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जून, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शुभ संग्रह

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ कृष्ण , अष्टमी , रविवार , वि० स० २०७० विचार   गत ब्लॉग से आगे ... शास्त्रो का अनुगमन करनेवाली शुद्ध बुद्धि से अपने सम्बंध में सदा सर्वदा विचार करना चाहिये । विचार से तीक्ष्ण होकर बुद्धि परमात्मा का अनुभव करती है। इस संसार रुपी दीर्घ रोग का सबसे श्रेस्ठ औषध विचार ही है । विचार से विपत्तियोंका मूल अज्ञान ही नष्ट हो जाता है । यह संसार मृत्यु , संकट और भ्रम से भरपूर है , इसपर विजय प्राप्त करने का उपाय एकमात्र विचार है। बुरे को छोड़कर , अच्छे को ग्रहण , पाप को छोड़ कर पुण्य  का अनुष्ठान विचार के द्वारा ही होता है। विचार के द्वारा ही बल , बुद्धि , सामर्थ्य , स्फूर्ति और प्रयत्न सफल होते है। राज्य , संपत्ति और मोक्ष भी विचार से प्राप्त होता है । विचारवान पुरुष विपत्ति में घबराते नहीं , संपत्ति में फूल नहीं उठाते । विचारहीन के लिये संपत्ति भी विपत्ति बन जाती है । संसार के सारे दुःख अविवेक के कारण है । विवेक धधकती हुई अंतर्ज्वाला को भी शीतल बना देता है । विचार ही दिव्य दृष्टि है , इसी से परमात्मा का साक्षात्कार और परमानन्द की अनुभू

शुभ संग्रह

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ कृष्ण , सप्तमी , शनिवार , वि० स० २०७० संतोष गत ब्लॉग से आगे ... संतोष ही परम कल्याण है । संतोष ही परम सुख है । संतोषी को ही परम शांति प्राप्त होती है । संतोष के धनी कभी अशान्त नहीं होते । संसार का बड़े से बड़ा साम्राज्य-सुख भी उनके लिये तुच्छ   तिनके के समान होता है । विषम-से-विषम परिस्थिती में भी संतोषी पुरुष क्षुब्ध नहीं होता । सांसारिक भोग-सामग्री उसे   विष के समान जन पढ़ती है । संतोषामृत की मिठास के सामने स्वर्गीय अमृत का उमड़ता हुआ समुद्र भी फीका पड़   जाता है । जिसे अप्राप्त की इच्छा नहीं है , जो कुछ प्राप्त हो उसी में जो समभाव से संतुष्ट   है , जगत के सुख-दुःख उसका स्पर्श नहीं कर सकते । जब तक अन्तकरण संतोष की सुधा-धारा से परिपूर्ण   नहीं होता तभी तक संसार की सभी विपतियाँ है । संतोषी चित निरंतर प्रफुल्लित रहता है , इसलिये उसी में ज्ञान का उदय होता है । संतोषी पुरुष के मुख पर एक अलौकिक ज्योति जगमगाती रहती है , इससे उसको देखकर दु:खी पुरुष के मुख पर भी प्रसन्नता आ जाती है । संतोषी पुरुष की सेवा में स्वर्गीय-सम्पतिँया , व

शुभ संग्रह

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ कृष्ण, षष्ठी, शुक्रवार, वि० स० २०७० अहिंसा-धर्म  गत ब्लॉग से आगे ... जो पुरुष काम,क्रोध और लोभ को पापो की खान समझकर उनका त्याग करके अहिंसा-धर्म का पालन करता है, वह मोक्ष रूप सिद्धी को प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है | जो मनुष्य अपने आराम के लिए दीन-प्राणियो का वध करता है, वह मृत्यु के बाद कभी सुखी नहीं हो सकता | मरने के बाद परमसुख उसी को मिलता ही, जो सभी प्राणियो को अपने ही समान समझकर किसी पर भी क्रोध नहीं करता और किसी को भी चोट नहीं पहुचाता | जो मनुष्य प्राणिमात्र को अपने ही समान सुख की कामना और दुःख की अनिच्छा करनेवाले जानकर सबको समान दृष्टि से देखता है, वह महापुरुष देव-दुर्लभ ऊँची गति को प्राप्त होता है | जिस काम को मनुष्य अपने लिये प्रतिकूल समझता है वह काम दुसरे किसी भी प्राणी के लिये नहीं करना चाहिये | जो मनुष्य इसके विरुद्ध व्यवहार करता है वह पाप का भागी होता है | मान-अपमान, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय इनमे जैसे अपने को संतोष और असंतोष होता है, वैसे ही दूसरो को भी होता होगा, यही समझकर व्यवहार करे | जो मनुष्य हिंसा करता ह

