नामका फल अवश्य होता है
परंतु जैसा चाहिये वैसा नहीं होता। दम्भार्थ नाम लेने वाले
भी संसार में पूजे जाते हैं। उनके पापोंका नाश भी होता ही है, परंतु अनन्त जन्मों के संचित और इस समय भी लगातार
होनेवाले अनन्त पाप श्रद्धा
रहित नाम से पूरे नष्ट नहीं हो पाते। नामसे पूरा फल प्राप्त न होने में श्रद्धा
के अतिरिक्त एक और प्रधान कारण है –
साधक का सकाम भाव!
हम बहुत बड़ी मूल्यवान् वस्तु को बहुत सस्ते दामों पर
बेच देते हैं। सिर में मामूली दर्द होता है तो उसे मिटाने
के लिये "राम-राम" कहते हैं। सौ-पचास रुपये कमाई के लिये राम-नाम लेते
हैं। स्त्री, बच्चों
की आरोग्यता के लिये राम-नाम लेते हैं। मान-बड़ाई पाने के लिये राम-नाम कहते हैं। संतान-सुख के लिये राम-नाम कहते हैं। फल यह होता है कि हम राम-नाम लेनेपर भी कमाने के
साथ ही लुटाने वाले मूर्ख के समान जैसे-के-तैसे ही रह जाते हैं। चलनी में
जितना भी पानी भरते रहो, सभी निकल
जायगा। हमारा
अन्तःकरण भी कामनाओं के अनन्त छेद से चलनी हो रहा है। इसमें कुछ भी ठहरता नहीं।
राम-नामका फल कैसे हो? प्यास लगी हुई है, जगत् में सुखकी पिपासा किसको नहीं है? पवित्र जल का भी झरना झर रहा है, राम-नामके
झरने का प्रवाह सदा ही अबाधित रूप से बहता है, परंतु हम अभागे उस झरने के आगे अंजलि बाँधकर जल ग्रहण नहीं करते। हम उसके
आगे रखते हैं हजारों छेदों वाली चलनी, जिसमें न तो
कभी पानी ठहरता है और न हमारी प्यास ही बुझती है। सकाम भाव से लिये हुए नामसे भी, नाम के असली फल - आत्यन्तिक सुख से - हम इसी प्रकार वंचित रह जाते हैं।
प्रथम तो कोई भगवन्नाम लेता ही नहीं और यदि कोई लेता है तो वह सकाम भाव से, धन-सन्तान, मान- बड़ाई की वृद्धि के लिये लेता है। नियमानुसार फल में
जहाँ-का-तहाँ ही रहना पड़ता है। परंतु नाम की महिमा अपार है। इस
प्रकार लिये हुए नामसे भी फल तो होता ही है। सकाम कर्म की
सिद्धि भी होती है और आगे चलकर भगवद्भक्ति प्राप्त होती है।
जब इन पंक्तियों का क्षुद्र लेखक सकाम भाव से नाम-जप किया
करता था तब कई बार उसकी ऐसी विपत्तियाँ टली हैं जिनके टलने की कोई भी आशा नहीं थी। केवल वह विपत्तियाँ ही नहीं टली, उसका और फल भी हुआ। नाममें रुचि बढ़ी और आगे चलकर
निष्काम भाव भी हो गया। भगवन्नाम
लेनेका अन्तिम परिणाम है भगवान् में एकान्त प्रेम हो जाना। एकान्त प्रेम होनेके बाद
प्रेममयके मिलनेमें जरा-सा भी विलम्ब नहीं होता जैसे ध्रुव को और विभीषण को
राज्य की भी प्राप्ति हुई और भगवत्प्रेमकी भी।
इसीलिये
शास्त्रों में चाहे जैसे भगवन्नाम लेने वाले को भी बड़ा उत्तम बतलाया है, भगवान्
ने गीता में इसीलिये अर्थार्थी भक्त को भी उदार और पुण्यात्मा बतलाया है और अन्त में 'मद्भक्ता
यान्ति मामपि' कहकर चाहे जिस प्रकार भी भगवद्भक्ति करनेवालेको अपनी प्राप्ति कही है, क्योंकि सकाम भाव से अन्य सबकी आशा छोड़कर, अन्य सबका
आश्रय त्यागकर केवल भगवान् की भक्ति के परायण होना भी बड़े भारी पुण्यों का फल है। अतएव सकाम भाव से भगवान् के नाम-ग्रहण करनेवाले लोग भी
बड़े पूज्य और मान्य हैं; परंतु उनको
सकाम भाव की प्रतिबन्धकता के कारण नाम के वास्तविक फल नामी के प्रेम की या स्वयं
नामी की प्राप्ति में विलम्ब अवश्य हो जाता है। इससे यह सिद्ध हो गया कि नामसे फल
तो अवश्य होता है, परंतु अश्रद्धा, अविश्वास
और कामना के कारण उसके असली फल की प्राप्ति में देर हो जाती है। यदि साधक इस अपने दोषसे होने वाली देरी का दोष नामपर लगाकर
उसे अर्थवाद कहता है तो यह भी उसका अपराध है।
- परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार
पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर
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