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श्रीभगवन्नाम- 7 भगवन्नाम के मूल्य पर एक दृष्टान्त

भगवन्नाम के मूल्य पर एक दृष्टान्त

एक श्रद्धालु भक्त प्रतिदिन गांव के बाहर एक महात्मा के पास जाया करता था। जब महात्मा की सेवा करते-करते उसे बहुत दिन बीत गये तब महात्मा ने उसे अधिकारी समझकर कहा कि 'वत्स! तेरी मति भगवान में है, तू श्रद्धालु है, गुरु सेवापरायण है, कुतार्किक आलसी नहीं है, शास्त्र वचनों में विश्वास है, किसी का बुरा नहीं चाहता, किसी से घृणा और द्वेष नहीं करता, सरल-चित्त है, काम, क्रोध, लोभ से डरता है, संतों का उपासक है और जिज्ञासु है; इसलिये तुझे एक ऐसा गोपनीय मन्त्र देता हूँ जिसका पता बहुत ही थोड़े लोगों को है। यह मन्त्र परम गुप्त और अमूल्य है, किसी से कहना नहीं!' यों कहकर महात्मा ने उसके कान धीरे से कह दिया 'राम' श्रद्धालु भक्त मन्त्रराज 'राम' का जप करने लगा।

वह एक दिन गंगा नहाकर लौट रहा था तो उसका ध्यान उन लोगोंकी तरफ गया तो हजारों की संख्या में उसी की तरह गंगा नहाकर जोर-जोर से 'राम-राम' पुकारते चले आ रहे थे। सुनता तो रोज ही था परंतु कभी इस ओर उसका ध्यान नहीं गया था। आज ध्यान जाते ही उसके मन में यह विचार आया कि महात्मा तो राम मंत्र को बड़ा गुप्त बतलाते थे, मुझसे कह भी दिया था कि किसी से कहना नहीं, परंतु इसको तो सभी जानते हैं, हजारों मनुष्य 'राम-राम' पुकारते हुए चलते हैं। उसके मन में कुछ संशय उत्पन्न हो गया। वह अपने घर न जाकर सीधे गुरु के समीप गया।

महात्मा ने कहा कि 'वत्स! आज इस समय कैसे आया?' उसने अपना संशय सुनाकर कहा कि 'प्रभो! मेरे समझने में भ्रम हुआ है या इसका और कोई मतलब है? अपनी दिव्यवाणी से मेरा संदेह दूर करने की कृपा कीजिए।' महात्मा ने उसके मन की बात जान ली और कहा कि 'भाई! तेरे प्रश्न का उत्तर पीछे दिया जायगा। पहले तू मेरा एक काम कर।' महात्मा ने झोली में से एक चमकती हुई कांच की- सी गोली निकाली और उसे भक्त के हाथ में देकर कहा कि 'बाजार में जाकर इसकी कीमत करवा के लौट आ। बेचना नहीं है, सिर्फ कीमत जाननी है। सावधान! कीमत अँकाने में कहीं भूल न हो जाय।

भक्त श्रद्धालु था, आजकल का - सा कोई होता तो पहले ही गुरु महाराज को आड़े हाथों लेता और कहता कि मैं तुम्हारे काँच के टुकड़े की कीमत जँचवाने नहीं आया हूँ, तुम्हारा कोई गुलाम नहीं हूँ। पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दो, नहीं तो मेरे साथ छल करने के अपराध तुमपर कोर्ट में नालिश की जायगी।' वह समय दूसरा था। भक्त अपना प्रश्न वहीं छोड़कर गुरु का काम करनेके लिये बाजार में गया।

सबसे पहले एक शाक बेचने वाली वाली मिली। भक्त ने गुरु की चीज उसे दिखलाकर कहा कि 'इसकी क्या कीमत देगी?' शाक बेचने वाली ने पत्थर की चमक और सुन्दरता देखकर सोचा कि बच्चों के खेलने के लिये काँच की बड़ी सुन्दर गोली है। बाजार में कहीं ऐसी नहीं मिलती। उसने कहा-'सेर-दो-सेर आलू या बैंगन ले लो।' वह आगे बढ़ा, एक सुनारकी दूकान थी वहाँ ठहरा। सुनार को गोली दिखलाकर पूछा-'भाई! इसकी क्या कीमत दोगे?' सुनार ने हाथ में लेकर देखा और उसे अच्छा पुखराज (नकली हीरा) समझकर सौ रुपये देने को कहा। भक्तकी भी दिलचस्पी बढ़ी, वह और आगे बढ़ा।

 