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|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ कृष्ण, पंचमी, गुरुवार, वि० स० २०७० धर्म और उसका फल  गत ब्लॉग से आगे ... धर्मपरायण मनुष्य दुसरे का हित मानते हुए ही अपना हित चाहते है | उन्हें दुसरे के अहित में अपना हित कभी दिखता ही नहीं | पर हित से ही परम गति प्राप्त होती है | धर्मशील पुरुष हिताहित का विचार करके सत्पुरुषो का संग करता है,सत्संग से धर्मबुद्धी बढती है और उसके प्रभाव से उसका जीवन धर्ममय बन जाता है | वह धर्म से ही धन का उपार्जन करता है | वही काम करता है, जिससे सद्गुणों की वृद्धी हो | धार्मिक पुरुषो से ही उसकी मित्रता होती है |वह अपने उन धर्मशील मित्रो के तथा धर्म से कमाये हुए धन के द्वारा इस लोक और परलोक में सुख भोगता है | धर्मात्मा मनुष्य धर्मसम्मत इन्द्रियसुख को प्राप्त करता है, परन्तु वह धर्म का फल पाकर ही सतुस्ट नहीं हो जाता | वह सत-असत का विचार करके वैराग्य का अवलंबन करता है | वैराग्य के प्रभाव से उसका चित विषयों से हट जाता है | फिर वह जगत को विनाशी समझ कर निष्काम कर्म के द्वारा मोक्ष के लिये प्रयत्न करता है | शेष अगले ब्लॉग में.......    —श्रद्धेय हन

शुभ संग्रह

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ कृष्ण, चतुर्थी, बुधवार, वि० स० २०७० पाप और उसका फल  मनुष्य जब रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श – इन्द्रियों के इन पाँच  विषयों में से किसी एक में भी आसक्त हो जाता है, तब उसे राग-देष के पंजे मे फँस जाना पढता है | फिर वह जिसमे राग होता है उसको पाना और जिसमे देष होता है उसका नाश करना चाहता है | यो करते-करते वह बड़े-बड़े भयानक काम कर बैठता है और निरंतर इन्द्रियों के भोगो में ही लगा रहता है | इसमें उसके ह्रदय में लोभ-मोह, राग-देष  छा जाते है | इसके प्रभाव से उसकी धर्म-बुधि, जो समय-समय पर उसे चेतावनी देकर पाप से बचाया करती थी, नष्ट हो जाति है | तब वह छल-कपट और अन्याय से धन कमाने में लगता है |  जब दूसरो को धोखा देकर, अन्याय और अधर्म से कुछ कमा लेता है, तब फिर इसी रीती से धन कमाने में उसे रस आने लगता है | उसके सुहृद और बुद्धिमान लोग उसके इस काम को बुरा बतलाते और उसे रोकते है, तब वह भांति-भांति की बहानेबाजियाँ करने लगता है | इस प्रकार उसका मन सदा पाप में ही लगा रहता है, उसके शरीर और वाणी से भी पाप होते है | वह पापी जीवन होकर फिर पापिओ के सा

