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किसीको पापी समझकर मनमें अभिमान न करो कि मैं पुण्यात्मा हूँ ! जीवनमें न मालूम कब कैसा कुअवसर आ जाय और तुम्हें भी उसीकी भाँती पाप करने पड़ें !  यदि बार-बार आत्मनिरीक्षण न कर सको -- तो कम-से-कम दिनमें दो बार सुभह और शाम अपना अन्तर अवश्य टटोल लिया करो ! तुम्हें पता लगेगा कि दिनभरमें तुम ईश्वरके और जीवोंके प्रति कितने अधिक अपराध करते हो !  लोग धनियोंके बाहरी ऐश्वर्यको देखकर समझते हैं कि ये बड़े सुखी हैं, हम भी ऐसे ही ऐश्वर्यवान् हों  तब सुखी हों, पर वे भूलते हैं! जिन्होंने धनियोंका ह्रदय टटोला है, उन्हें पता है कि धनि दरिद्रोंकी अपेक्षा कम दु:खी  नहीं हैं ! दुःख के कारण और रूप अवश्य ही भिन्न-भिन्न हैं !  धनकी इच्छा कभी न करो, इच्छा करो उस परमधन परमात्माकी, जो एक बार मिल जानेपर कभी जाता नहीं ! धनमें सुख नहीं है, क्योंकि धन तो आज है कल नहीं! सच्चा सुख परमात्मामें है-- जो सदा बना ही रहता है !  प्रतिदिन सुभह और शाम मन लगाकर भगवान् का स्मरण अवश्य किया करो, इससे चोबिसों घंटे शान्ति रहेगी और मन बुरे संस्कारोंसे बचेगा ! 
इस भ्रममें मत रहो कि पाप प्रारब्धसे होते हैं, पाप होते हैं तुम्हारी आसक्तिसे और उनका फल तुम्हें भोगना पड़ेगा !  परमात्मापर विश्वास न होनेसे ही विपत्तियोंका, विषयोंके नाशका और मृत्युका भय रहता है एवं तभीतक शोक और मोह रहते हैं ! जिनको उस भयहारी भगवान् में भरोसा है, वे शोकरहित, निर्मोह और नित्य निर्भय हो जाते हैं ! मान चाहनेवाले ही अपमानसे डरा करते हैं ! मानक बोझा मनसे उतरते ही मन हल्का और निडर बन जाता है !  शरीरका नाश होना मृत्यु नहीं है, मृत्यु है वास्तवमें पापोंकि वासना ! मृत्युको स्वाभाविक बनानेवाला ही सुखसे मर सकता है !  जो आत्माको अमर नहीं जानते वे ही मृत्युसे काँपा करते है !  किसीको गाली न दो, वृथा न बोलो, चुगली न करो, असत्य न बोलो, सदा कम बोलो और प्रत्येक शब्दको सावधानीसे उच्चारण करो !  दूसरोंकी त्रुटियों और कमजोरियोंको सहन करो, तुममें भी बहुत-सी त्रुटियाँ हैं,जिन्हें दुसरे सहते हैं ! 
१. अपने मनके विरुद्ध सब्द सुनते ही किसीकी नियतपर संदेह करना उचित नहीं ! २ . अपने पापोंको देखते रहना और उन्हें प्रकाश कर देना भी पापोंसे छुटनेका एक प्रधान उपाय है!  ३. जो लोग भगवन्नामका सहारा लेकर पाप करते हैं! जो नित्य नए पाप करके प्रतिदिन उन्हें नामसे धो डालना चाहते हैं, उन्हें तो नीच समझो! उनके पाप यमराज भी नहीं धो सकते!  ४. पापोंसे छुटने या भोगोंको पानेके लिए भी भगवन्नामका प्रयोग करना बुद्धिमानी नहीं है! पापका नाश तो प्रायश्चित या फलभोगसे ही हो सकता है ! तुच्छ नाशवान् भोगोंकि तो परवा ही क्यों करनी चाहिए ? उनके मिलने-न-मिलनेमें लाभ-हानि ही कौन-सी है ? ५. भगवन्नाम तो प्रियेसे भी प्रियतम वास्तु है! उसका प्रयोग तो केवल उसीके लिये करना चाहिए! 
१. दुसरेके पापोंको प्रकाश करने के बदले सुहद् बनकर उनको ढंको! सुई छेद करती है, पर सूत  अपने शारीरका अंश देकर भी उस छेदको भर देता है! इसी प्रकार दुसरेके छिद्रोंको भर देनेके लिए अपना शारीर अर्पण कर दो, पर छिद्र न करो! धागा बनो सुई नहीं !  २. भगवानको साथ रखकर काम करनेसे ही पापोंसे रक्षा और कार्यमें सफलता होती है! ३. वैरी अपना मन ही है, इसे जीतनेकी कोशिश करनी चाहिए ! न्याय और धर्मयुक्त शत्रुको भी अन्याय और अधर्मयुक्त मित्रसे अच्छा समझना चाहिए!  ४. अपनी स्वतन्त्रता बचानेमें दूसरेको परतन्त्र बनाना सर्वथा अनुचित है!  ५. अगर आप दुसरेको चुपचाप बैठाकर अपनी बात सुनाना और समझाना पसंद करते हैं तो इसी तरह उसकी बात सुननेके लिए आपको भी तयार रहना चाहिए!  ६. अगर आप दूसरेको सहनशील देखना चाहते हैं तो पहले खुद शहनशील बनिए!  ७. अगर किसी दुसरेके मनके विरुद्ध कोई कार्य करनेमें आप अपना अधिकार मानते हैं तो उसका भी ऐसा ही समझिये !
१. इस संसारमें सभी सरायके मुसाफिर हैं, थोड़ी देरके लिए एक जगह टिके हैं, सभीको समयपर यहाँसे चल देना है, घर-मकान किसीका नहीं है, फिर इनके लिए किसीसे लड़ना क्यों चाहिए ? २. जगतमें जड कुछ भी नहीं है, हमारी जडवृत्ति ही हमें जड़के  दर्शन करा रही है, असलमें तो जहाँ   देखो, वहीं वह परम सुखस्वरूप नित्य चेतन भरा हुआ है! तुम-हम कोई उससे भिन्न  नहीं! फिर दुःख क्यों पा रहे हो? सर्वदा-सर्वदा निजानन्दमें निमग्न रहो! ३. जहाँ गुणोंका साम्राज्य नहीं है वहीं चले जाओ! फिर निर्भय और निश्चिन्त हो जाओगे! ये गुण ही दु:खोंकी राशि हैं!    ४. पराये पापोंके प्रायश्चित्तकी चिन्ता न करो, पहले अपने पापोंका प्रायश्चित्त करो!  ५. किसीके दोषोको देखकर उससे घृणा न करो और न उसका बुरा चाहो! यदि ऐसा न करोगे तो उसका दोष तो न मालूम कब दूर होगा; पर तुम्हारे अपने अंदर घृणा, क्रोध, द्वेष और हिंसाको अवश्य ही स्थान मिल जायगा! उसमे तो एक ही दोष था; परंतु तुममें चार दोष आ जायेंगे! हो सकता है, तुम्हारे और उसके दोषोंके नाम अलग-अलग हों! 

