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भगवत्स्मरण

भगवान् ने गीतामें घोषणा की है -- ' जीवनके अन्तकालमें जो मेरा स्मरण करते हुए शारीरको छोड़कर जाता है -- ऐसा कोई भी हो , वह मुझको प्राप्त होता है -- इसमें संदेह नहीं है! ' जगतमें भी हम देखते हैं कि छायाचित्र लेनेमें कैमरेका स्विच दबानेके समय सामनेवालेकी जैसी आकृति होती है , वैसी ही फोटो आती है! भगवान् की इस घोषणाका हम दुरूपयोग करते हैं और कहते हैं कि ' जब अन्तकालमें भगवान् का स्मरण कर लेनेमात्रसे भगवान् की प्राप्ति हो जायगी तो अभी अन्य जरूरी- जरूरी काम कर लिये जायँ , अन्तकालमें भगवान् का स्मरण कर  लेंगे! इसपर भगवान् ने सावधान किया है कि ' जीवनभर जिस कार्यमें मन रहेगा , अन्तकालमें उसीका स्मरण होगा-- यह निशचय है! अतएव सब समय मेरा स्मरण करते हुए जगतका काम करो! ' जीवनभर मुझे भुलाये रहकर अन्तकालमें मेरे स्मरणकी आशा कदापि न करो ; यह धोखा है! इससे सावधान हो जाओ!   कुछ करना नहीं है , केवल अपने मुखको भगवान् के सम्मुख मोड़ देना है! भगवान् के सम्मुख होते ही भगवान् के विरोधी अपने-आप विमुख हो जायँगे! भोग-विमुखता और भगवत -सम्मुखता -- दोनों साथ -साथ होती हैं! भोगका अर्थ

भगवत्प्रेम

भाईजी के आराध्य ' प्रेम ' का अर्थ है -- भगवत्प्रेम ! ' प्रेम ' के नामपर जगतमें ' काम ' चलता है! वह हमारी चर्चाका विषय नहीं है! भगवत्प्रेमकी प्राप्ति सहजमें नहीं होती! बहुत ऊँची साधना की सिद्धिके पश्चात् भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होती है ! भगवत्प्रेम क्या है -- यह कोई बता नहीं सकता! कहनेके लिये कुछ सांकेतिकरूप से समझनेके लिये कह सकते हैं -- यह भगवान् की अपनेमें ही अपनेसे ही अपनी लीला है! भगवान् के साथ खेले -- ऐसा भगवान् का साथी कौन है ? भगवान् जिस खेलको खेलें , ऐसा खेल कौन-सा है ? वास्तवमें उनके योग्य न कोई साथी है न कोई खेल ही! अतएव भगवान् ही प्रेमास्पद हैं , भगवान् ही प्रेमी हैं और भगवान् ही प्रेम हैं! स्वयं ही प्रेमी और प्रेमास्पद बनकर -- एक - दूसरेकी प्रीतिके आश्रयालंबन और विषयालंबन बनकर जो भगवान् की परम दिव्य अचिन्त्यानंत गौरवमयी पवित्रतम लीला चलती है -- वास्तवमें इसे ही भगवत्प्रेम कहते हैं! इस प्रेममें ऐसा माना जाता है और यह परम सत्य है कि भगवान् ही स्वंय अपने आनंद- स्वरुपको -- अपने भावस्वरूपको लेकर अनंत लीलारूप धारण किये रहते हैं! भगवान्

