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अप्रैल, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
उद्धवको 'वासुदेवः सर्वम' का उपदेश  मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम्। ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः ।।१।। सुद्धान्तः करण पुरुष आकाशके समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ परमात्माको ही समस्त प्राणियों और अपने हृदयमें स्थित देखे।।१।। इति सर्वानी भूतानि मद्भावेन महाद्युते । सभाजयन् मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रीतः ।।२।। ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येर्के स्फुलिंगके। अक्रुरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः ।।३।। निर्मलबुद्धि उद्धवजी! जो साधक केवल इस ज्ञानदृष्टिका आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थोंमें मेरा दर्शन करता है और इन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मणभक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूरमें समानदृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये।।२-३।। नारेष्वभिक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोचिरात् । स्पर्धासूयातिरस्काराः साहंकारा वियन्ति हि।।४।। जब निरंतर सभी नर-नारियोंमें मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दीनोंमें साधकके चित्तसे स्पर्द्धा (होड़), ईर्ष्या, तिरस्कार और अहंकार आदि दो
प्रेमी भक्त उद्धव: ........गत ब्लॉग से आगे ....  वैशाख शुक्ल अक्षयतृतीया, वि.सं.-२०६९, मंगलवार परन्तु प्रश्न इतना ही नहीं है! शिशुपालकी बात तो पीछे देखि जायगी। जरासंधके कैदी राजाओंकी प्रार्थना उपेक्षा करनेयोग्य नहीं है। दीनोंकी, शरणागतोंकी रक्षा करना सभीका एकांत कर्तव्य है और भगवान् श्रीकृष्णने तो इसका व्रत ले रखा है! परन्तु यह काम हमारी ओरसे नहीं होना चाहिये। इसके लिए सामूहिक युद्ध छेड़नेका अभी अवसर भी नहीं है! यह काम पाण्डवोंसे मिलकर उनकी सहायता और शक्ति प्राप्त करके उपायके द्वारा ही करना चाहिये। यह काम हस्तिनापुर जानेपर श्रीकृष्ण कर लेंगे। यज्ञके पूर्व राजाओंको छुड़ा लिया जाय, इससे हमारी और युद्धिष्ठिरकी शक्ति बढ़ जायगी, उसके पश्चात शिशुपालको यज्ञमें निमंत्रित किया जाय और उसका रुख देखकर, राजाओंकी सम्मति देखकर शिशुपालके दोषोंके प्रकट हो जानेपर जैसा मौका आवे, वैसा किया जाय। अनन्तः मेरी सम्मति तो यही है की श्रीकृष्ण और उनके साथ हम सब अपने पाण्डवोंके यज्ञमें चलें, उसके बाद सब व्यवस्था हो जायगी। सबने एक स्वरमें उद्धवके विचारोंका समर्थन किया। बलरामने भी कहा - 'उद्धवके विचार
प्रेमी भक्त उद्धव: ..... गत ब्लॉग से आगे ....  ' सुद्ध बुद्धि और उत्साह रहनेपर भी प्रमादको तनिक भी आश्रय नहीं देना चाहिये! प्रमादके कारण सामने आई हुई वस्तु भी दूर हट जाती है! और सावधान रहा जाय तो अपने सामनेसे वेगसे भागती हुई वस्तु भी पकड़ ली जा सकती है! कब बल प्रकट करना चाहिये और कब क्षमा  कर देनी चाहिये, इस बातको समझना भी आवश्यक है! कोई अपने साथ अत्याचार करता हो तो उतावला होकर उसका मुकाबिला नहीं करना चाहिये! अपनी शक्ति और सामर्थ्यपर विचार करके अपने मित्रों तथा सहायकोंके संग्रहमें लग जाना चाहिये, वह समय भी आयेगा, जब अत्याचारियोंका नाश हो जायगा! मैं यह नहीं कहता की केवल भाग्यके आश्रयसे ही रहा जाय परन्तु केवल पौरुषके सहारे ही आगमें कूदनेकी सलाह भी मैं नहीं देता!' ' अपनी शक्तिपर विचार कीजिये! दुसरेकी शक्ति देखिये और सोचिये, आप भगवान् के कितने निकट हैं और वह भगवान् से कितना दूर है! साम, दाम, दण्ड, भेद इन उपायोंको बरतिये भी और भगवान् का भरोसा भी रखिये! स्वंय तयारी भी कीजिये और ऐसे मित्र भी बनाइये जो आपके ही सरीखे उदेश्यवाले हों! ऐसा करनेसे आपको बड़ा प्रोत्साहन मिलेगा और अ