।। सत्संग-सुधा ।।

मकान मेरा है, चुनेके एक-एक कणमें मेरापन भरा हुआ है, उसे बेच दिया, हुण्डी हाथमें आ गयी,  इसके बाद मकानमें आग लगी! मैं कहने लगा, 'बड़ा अच्छा हुआ, रूपये मिल गए!'  मेरापन छुटते ही मकान जलनेका दुःख मिट गया! अब हुण्डीके कागजमें मेरापन है,  बड़े भारी मकानसे सारा मेरापन निकलकर जरा-से कागजके टुकड़ेमें आ गया!  अब हुण्डीकी तरफ कोई ताक नहीं सकता! हुण्डी बेच दी, रुपयोंकी थेली हातमें आ गयी!  इसके बाद हुण्डीका कागज भले ही फट जाय, जल जाय, कोई चिन्ता नहीं! सारी ममता थेलीमें आ गयी!  अब उसीकी सम्हाल होती है! इसके बाद रूपये किसी महाजनको दे दिए!  अब चाहे वे रूपये उसके यहाँसे चोरी चले जायँ, कोई परवाह नहीं!  उसके खातेमें अपने रूपये जमा होने चाहिए और उस महाजनका फर्म बना रहना चाहिए!  चिन्ता है तो इसी बातकी है कि वह फर्म कहीं दिवालिया न हो जाय! इस प्रकार जिसमे ममता होती है,  उसकी चिन्ता रहती है! यह ममता ही दुखोंकी जड़ है! वास्तवमें ' मेरा' कोई पदार्थ नहीं है!   मेरा होता तो साथ जाता! पर शारीर भी साथ नहीं जाता! झूठे ही ' मेरा' मानकर दु:खोंका बोझ लादा जाता है!  जिसकी चीज़ है, उ