भगवत्कृपा

जो जितना दीन है , उसमें भगवान् की कृपाशक्तिका उतना ही अधिक प्रकाश है! ' दैन्य ' भगवान् की कृपाके प्राकट्यके बीच लगे पर्देको फाड़ डालता है!   जैसे ब्रम्हाजीकी वाणी एक   ' द ' तीन अर्थ रखती है , वैसे ही गीता भगवान् श्री कृष्णकी वाणी है! उसके अनेक अर्थ अधिकारी-भेद से  होते हैं! यही हेतु है कि विभिन्न आचार्यों , टीकाकारोंने गीताके अर्थ पृथक् -पृथक् किये हैं! अधिकारी-भेदसे उन सब अर्थोंका सामंजस्य है!   भगवान् की कृपा अधिकारी-भेद्की अपेक्षा नहीं  रखती! वह केवल देखती है की यह एकमात्र कृपाका आकांक्षी है कि नहीं!   भगवान् की कृपा सबकी सम्पत्ति है , पर दोनोंकी सम्पत्ति विशेषरूपसे है ; क्योंकि भगवान् ' दीनवत्सल ' हैं! अबोध बालक , जो बोलना नहीं जनता , किसी प्रकारका संकेत करना नहीं जानता , वह रोकर ही मनोव्यथा व्यक्त करता है! इसी प्रकार जिसके पास रोनेके सिवा कोई साधन नहीं , वह भगवान् के सामने कातर होकर रोये! जगतके सामने रोना अशुभ है , कायरता हैं ; भगवान् के सामने रोना परम मंगलकारी है एवं परम बलका घोतक है!   भगवान् की  कृपापर  भरोसा करके दीनभावसे भगवान्

संसारका सौन्दर्य सर्वथा मिथ्या है

संसारका सौन्दर्य सर्वथा मिथ्या है , पर सुखकी छिपी आशासे हम संसारके मिथ्या सौन्दर्यके प्रति लुब्ध हो रहे हैं! संसारके किसी भी प्राणी - पदार्थमें सौन्दर्य नहीं है -- इस सत्यपर विश्वास करके हम अपनी भ्रान्तिसे जितनी जल्दी छुट्टी पा लें , उसीमें हमारा भला है!   कोई अपनी किसी साधानासे भगवान् को खरीदना चाहे तो यह उसकी मुर्खताके सिवा और कुछ नहीं है! कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है , जिसके विनिमयमें भगवान् मिल सकें ! भगवान् मिलते हैं अपनी सहज  कृपासे ही! कृपापर  विश्वास नहीं तथा कृपाको ग्रहण करनेका दैन्य नहीं है! ऐसी स्थितिमें कैसे काम बने ? ' मैंने अभिमानका त्याग कर दिया , मुझमें अभिमान नहीं है ' -- इन उक्तियोंमें भी अभिमानकी सत्ता विधमान है!   ' दैन्य ' भक्तकी शोभा है! यह उसका पहला लक्षण है! भक्त अपनेको सर्वथा अकिंचन -- अभावग्रस्त पाता है और भगवान् को यही चाहिये! बस , भगवान् ऐसे भक्तके सामने प्रकट हो जाते  हैं! भगवान् का बल निरन्तर हमारे पास रहनेपर भी सक्रिय नहीं होता , इसका कारण है कि हम उसे स्वीकार नहीं करते! जब भी हम भगवान् के बलको अनुभव करने लगेंगे ,

सच्चे भक्त

सच्चे भक्तोंका एकमात्र बल भगवान् का भरोसा ही है! वे पूर्ण निर्भरताके साथ भगवान् के होकर अपना जीवन केवल भगवान् के चिंतनमें ही लगाया करते हैं !   जितना भरोसा बढ़ेगा , उतनी ही भगवत्कृपाकी झाँकी प्रत्येक्ष दिखेगी !   यह याद रखो कि भगवान् के समान सुहद , दयालु , प्रेमी , सुन्दर , ऐश्वर्यवान् और कोई भी नहीं है एवं वह तुम्हारा नित्य साथी है! तुम्हें हृदयसे लगानेके लिए सदा ही हाथ फैलाये तैयार है!   संसारमें जो कुछ देखते हो सो सब उसीका है , उसीका नहीं , वही सब कुछ बना हुआ है! यह जो कुछ हो रहा है सो सब उसीकी लीला है! वह आप ही अपनेमें खेल कर रहा है !   सर्वभावसे उसकी शरण हुए बिना यह रहस्य समझमें नहीं आवेगा ! सब प्रकारके अभिमानको छोड़कर उसकी शरण हो जाओ , उसकी कृपापर दृढ़ भरोसा रखो , सारी चिंताओंको छोड़कर सब कुछ उसके चरणोंपर चढ़ा दो !