी जगत को केवल निराश ही रहना पड़ता है।
हमारी इस दुर्दशा को महापुरुषों ने और भगवद्भक्तों ने पहले से ही जान लिया था। इसी से उन्होंने दया परवश हो हमारे लिये एक ऐसा उपाय बतलाया जो इच्छा करनेपर सहज ही में काम में लाया जा सकता है। परंत जिसका वह महान् फल होता है जो पूर्वकाल में बड़े-बड़े यज्ञ, तप और दान से भी नहीं होता था। वह है श्रीहरि नाम का जप-कीर्तन और स्मरण!
वेदान्त दर्शन के निर्माता भगवान् व्यास देव रचित भागवत में ज्ञानी-श्रेष्ठ शुकदेव जी महाराज शीघ्र ही मृत्यु का आलिंगन करने के लिये तैयार बैठे हुए राजा परीक्षित पुकार कर कहते हैं —
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः।
कीर्तन देव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत ॥
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद् धरी कीर्तनात ॥
(श्रीमद्भागवत १२ । ३। ५१-५२)
'हे राजन्! इस दोषोंसे भरे हुए कलयुग में एक महान् गुण यह है कि केवल श्रीकृष्ण के 'नाम-कीर्तन' से ही मनुष्य सारी आसक्तियों से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। सतयुग में ध्यान से, त्रेता में यज्ञों से और द्वापर में परिचर्या से जो पद प्राप्त होता था वही कलियुग में केवल श्रीहरि नाम कीर्तन से प्राप्त होता है।’
इसलिये चार सौ वर्ष पूर्व बंगाल के नवद्वीप नामक स्थान में प्रेमावतार श्रीश्रीचैतन्यदेव ने अवतीर्ण होकर मुक्त कण्ठ से इसी बात की घोषणा की थी कि 'भय न करो, सबसे बड़ा प्रायश्चित्त और परमात्मा प्रेम सम्पादन का परमोत्तम साधन ‘श्रीहरि नाम’ है, संसार वासना का परित्याग कर दृढ़ विश्वास के साथ इसीमें लग जाओ और अपना उद्धार कर लो।’ उन्होंने केवल ऐसा कहा ही नहीं, बल्कि स्वयं लोगों के घरों पर जा-जाकर और अपने परम भागवत साथियों को भेज-भेजकर येन-केन-प्रकारेण लोगों को हरि-नाम में लगाया। जगाई-मधाई-सरीखे प्रसिद्ध पात की हरि नाम परायण हो गये। लोगों को इस सन्मार्गमें लगानेके कार्य में उन्होंने गालियाँ सुनीं, कटुक्तियाँ सहीं, बल्कि श्री नित्यानंद और हरिदास आदि भक्तवरों ने तो भीषण प्रहार सहन करके पात्रापात्र का विचार छोड़कर जनता में हरि नाम वितरण किया। इसी प्रकार भक्त श्रेष्ठ कबीर, नानक, तुकाराम, रामदास, ज्ञानदेव, सोपानदेव, मीरा, तुलसीदास, सूरदास, नन्ददास, चरणदास, दादूदयाल, सुन्दरदास, सहजोबाई, दयाबाई, सखूबाई आदि भागवतों ने भी हरि नाम को ही जीवोंके के कल्याण के प्रधान उपाय समझा और अपनी दिव्य वाणीसे इसीका प्रचार किया। आधुनिक कालमें भी भारतवर्ष में जितने महात्मा संत हो गये हैं, सभीने एक स्वरसे मुक्त-कण्ठ होकर नाम महिमा का गान किया और कर रहे हैं। जिस नामका इतना प्रभाव, महत्त्व और विस्तार है उसपर मुझ जैसा रसानभिज्ञ मनुष्य क्या लिख सकता है? मेरा तो यह केवल एक तरह का दुःसाहस है, जो संतों की कृपा और प्रेमियों के प्रेम के भरोसे पर ही किया जा रहा है। मैं भगवन्नामकी महिमा क्या लिखू? मैं तो नाम का ही जिलाया जी रहा हूँ। शास्त्रों में नाम महिमा के इतने अधिक प्रसंग हैं कि उनकी गणना करना भी बड़ा कठिन कार्य है। इतना होते हुए भी जगत् के सब लोग नाम पर विश्वास क्यों नहीं करते? नामका साधन तो कठिन नहीं प्रतीत होता। पूजा, होम, यज्ञ आदि में जितना अधिक प्रयास और सामग्रियोंका संग्रह करना पड़ता है, इसमें वह सब कुछ भी नहीं करना पड़ता।
- परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार
पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर
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