।। सत्संग-सुधा ।।

1. 'नित्य हँसमुख रहो, मुखको कभी मलिन न करो , यह निश्चय कर लो कि शोकने तुम्हारे लिए जगतमें जन्म ही नहीं लिया हैं ! आनंदस्वरूप में सिवा हँसनेके चिन्ताको स्थान ही कहा हैं !' 2.शान्ति तो तुम्हारे अन्दर हैं! कामनारुपी डाकिनीका आवेश उतरा कि शान्तिके दर्शन हुए ! वैराग्य के महामंत्र से कामनाको भगा दो, फिर देखो सर्वत्र शान्ति की शान्त मूर्ति ! 3. जहाँ सम्पत्ति है, वहीं सुख है, परन्तु सम्पत्तिके भेदसे ही सुखका भी भेद है ! दैवी सम्पत्तिवालोंको परमात्म-सुख है, आसुरीवालोंको आसुरी -सुख और नरकके कीड़ोको नरक-सुख ! 4. किसी भी अवस्थामें मनको व्यथित मत होने दो ! याद रखो, परमात्मके यहाँ कभी भूल नहीं होती और न उसका कोई विधान दयासे रहित ही होता है ! 5. परमात्मापर विश्वास रखकर अपनी जीवन-डोरी उसके चरणोंमें सदाके लिए बांध दो, फिर निर्भयता तो तुम्हारे चरणोंकी दासी बन जाएगी ! 6. बीते हुएकी चिन्ता मत करो, जो अब करना है, उसे विचारो और विचारो यही कि बाकीका सारा जीवन केवल उस परमात्माके ही काममें आवे ! 7. धन्य वही है, जिसके जीवनका एक-एक क्षण अपने प्रियतम परमात्माकी अनुकूलतामें बीतता है, चाहे

।। सत्संग-सुधा ।।

'पुत्र , स्त्री और धनसे सच्ची तृप्ति नहीं हो सकती ! यदि होती तो अब तक किसी -न - किसीयोनीमें हो ही जाती! सच्ची तृप्तिका विषय हैं केवल एक परमात्मा, जिसके मिल जानेपर जिवसदाके लिए तृप्त हो जाता हैं !' ' दुःख मनुष्यत्वके विकासका साधन हैं ! सच्चे मनुष्यका जीवन दुःख में ही खिल उठता हैं! सोनेका रंग तापानेपर ही चमकता हैं ! ' 'सर्वत्र परमात्माकी मधुर मूर्ति देखकर आनंदमें मग्न रहो ; जिसको सब जगह उसकीमूर्ति दिखती हैं , वह तो स्वयं आनंदस्वरूप ही हैं ! ' 'आनंदकी लहरें' पुस्तक से

