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श्रीभगवन्नाम 2 सब लोग नामपरायण क्यों नहीं होते?


सब लोग नामपरायण क्यों नहीं होते?

सब लोग नामपरायण क्यों नहीं होते?  विशेष इसका उत्तर यह है कि नाम परायण होना जितना मुख से सहज कहा जाता है, वास्तव उतना सहज नहीं है। बड़े पुण्य बल से नाम में रुचि होती है। शास्त्र पढ़ना, उपदेश देना, बड़े-बड़े शास्त्रार्थ करना सही है; परन्तु निश्चिन्त मन से विश्वास पूर्वक भगवान् का नाम लेना बड़ा कठिन है।  जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥  कुछ लोग तो इसकी ओर ध्यान ही नहीं देते, जो कुछ ध्यान देते हैं उन्हें इसका सुकरत्व (सहजपन) देख कर अश्रद्धा हो जाती है। वे समझते हैं कि जब बड़े-बड़े यज्ञ, तप, दानादि सत्कर्मों से ही पाप वासना का नाश होकर मन की वृत्तियाँ शुद्ध और सात्त्विक नहीं बनतीं, तब केवल शब्दोच्चारण या शब्द स्मरण मात्र से क्या हो सकता है? वे लोग इसे मामूली शब्द समझकर छोड़ देते हैं। कुछ लोग पण्डिताई के अभिमान से, शास्त्रों के बाह्य अवलोकन से केवल वाग्वितण्डार्थ शास्त्रार्थ पटु होकर नाम का आदर नहीं करते। पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त पुरुष तो प्रायः आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता माया मरीचिका में पड़कर ऐसी बातोंको केवल गपोड़ा ही समझते हैं। कुछ सुधार का दम भरने वाले लोग (‘संसार का सुधार केवल हमारे बलपर होगा, ईश्वर वस्तु ही क्या है? उसकी आवश्यकता तो घर-बार रहित संन्यासियों को है, हमें उससे क्या मतलब? अच्छा काम करेंगे, अच्छा फल आप ही होगा’ ऐसी भावना से) नाम का तिरस्कार करते हैं।  भगवन् नाम का स्मरण प्राय: विपत्ति काल में ही हुआ करता है। जब मनुष्य के सब सहारे छूट जाते हैं, कहीं से कोई आशा नहीं रहती, किसी से कोई आश्वासन नहीं मिलता, जगत् के लोग मुख से नहीं बोलना चाहते; निर्धनता, निर्धनता, आरोग्य हीनता और अपमान से मन घबड़ा उठता है, दुःख की विष मयी ज्वाला से हृदय दग्ध होने लगता है; मित्र, स्नेही, सुहृद् और घर वालों का एकान्त अभाव हो जाता है, तब प्राण रो उठते हैं। हृदय खोजता है किसी ऐसी शीतल सुरम्य वस्तु को, जिसे पाकर उसे कुछ शीतलता, कुछ शान्ति प्राप्त हो सके। ऐसे दुःसमय में छटपटाते हुए व्याकुल प्राण स्वाभाविक ही उस अनजाने और अनदेखे हुए प्रीतम की की गोद का आश्रय ढूँढ़ते हैं, ऐसे अवसरपर बड़े-बड़े शास्त्राभिमानी, शास्त्रार्थ में तर्कयुक्तियों से ईश्वर का खण्डन करने वाले, धन और पद के मत में ईश्वर को तुच्छ समझने वाले, विषयोंकी प्रमाद मदिरा के अविरत पान से उन्मत्त होकर विचरने वाले मनुष्यों के मुँह से भी सहसा ऐसे उद्गार निकल पड़ते हैं कि ‘हे राम! हे ईश्वर! तू ही बचा! तेरे बिना अब और कोई सहारा नहीं है।’ ऐसे ही विपद्-संकुल समय में जिह्वा स्वच्छन्दतासे भगवन्नामका उच्चारण करने लगती है और ऐसे ही शोक मोह पूर्ण समय में मन और प्राण भी उसका स्मरण करने लग जाते हैं। इसी लोभ से तो माता कुंती भगवान् श्रीकृष्ण विपत्ति का वरदान माँगा था। उसने कहा था कि ‘हे कृष्ण ! तेरा स्मरण विपत्ति में ही होता है, इसलिये मुझे बार-बार विपत्ति के जाल में डालता रह!’     तात्पर्य यह कि भगवन्नामका स्मरण प्राय: दु:ख काल में होता है दु:खी, अनाश्रित और दीन जन ही प्राय: उसका नाम लिया करते हैं इसलिये कुछ लोग जो विषयोंके बाहुल्यसे मोहवश अपनेको बड़ा, बुद्धिमान्, धन-जनवान् और सुखी मानते हैं, भगवन्नाम लेकर अपनी समझसे दीन-दु:खी और अनाश्रितोंकी श्रेणीमें सम्मिलित होना नहीं चाहते।  