एक महाजन के यहाँ गया। महाजन ने गोली देखकर मनमें विचार किया कि इतना बड़ा और ऐसा अच्छा हीरा तो जगत् में कहाँ से होगा? है तो पुखराज ही, परंतु हीरा-सा लगता है। बड़े घर में नकली भी असली ही समझा जाता है, उसने हजार रुपया में माँगा। भक्त ने सोचा कि हो-न-हो, है तो कोई बड़ी मूल्यवान् वस्तु। वह और आगे बढ़ा और एक जौहरी की दूकान पर गया। जौहरी ने परीक्षा की तो उसे हीरा ही मालूम दिया, परंतु इतना बड़ा और ऐसा हीरा कभी उसने देखा ही न था, इसलिये उसे कुछ सन्देह रहा तथापि उसने एक लाख रुपये में माँगा। भक्त 'बेचना नहीं है' कहकर एक सबसे बड़े जौहरी की दूकान पर गया। जब गुरु के पास से आया था तब तो उसे जौहरियों के पास जाने का साहस ही नहीं था, वह स्वयं उसे मामूली काँच समझता था, परंतु ज्यों-ज्यों कीमत बढ़ती गयी त्यों-त्यों उसका भी साहस बढ़ता गया। बड़े जौहरी ने हीरा देखकर कहा कि 'भाई! यह तो अमूल्य है। इस देश की सारी जवाहरात इसके मूल्य में दे दी जाय तब भी इसका मूल्य पूरा नहीं होता। इसे बेचना नहीं।' यह सुनकर भक्त ने विचार किया कि अब तो सीमा हो चुकी।

वह लौटकर महात्मा के पास गया और बोला कि 'महाराज! इसकी कीमत कोई कर ही नहीं सकता, यह तो अमूल्य वस्तु है।' गुरु ने पूछा कि 'तुमको यह किसने बताया?' भक्त ने कहा कि 'प्रभु! मैंने यहाँ से बाजार में जाकर पहले शाक वाली से पूछा तो सेर दो-सेर शाक देना स्वीकार किया, सुनार ने सौ रुपये कहे, महाजन ने हजार, जौहरी ने लाख और अन्त में सबसे बड़े जौहरी ने इसे अमूल्य बतलाते हुए यह कहा कि यदि देश की सारी जवाहरात इसके बदले में दे दी जाय तब भी इसका मूल्य पूरा नहीं होता।' महात्मा ने उससे रत्न लेकर अपनी झोली में रख लिया।

भक्त ने कहा कि 'महारानी ! अब मेरी शंका-निवारण कीजिये।' महात्मा ने कहा भाई! मैं तो तुझे शंका-निवारण के लिये दृष्टान्त सहित उपदेश दे चुका। तू अभी नहीं समझा, इसलिये फिर समझाता हूँ। इस रत्न की कीमत कराने में ही तेरी शंका दूर होनी चाहिये थी। रत्न अमूल्य था, परंतु उसकी असली पहचान केवल सबसे बड़े जौहरी को ही हुई, दूसरे नहीं पहचान सके। यदि मैंने तुझे बेचने के लिये आज्ञा दे दी होती तो तू दो सेर के बदले पाँच-सात सेर शाक के मूल्य पर इसे बेच ही देता आगे बढ़ता ही नहीं। अमूल्य वस्तु कौड़ी के मूल्य चली जाती। कितना बड़ा नुकसान होता। इसी प्रकार श्रीराम-नाम भी गुप्त और अमूल्य पदार्थ है, इसकी पहचान सबको नहीं है और न इसका मूल्य ही सब कोई जानते हैं। चीज हाथ में होनेपर भी जबतक उसकी पहचान नहीं होती, तबतक उसका असलीपन गुप्त ही रहता है। इसी तरह राम-नामके असली महत्त्व को भी बहुत कम लोग जानते हैं।

 जो राम-नामका व्यवसाय करते हैं वे बेचारे बडे दयाके पात्र हैं। क्योंकि वे इस अमूल्य धन राम-नामको कौड़ीके मूल्यपर बेच देते हैं। इसीसे परम मूल्यवान् रत्नको दो सेर शाकके बदलेमें बेच देनेवाले मूर्खके समान वे सदा ही भक्ति और प्रेममें दरिद्री ही रहते हैं।

भक्ति और प्रेम के हुए बिना परमात्मा नहीं मिलते और परमात्मा को प्राप्त किये बिना दुखों से कभी छुटकारा नहीं हो सकता। दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति परमात्मा को प्राप्त करने में ही है और उस-

परमात्मा की प्राप्ति का परम साधन श्रीभगवन्नाम है

 इसलिये भगवन्नाम का किसी भी दूसरे काम में प्रयोग नहीं करना चाहिये। भगवन्नाम लेना चाहिये केवल भगवान के लिये। भगवान् के लिये भी नहीं, उसके प्रेमके लिये-प्रेमके लिये भी नहीं, बल्कि इसलिये कि लिये बिना रहा नहीं जाता।

मनकी वृत्तियाँ ऐसी बन जानी चाहिये कि जिससे भजन हुए बिना एक क्षण भी चैन नहीं पड़े। जैसे श्वास रुकते ही गला घुट जाता है-प्राण अत्यन्त व्याकुल होकर छटपटाने लगते हैं, इसी प्रकार भजन में जरा-सी भी भूल होनेसे, क्षण भर के लिये भी भजन छूटने में प्राण छटपटाने लगें। इसलिए भगवान नारद कहते हैं—

अव्यावृत भजनात तैलधारावत्

निरन्तर भजन करनेसे ही प्रेमकी प्राप्ति होती है। भजन में सबसे पहले नामकी आवश्यकता है। जिसका भजन करना होता है, सर्वप्रथम उसका नाम जानना पड़ता है। इसलिये नाम ही भजन का मूल है।

 

 - परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार 
            पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338)गीताप्रेसगोरखपुर


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