भगवान के आश्रय से सब दोष नष्ट हो जाते हैं

आप अपने को जिन सब मानस शत्रुओं से घिरा देखते हैं , वे सब शत्रु तुरंत भाग जायेंगे , यदि आप श्रीभगवान् के चरणकमलों का  आश्रय ले लेंगे| असल में हमारा ममत्व, जो लोकिक सम्बन्धियों में हो रहा है , वही हमे सता रहा है | यदि हम प्रयत्न करके अपने इस सम्बन्ध  को सबसे तोड़ कर एकमात्र प्रभु में जोड़  सकें और  सबके साथ प्रभु के सम्बन्ध से ही सम्बन्ध रखें तो फिर हमें कोई नहीं सता सकता एवं करने में किसी के साथ व्यावहारिक सम्बन्ध तोड़ने  की आवश्यकता नहीं होती | भगवन के  सम्बन्ध से हम ही सभी के साथ यथायोग्य व्यवहार करें; पर मन से ममत्व रहे केवल प्रभु चरणों में ही | ममता नहीं छूटती  तो मत छोडो , उसे इधर -उधर  बिखेर कर जो दुःख पा रहे हो , कभी इधर  खिंचते हो कभी उधर , फिर तनिक से स्वार्थ का धक्का लगते ही ममता के कच्चे धागे टूट जाते हैं - एस नित्य की आशांति  से अपने आप को छुड़ा लो | यह मान लो की एकमात्र भगवच्चरणारविन्द ही मेरे हैं , उनके अतिरिक्त कुछ  मेरा नहीं है | इस प्रकार अपने मन को भगवान् के साथ मजबूत रस्सी से बांध दो | एक बार यहाँ बंधे की फिर कभी छूटने के नहीं | फिर तो भगवान् हमारे वश में ही हो जायेंगे

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

 ५२० (तर्ज लावनी-ताल कहरवा) सखि ! संयोग-वियोग श्यामका मेरे लिये सुखद सब काल।  पल-पल वर्द्धनशील प्रेममें बाधाको न स्थान भर बाल॥  जब होता दर्शन है प्रियकी रूप-माधुरीका प्रत्यक्ष।  जब मैं अपलक उन्हें निरखती हूँ मुसकाते मधुर समक्ष॥  जब उनका आलिङङ्गन कर मैं पाती हूँ मन परमानन्द।  तब माना जाता है वह शुचितम सुखमय संयोग अमन्द॥  जब मैं देख न पाती प्रियको लगता चले गये वे दूर।  व्याकुल हो अधीर हो उठता चिा दुःखसे हो भरपूर॥  यद्यपि विरहानलकी ज्वाला होती अति संतापिनि घोर।  लपटें अमित निकलतीं उससे विविध भाँतिकी नित सब ओर॥  पर उन ज्वाला-लपटोंमें सुस्पर्श सुशीतल सुधा अपार।  सदा निकलती रहती, करती शुचि शीतलताका विस्तार॥  अगणित शारदीय शशधरका सुधा-सुवर्षी ज्योत्स्ना-जाल।  कर सकता न कदापि सदृशता उस शीतलताकी तत्काल॥  हो जाती रति और तीव्रतम, बढ़ जाता स्मृति-सुख-सभार।  मनोवृति हो जाती प्रियमय; बढ़ जाता आनन्द अपार॥  बाह्य भोग-विरहित जीवनमें होता तुरत आन्तरिक योग।  विप्रलभमें अतुलनीय हो जाता प्रकट दिव्य संयोग॥  अन्तर्ज्वाला बुझती, बहने लगती अमित अमृत-रस-धार।  क्रन्दन हो उठता सुख-रस-सागर, न दीख

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

५१७ (राग बसंत-तीन ताल) मैं तो सदा बस्तु हूँ उनकी, उनकी ही हूँ भोग्य महान।  मेरी पीड़ा, मेरे सुखका इसीलिये उनको ही जान॥  मेरे तनका घाव तथा मेरे मनकी जो व्यथा अपार।  उसके सारे दुःख-दर्दका वही वहन करते हैं भार॥  अगर किसी मेरे सद्‌गुणसे होता है उनको आह्लाद।  तो वह सद्‌गुण भी है दिया उन्हींका अपना कृपा-प्रसाद॥  जीवन उनका, मति उनकी, मन उनका, तन उनका ही धन।  वे ही इन्हें सुरक्षित रखें तोड़ें-फोड़ें, मारें घन॥  जैसे, जब, जो कुछ करवावें और नचावें थनन-थनन।  कटु बुलवावें, गीत गवावें, कहलावें अति मधुर वचन॥ सुग्गा नहीं जानता कुछ भी अर्थ बोलता-’राधेश्याम’।  जिसने उसे सिखाया है, उसका ही अर्थ जानना काम॥  स्वयं मधुर संगीत सिखाकर सुनते, करते यदि यश-गान।  वह यशगान उन्हींका अपना, करे किस तरह शुक अभिमान॥  जीवनमें अपना मधु भर वे करें स्वयं उस मधुका पान।  यों अपने सुखसे ही हों वे सुखी, व्यर्थ दे मुझको मान॥  पर जब मेरा नहीं कहीं भी कुछ भी रहा पृथक्‌ अस्तित्व।  तब सुख-मान सभी हैं उनके, क्योंकि सभी उनका कर्तृत्व॥  मेरा यह ’सबन्ध’ श्यामसे, श्याम बने मेरे आकार।  तन-मन-वचन, भोग्य-भोक्ता सब, वे ही