कुछ ज्ञान अभिमानी लोग ज्ञान अभिमानमें हरि नाम को गौण या मन्द साधन समझकर त्याग देते हैं। जनता अधिकतर संसार में बड़े लोग कहलाने वालों के पीछे ही चला करती है। यही सब कारण है कि सब लोग हरि नाम के परायण नहीं होते।  एक कारण और है जिससे नामके विस्तार में बड़ी बाधा पड़ती है, वह है नाम को पाप का साधन बना लेना। ऐसे लोग संसारमें बहुत हैं जो पाप करने में जरा-सा भी संकोच नहीं करते और समझ बैठते हैं कि नाम लेते ही पाप का नाश हो जायगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि हरिनाम पाप रूपी घास के बड़े ढेर को जलाने के लिये साक्षात् अग्नि है। बड़े-से-बड़े पाप नाम के उच्चारण मात्र से नष्ट हो जाते हैं। वैशम्पायन संहिता में कहा है-  सर्वधर्मबहिर्भूतः सर्वपापरतस्तथा।  मुच्यते नात्र सन्देहो विष्णोर्नामानु कीर्तनात् ॥   सर्वधर्म त्यागी और सर्व पाप निरत पुरुष भी यदि हरि-नाम-कीर्तन करता है तो वह पापों से छूट जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पूर्व के पापों का नाश करनेके लिये हरिनाम सबसे बड़ा और शीघ्र फलदायक प्रायश्चित्त है। नाम के प्रतापसे  पापी-से-पापी मनुष्य भी भगवान् के परम पद को प्राप्त हो जाता है, परंतु जो मनुष्य जान-बूझ कर हरि-नाम की दुहाई देकर मनमें दृढ़ संकल्प करके पापों में प्रवृत्त होता है उसका कहीं निस्तार नहीं होता। रोग निवृत्ति के लिये ही औषध का सेवन किया जाता है; परंतु जो लोग बीमारी बढ़ाने के लिये दवा लेते हैं उनके सिवा मरने के और क्या फल मिल सकता है? पद्म पुराण का वचन है—  नाम्नो बलाद् यस्य हि पापबुद्धिर्न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः।  ‘जो नामका सहारा लेकर पापों में प्रवृत्त होता है वह अनेक प्रकार की यम-यातना भोग करनेपर भी शुद्ध नहीं होता।’  जे नर नामप्रताप बल, करत पाप नित आप।  बज्रलेप है जायँ ते, अमिट सुदुष्कर पाप॥  इसमें कोई सन्देह नहीं कि—  परदारतो वापि परापकृतिकारकः।  संशुद्धो मुक्तिमाप्नोति हरेर्नामानुकीर्तनात्॥  (मत्स्यपुराण)  ‘परस्त्रीगामी और पर पीडन कारी मनुष्य भी हरि-नाम-कीर्तन से शुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।’ इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि भागवत के कथनानुसार चोर, शराबी, मित्र-द्रोही, स्त्री, राजा, पिता, गौ तथा ब्राह्मण की हत्या करनेवाला, गुरु पत्नी गामी और अन्यान्य बड़े-बड़े पापों में रत रहनेवाला पुरुष भी भगवान् के नाम ग्रहण मात्र से तत्काल मुक्त हो जाता है—  पातक उप-पातक महा, जेते पातक और।  नाम लेत तत्काल सब, जरत खरत तेहि ठौर॥  पहले के कितने भी बड़े-बड़े पाप संचित क्यों न हों, सच्चे मनसे भगवन्नाम लेते ही वे सब अग्नि में ईंधन की तरह जल जाते हैं। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि भगवन्नाम लेनेवालोंको पाप करनेके लिये छूट मिल जाती है। भगवान् का नाम भी लेंगे और साथ-ही-साथ मनमाने पाप भी करते रहेंगे, इस प्रकारकी जिनकी कुवासना है, उनके लिये तो फल उलटा ही होता है। नाम-महिमाकी दुहाई देकर पाप करनेवालेको नरकमें भी जगह नहीं मिलती। जो लोग जान-बूझकर धनके लोभसे चोरी करके, परस्त्री गमन करके, क्रोध या लोभ वश हिंसा करके, गुरु-शास्त्रों का अपमान करके, मद्यपान-म्लेच्छ-भोजनादि करके, स्त्री-हत्या, भ्रूण हत्या करके और झूठी गवाही देकर या झूठा मामला सजा करके ‘राम-राम’ कह देते हैं और अपना छुटकारा मान लेते हैं। उनके पापोंका नाश नहीं होता। उनके पाप तो वज्रलेप हो जाते हैं। ऐसे ही लोगों को देखकर अच्छे लोग भी नाम महिमा को अर्थवाद (स्तुतिमात्र) समझकर नामपरायण नहीं होते। परन्तु यह उनकी भूल है ।      - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार  पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर

