१.सच्ची चाह का स्वरुप यह है कि फिर चाही हुई वस्तु के बिना जीना कठिन हो जाता है | सच्ची चाह का स्वरुप होता है अनिवार्य आवश्यकता | उस एक वास्तु के सिवा और किसी कि चाह चाह तो बहुत पहले विदा हो जाती है | जब प्रेमी अपने इष्ट के बिना नहीं रह सकता तो उसे दर्शन देना ही पड़ता है | फिर खाना -पीना, सोना - जगना, उठाना-बैठना सभी बहार हो जाता है | सच्ची छह उत्पन्न होने के बाद फिर दर्शनों में देरी नहीं लगती| २. सच्ची चाह निष्काम होनी चाहिए - इसमें तो कहना ही क्या है ? यदि हमें भगवान् से उनके सिवा कुच्छ और लेने कि लालसा होगी तो वे उसे ही देंगे , अपनेको क्यों देंगे ? पूर्वकाल में सकाम उपासना करने वालों को भी दर्शन हुए हैं | परन्तु उस प्रकार के दर्शन भगवत्प्रेम कि तत्काल वृद्धि नहीं करते| उन्हें दर्शानादी यथार्थ प्राप्ति प्राय: नहीं होती | वे केवल भोग या मोक्ष ही पा सकते हैं , प्रेम नहीं | ३. चाह को बधानेका एकमात्र उपाय यही हा कि भोगों को अनित्य और दुखोत्पदक समझकर उनकी सब इच्छाएं छोड़ दी जाएँ | जबतक दूसरी कोई भी कामना रहेगी तबतक भगवत प्राप्ति कि उत्कंठा तीव्र नहीं होती | ४. निरंतर ध्यान के लिए तो निर
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