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे- ५१८

 ५१८ (राग कल्याण-तीन ताल) मेरे इक जीवन-धन घनस्याम। चोखे-बुरे, दयालु-निरद‌ई, वे मम प्रानाराम॥  चाहे वे अति प्रीति करैं, नित राखैं हिय लिपटाय।  रास-बिलास करैं नित मो सँग अन्य सबै छिटकाय॥  मेरे सुख तैं सुखी रहैं नित, पलक-पलक सुख देहिं।  मो कारन सब अन्य सखिन महँ दारुन अपजस लेहिं॥  आठौं जाम रहैं मेरे ढिंग, नित नूतन रस चाखैं।  नित नूतन रस मोहि चखावैं, मधुरी बानी भाषैं॥  अथवा वे अति बनैं निरद‌ई, मेरे दुख सुख मानैं।  मोय दिखा‌इ-दिखा‌इ अन्य जुबतिन कौं नित सनमानैं॥  जो वे प्राननाथ सुख पावैं मेरे दुख तें सजनी।  तो मैं अति सुख मानि चहौं वह बनौ रहै दिन-रजनी॥  प्राननाथ कौ जिय जेहि चाहै, सो जदि करै गुमान।  मेरे हेतु करैं नहिं कुटिला प्रियतम कौ सनमान॥  तौ मैं जा‌इ, चरन परि ताके, करि मनुहार मनावौं।  दासी बनी रहूँ जीवनभर, कबौं न मान जनावौं॥  जा बिधि तिन्हैं होय सुख, ताही बिधि मैं अति सुख पान्नँ।  प्राननाथ कौं सुखी देखि पल-पल मैं मन हरषान्नँ॥  जो तिय निज-‌इंद्रिय सुख चाहै, इहि कारन प्रिय सेवै।  गाज गिरै ताके सिर, जो इहि बिधि पिय तैं सुख लेवै॥  मैं तौ तिन कें सुख सुख पान्नँ, वे मम जी

ईश्वर-प्राप्ति के उपाय

 १.ईश्वरके प्रभाव और महत्त्वको यथार्थ जानने वाले महापुरुषों का संग एवं उनके आदेशानुकूल आचरण । २.ईश्वरके प्रभाव और महत्त्व से पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन । ३.ईश्वरके नाम का जप और गुणों का श्रवण-कीर्तन । ४.ईश्वर का ध्यान । ५.विश्व रूप भगवान की निष्कामभाव से सेवा । ६. ईश्वर-प्रार्थना। ७.ईश्वरके अनुकूल आचरण यानी सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, विनय, तप, स्वाध्याय, आस्तिकता और श्रद्धा आदि को बढ़ाना । ८.लोक-परलोक के समस्त भोगोंमें वैराग्य । ९.सद्गुरुमें परम श्रद्धा और गुरु सेवा । १०.ईश्वरमें अखण्ड विश्वास । ११.घर-बाहर सर्वत्र ईश्वर चर्चा । १२.अभिमान, दम्भ, और कठोरता का सर्वथा त्याग । १३. काम, क्रोध, लोभ से बचना । १४.नास्तिक संग का सर्वथा त्याग । १५.परधर्म सहिष्णुता । १६. सबमें ईश्वर बुद्धि रखते हुए ही बर्ताव करने की चेष्ठा । from- भगवच्चर्चा page- 261