विशेष इसका उत्तर यह है कि नाम परायण होना जितना मुख से सहज कहा जाता है, वास्तव उतना सहज नहीं है। बड़े पुण्य बल से नाम में रुचि होती है। शास्त्र पढ़ना, उपदेश देना, बड़े-बड़े शास्त्रार्थ करना सही है; परन्तु निश्चिन्त मन से विश्वास पूर्वक भगवान् का नाम लेना बड़ा कठिन है।
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कुछ लोग तो इसकी ओर ध्यान ही नहीं देते, जो कुछ ध्यान देते हैं उन्हें इसका सुकरत्व (सहजपन) देख कर अश्रद्धा हो जाती है। वे समझते हैं कि जब बड़े-बड़े यज्ञ, तप, दानादि सत्कर्मों से ही पाप वासना का नाश होकर मन की वृत्तियाँ शुद्ध और सात्त्विक नहीं बनतीं, तब केवल शब्दोच्चारण या शब्द स्मरण मात्र से क्या हो सकता है? वे लोग इसे मामूली शब्द समझकर छोड़ देते हैं। कुछ लोग पण्डिताई के अभिमान से, शास्त्रों के बाह्य अवलोकन से केवल वाग्वितण्डार्थ शास्त्रार्थ पटु होकर नाम का आदर नहीं करते। पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त पुरुष तो प्रायः आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता माया मरीचिका में पड़कर ऐसी बातोंको केवल गपोड़ा ही समझते हैं। कुछ सुधार का दम भरने वाले लोग (संसार का सुधार केवल हमारे बलपर होगा, ईश्वर वस्तु ही क्या है? उसकी आवश्यकता तो घर-बार रहित संन्यासियों को है, हमें उससे क्या मतलब? अच्छा काम करेंगे, अच्छा फल आप ही होगाऐसी भावना से) नाम का तिरस्कार करते हैं।
भगवन् नाम का स्मरण प्राय: विपत्ति काल में ही हुआ करता है। जब मनुष्य के सब सहारे छूट जाते हैं, कहीं से कोई आशा नहीं रहती, किसी से कोई आश्वासन नहीं मिलता, जगत् के लोग मुख से नहीं बोलना चाहते; निर्धनता, निर्धनता, आरोग्य हीनता और अपमान से मन घबड़ा उठता है, दुःख की विष मयी ज्वाला से हृदय दग्ध होने लगता है; मित्र, स्नेही, सुहृद् और घर वालों का एकान्त अभाव हो जाता है, तब प्राण रो उठते हैं। हृदय खोजता है किसी ऐसी शीतल सुरम्य वस्तु को, जिसे पाकर उसे कुछ शीतलता, कुछ शान्ति प्राप्त हो सके। ऐसे दुःसमय में छटपटाते हुए व्याकुल प्राण स्वाभाविक ही उस अनजाने और अनदेखे हुए प्रीतम की की गोद का आश्रय ढूँढ़ते हैं, ऐसे अवसरपर बड़े-बड़े शास्त्राभिमानी, शास्त्रार्थ में तर्कयुक्तियों से ईश्वर का खण्डन करने वाले, धन और पद के मत में ईश्वर को तुच्छ समझने वाले, विषयोंकी प्रमाद मदिरा के अविरत पान से उन्मत्त होकर विचरने वाले मनुष्यों के मुँह से भी सहसा ऐसे उद्गार निकल पड़ते हैं कि हे राम! हे ईश्वर! तू ही बचा! तेरे बिना अब और कोई सहारा नहीं है। ऐसे ही विपद्-संकुल समय में जिह्वा स्वच्छन्दतासे भगवन्नामका उच्चारण करने लगती है और ऐसे ही शोक मोह पूर्ण समय में मन और प्राण भी उसका स्मरण करने लग जाते हैं। इसी लोभ से तो माता कुंती भगवान् श्रीकृष्ण विपत्ति का वरदान माँगा था। उसने कहा था कि हे कृष्ण ! तेरा स्मरण विपत्ति में ही होता है, इसलिये मुझे बार-बार विपत्ति के जाल में डालता रह!