परमार्थ की मन्दाकिनीं -25-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ कृष्ण, द्वितीया, मंगलवार, वि० स० २० ७० 25 June 2013, Tuesday भगवान् की उपासना का यथार्थ स्वरुप -२- गत ब्लॉग से आगे ... याद रखो - तुम्हें मन मिला है सारी वासना-कामनाओंके जालसे मुक्त होकर समस्त जागतिक स्फुरनाओंको समाप्तकर भगवान् के रूप-गुण-तत्त्वका मनन करनेके लिए और बुद्धि मिली है – निश्चयात्मिका होकर भगवान् में लगी रहने के लिए | यही मन-बुद्धिका समर्पण है | भगवान् यही चाहते हैं | इसलिए मनके द्वारा निरंतर अनन्य चित्तसे भगवान् का चिंतन करो और बुद्धिको एकनिष्ठ अव्यभिचारिणी बनाकर निरन्तर भगवान् में लगाए रखो | यह भी भगवान् के समीप बैठनेकी एक उपासना है |   याद रखो - तुम्हें शरीर मिला है भगवद-भावसे गुरुजनोंकी, रोगियोंकी, असमर्थोंकी आदर-पूर्वक सेवा-टहल करनेके लिए, देवता-द्विज-गुरु-प्राज्ञके पूजनके लिए, पीड़ितकी रक्षाके लिए और सबको सुख पहुँचानेके लिए | अतएव शरीरको संयमित रखते हुए शरीरके द्वारा यथा-योग्य सबकी सेवा-चाकरी-रक्षा आदिका कार्य संपन्न करते रहो | यह भी भगवान् के समीप बैठनेकी एक उपासना है |   याद रखो - तुम्हें मन

परमार्थ की मन्दाकिनीं -24-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ कृष्ण, प्रतिपदा, सोमवार, वि० स० २० ७० भगवान् की उपासनाका यथार्थ स्वरुप -१- गत ब्लॉग से आगे ... १२. याद रखो - समस्त विश्वके सम्पूर्ण प्राणी भगवत-स्वरुप हैं, यह जानकार सबको बाहरकी स्थितिके अनुसार हाथ जोड़कर प्रणाम करो या मनसे भक्ति-पूर्वक नमन करो | किसीभी प्राणीसे कभी द्वेष मत रखो | किसीको भी कटु वचन मत कहो, किसीका भी मन मत दुखाओ और सबके साथ आदर, प्रेम तथा विनयसे बरतो | यह भगवान् के समीप बैठने की एक उपासना है |   याद रखो - तुम्हारे पास विद्या-बुद्धि, अन्न-धन, विभूति-संपत्ति है – सब भगवानकी सेवाके लिए ही तुम्हें मिली है | उनके द्वारा तुम गरीब-दुखी, पीड़ित-रोगी, साधू-ब्राह्मण, विधवा-विद्यार्थी, भय-विषादसे ग्रस्त मनुष्य, पशु, पक्षी, चींटी – सबकी यथायोग्य सेवा करो – उन्हें भगवान् समझकर निरभिमान होकर उनकी वास्तु उनको सादर समर्पित करते रहो | यह भी भगवान् के समीप बैठनेकी एक उपासना है |   याद रखो - तुम्हें जीभ मिली है – भगवान् का दिव्य मधुर नाम-गुण-गान-कीर्तन करनेके लिए और कान मिले हैं – भगवान् का मधुर नाम-गुण-गान-कीर्तन सु

परमार्थ की मन्दाकिनीं -23-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग ज्येष्ठ शुक्ल, पूर्णिमा, रविवार, वि० स० २० ७० एक ही परमात्माकी अनंत रूपोंमें अभिव्यक्ति -२- गत ब्लॉग से आगे ... याद रखो - जैसे एक ही सूर्य समस्त लोकोंको प्रकाशित करता है, उसी का प्रकाश प्राणिमात्रके नेत्रोंमें प्रकाश देता है और प्राणिमात्र उन्हीं नेत्रोंसे विभिन्न प्रकारके बाहरी दोषोंमें लिप्त होते हैं – गुण-दोषमय वस्तुओंको देखते हैं | प्राणी नेत्रोंकी सहायतासे विभिन्न प्रकारके गुण-दोषमय कार्य करते हैं, पर उन सबका प्रकाशक वह सूर्य जैसे किसीके उन गुण-दोषोंसे लिप्त नहीं होता, वैसे ही समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा परमात्मा (उन परमात्माकी ही शक्ति-सत्तासे क्रियाशील होकर मन-बुद्धि-इन्द्रियोंके द्वारा ) प्राणी अनंत प्रकारके जो शुभाशुभ जो कर्म करते हैं, उन क्रूर कर्मोंसे एवं उनके फल-रूप सुख-दुखसे लिप्त नहीं होते | वे सबमें रहते हुए ही सबसे पृथक तथा सर्वथा असंग रहते हैं |   याद रखो - ऐसे वे परमात्मा सदा ही सबके अन्तरात्मा हैं, एक अद्वितीय हैं | सबको सदा अपने वशमें रखते हैं | वे एक ही अपने रूपको अपनी लीला से बहुत प्रकारका बनाए हुए ह