तात्पर्य यह कि भगवन्नामका स्मरण प्राय: दु:ख काल में होता है दु:खी, अनाश्रित और दीन जन ही प्राय: उसका नाम लिया करते हैं इसलिये कुछ लोग जो विषयोंके बाहुल्यसे मोहवश अपनेको बड़ा, बुद्धिमान्, धन-जनवान् और सुखी मानते हैं, भगवन्नाम लेकर अपनी समझसे दीन-दु:खी और अनाश्रितोंकी श्रेणीमें सम्मिलित होना नहीं चाहते।
कुछ ज्ञान अभिमानी लोग ज्ञान अभिमानमें हरि नाम को गौण या मन्द साधन समझकर त्याग देते हैं। जनता अधिकतर संसार में बड़े लोग कहलाने वालों के पीछे ही चला करती है। यही सब कारण है कि सब लोग हरि नाम के परायण नहीं होते।
एक कारण और है जिससे नामके विस्तार में बड़ी बाधा पड़ती है, वह है नाम को पाप का साधन बना लेना। ऐसे लोग संसारमें बहुत हैं जो पाप करने में जरा-सा भी संकोच नहीं करते और समझ बैठते हैं कि नाम लेते ही पाप का नाश हो जायगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि हरिनाम पाप रूपी घास के बड़े ढेर को जलाने के लिये साक्षात् अग्नि है। बड़े-से-बड़े पाप नाम के उच्चारण मात्र से नष्ट हो जाते हैं। वैशम्पायन संहिता में कहा है-
सर्वधर्मबहिर्भूतः सर्वपापरतस्तथा।
मुच्यते नात्र सन्देहो विष्णोर्नामानु कीर्तनात् ॥
 सर्वधर्म त्यागी और सर्व पाप निरत पुरुष भी यदि हरि-नाम-कीर्तन करता है तो वह पापों से छूट जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पूर्व के पापों का नाश करनेके लिये हरिनाम सबसे बड़ा और शीघ्र फलदायक प्रायश्चित्त है। नाम के प्रतापसे  पापी-से-पापी मनुष्य भी भगवान् के परम पद को प्राप्त हो जाता है, परंतु जो मनुष्य जान-बूझ कर हरि-नाम की दुहाई देकर मनमें दृढ़ संकल्प करके पापों में प्रवृत्त होता है उसका कहीं निस्तार नहीं होता। रोग निवृत्ति के लिये ही औषध का सेवन किया जाता है; परंतु जो लोग बीमारी बढ़ाने के लिये दवा लेते हैं उनके सिवा मरने के और क्या फल मिल सकता है? पद्म पुराण का वचन है—
नाम्नो बलाद् यस्य हि पापबुद्धिर्न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः।
‘जो नामका सहारा लेकर पापों में प्रवृत्त होता है वह अनेक प्रकार की यम-यातना भोग करनेपर भी शुद्ध नहीं होता।
जे नर नामप्रताप बल, करत पाप नित आप।
बज्रलेप है जायँ ते, अमिट सुदुष्कर पाप॥
इसमें कोई सन्देह नहीं कि—
परदारतो वापि परापकृतिकारकः।
संशुद्धो मुक्तिमाप्नोति हरेर्नामानुकीर्तनात्॥
(मत्स्यपुराण)
‘परस्त्रीगामी और पर पीडन कारी मनुष्य भी हरि-नाम-कीर्तन से शुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।’ इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि भागवत के कथनानुसार चोर, शराबी, मित्र-द्रोही, स्त्री, राजा, पिता, गौ तथा ब्राह्मण की हत्या करनेवाला, गुरु पत्नी गामी और अन्यान्य बड़े-बड़े पापों में रत रहनेवाला पुरुष भी भगवान् के नाम ग्रहण मात्र से तत्काल मुक्त हो जाता है
पातक उप-पातक महा, जेते पातक और।
नाम लेत तत्काल सब, जरत खरत तेहि ठौर॥
पहले के कितने भी बड़े-बड़े पाप संचित क्यों न हों, सच्चे मनसे भगवन्नाम लेते ही वे सब अग्नि में ईंधन की तरह जल जाते हैं। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि भगवन्नाम लेनेवालोंको पाप करनेके लिये छूट मिल जाती है। भगवान् का नाम भी लेंगे और साथ-ही-साथ मनमाने पाप भी करते रहेंगे, इस प्रकारकी जिनकी कुवासना है, उनके लिये तो फल उलटा ही होता है। नाम-महिमाकी दुहाई देकर पाप करनेवालेको नरकमें भी जगह नहीं मिलती। जो लोग जान-बूझकर धनके लोभसे चोरी करके, परस्त्री गमन करके, क्रोध या लोभ वश हिंसा करके, गुरु-शास्त्रों का अपमान करके, मद्यपान-म्लेच्छ-भोजनादि करके, स्त्री-हत्या, भ्रूण हत्या करके और झूठी गवाही देकर या झूठा मामला सजा करके राम-रामकह देते हैं और अपना छुटकारा मान लेते हैं। उनके पापोंका नाश नहीं होता। उनके पाप तो वज्रलेप हो जाते हैं। ऐसे ही लोगों को देखकर अच्छे लोग भी नाम महिमा को अर्थवाद (स्तुतिमात्र) समझकर नामपरायण नहीं होते। परन्तु यह उनकी भूल है ।

  - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर 





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