परमार्थ की मन्दाकिनीं -22-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग ज्येष्ठ शुक्ल, चतुर्दशी, शनिवार, वि० स० २० ७० एक ही परमात्माकी अनंत रूपोंमें अभिव्यक्ति -१- गत ब्लॉग से आगे ... ११. याद रखो - परमात्मा एक है और वही अनंत रूपोंमें अभिव्यक्त है | जब तक उन परमात्माका बाहर-भीतर, सर्वत्र-सदा साक्षात्कार नहीं होता, तब तक कभी भी सदा रहनेवाली वास्तविक सुख-शान्ति नहीं मिल सकती |   याद रखो - जैसे एक ही अग्नि अव्यक्त रूपसे समस्त ब्रह्माण्डमें व्याप्त है, उसमें कहीं कोई भेद नहीं है, पर जब वह किसी आधार-वस्तुमें व्यक्त होकर प्रज्वलित होती है, तब वह उसी वस्तुके आकारका दृष्टिगोचर होने लगती है; वैसे ही समस्त प्राणियोंके अंतर-आत्मा रूपमें विराजित अन्तर्यामी परमात्मा सबमें समभावसे व्याप्त हैं; उनमें कहीं कोई भेद नहीं है, तथापि वे एक होते हुए ही उन-उन प्राणियोंके अनुरूप विभिन्न रूपोंमें दिखाई देते हैं | पर वे उतने ही नहीं हैं, उन सबके बाहर भी अनंत रूपोंमें स्थित हैं |   याद रखो - जैसे एक ही अव्यक्त रूपसे समस्त ब्रह्माण्डमें व्याप्त है, उसमें कोई भेद नहीं है; परन्तु व्यक्त होकर विभिन्न वस्तुओंके संयोगसे

परमार्थ की मन्दाकिनीं -21-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग ज्येष्ठ शुक्ल, त्रयोदशी, शुक्रवार, वि० स० २० ७० परदोष-दर्शन तथा पर-निंदासे हानि -२- गत ब्लॉग से आगे ... याद रखो - जिस मानव जीवनमें मनुष्य सबका हित करके मन-वाणी से सबको सुख पहुंचाकर भगवानके सन्मार्ग पर चलता है और जगतमें दैवी सम्पदाका विकास करता तथा अन्तमें भजन में लगकर भगवत-प्राप्ति कर लेता – उस दुर्लभ मानव-जीवन को परदोष-दर्शन तथा पर-निन्दामें तथा अपनी मिथ्या प्रशंसा में लगाकर अपने जीवन को तथा दूसरोंके जीवनको भी इस लोक तथा परलोकमें नरक-यंत्रणा-भोगका भागी बना देना – कितना बड़ा प्रमाद और पाप है ! इससे बड़ी सावधानी के साथ सबको बचना चाहिए |   याद रखो - मनुष्य का परम कर्तव्य है – भगवानके गुणोंका, उनके नामका, उनकी लीला का श्रवण, कथन तथा कीर्तन एवं स्मरण करनेमें ही जीवन को लगाना | बुद्धिमान मनुष्यको तो दूसरोंके न तो गुण-दोषका चिंतन करना चाहिए, न देखना चाहिए और न उनका वर्णन ही करना चाहिए | उसे तो भगवद-गुण चिंतनसे ही समय नहीं मिलना चाहिए | पर यदि देखे बिना न रहा जाए तो दूसरोंके गुण देखने चाहिए और ढूँढ-ढूँढकर अपने दोष देखने चाहिए | न रह