प्रेमी भक्त उद्धव :..... गत ब्लॉग से आगे ....  उद्धवने कहा -- 'जब अधिकांश लोगोंकी  यही सम्मति है की पहले अत्याचारियोंका नाश करना चाहिये और स्वयं बलराम भी इसी बातका समर्थन करते हैं तो में कुछ कहूँ, यह अप्रासंगिक होगा! तथापि भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेरणा है, वे चाहते हैं की मैं अपना मत सबके सामने रख दूँ तो मुझे अपनी बात कहनेमें कोई आपत्ति नहीं है! यद्यपि नीतियाँ अनंत  हैं, उनके  वर्णन भी विभिन्न रूपोंमें हुए हैं परन्तु बहुत -सी बातोंका सार थोडेंमें  कहा जा सकता है! इसलिये विस्तार न करके कुछ थोड़े -से शब्द ही में कहूँगा! बुद्धिमान लोग थोड़ी -सी बातका भी विस्तार कर लेते हैं! परन्तु मुझमें ऐसी योग्यता नहीं की मैं अपनी बात को बढ़ा-चढ़ाकर कह सकूँ! जो शत्रुओंपर विजय और अपने मित्रोंकी अभिवृद्धि चाहते हैं, उन्हें दो बातों का आश्रय लेना चाहिये -- प्रज्ञा और उत्साह! प्रज्ञाका अर्थ सुद्ध बुद्धि है और सुद्ध बुद्धि वही है, जो अंतर्मुख है, विश्वकल्याणके लिए जो स्वार्थका त्याग कर सकती  है! उत्साहका अर्थ है, अपनी शक्तिको समझकर उसके उचित उपयोगी इच्छा! यदि ये दोनों प्राप्त हों तो व्यवहारमें किसी प
प्रेमी भक्त उद्धव: ...... गत ब्लॉग से आगे..... (५) सभी धर्मोका लक्ष्य प्रेमधर्म है! सभी नीतियोंका उदेश्य प्रेमनीतिपर पहुँचना है! प्रेम धर्मोंसे परे है, नीतियोंसे परे है, परन्तु सब धर्म, सब नीतियाँ प्रेमके अन्तर्भूत हैं! वह धर्म, धर्म नहीं जिसमें प्रेम न हो! वह निति, निति नहीं जिसमें प्रेम न हो! प्रेम व्यापक है और धर्म तथा निति व्याप्य! इनके बिना वह रह सकता है परन्तु उसके बिना ये  नहीं रह सकते! सम्पूर्ण नीतियोंका ज्ञान हो परन्तु प्रेमनितीका ज्ञान न हो तो वह ज्ञान किसी कामका नहीं! प्रेमनिती भगवान् की निति है, उनके सब अपने हैं, सबके साथ उनका प्रेम है और जो उनके आश्रित हैं, उनके साथ तो विशेष प्रेम है! आश्रितवत्सलता भगवान् की निति है और यह प्रेमसे भरी हुई है! भगवान् के भक्त इस बातको जानते हैं और सर्वदा उसीके अनुकूल व्यवहार करते हैं!   यह बात पहले ही कही जा चुकी है की उद्धव ब्रहस्पति-नीतिके पुरे विद्वान् थे! यदुवंशी मतभेदके अवसरोंपर उनसे सलाह लिया करते थे परन्तु उस समय उद्धव भगवान् की निति अथवा प्रेमनितीके विद्वान नहीं थे! अब वे गोपियोंके पास जाकर प्रेमधर्मकी सिक्षा प्राप्त कर आये
प्रेमी भक्त उद्धव: .... गत ब्लॉग से आगे....  नंदबाबाने, ग्वालबालोंने उद्धवसे कहा - 'उद्धव! अब तो तुम जा ही रहे हो! श्रीकृष्णको हमारी याद दिलाना! यह मक्खन, यह दही और ये वस्तुएँ उन्हें देना! यह बलरामको देना, यह उग्रसेनको देना और यह वासुदेवको देना! हम और कुछ  नहीं चाहते, केवल यही चाहते हैं की हमारी वृत्तियाँ श्रीकृष्णके चरण -कमलोंमें लगी रहें! हमारी वाणीसे उन्हींके मंगलमय मधुरतम नामोंका उच्चारण होता रहे और शरीर उन्हींकी सेवामें लगा रहे! हमें मोक्षकी आकांक्षा नहीं, कर्मके अनुसार हमारा शरीर चाहे जहाँ कहीं रहे, हमारे शुभ आचरण और दान का यही फल हो की श्रीकृष्णके चरणोंमें हमारा अहैतुक प्रेम बना रहे!  उद्धव मथुरा लौट आये! जानेके समय वे माथुरोंके वेशमें गए थे और लौटनेके समय ग्वालोंके वेशमें आये! उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा -- 'श्रीकृष्ण! तुम बड़े निष्ठुर हो! तुम्हारी करुणा, तुम्हारी रसिकता सब कहनेभरकी है! मैंने व्रजमें जाकर तुम्हारा निष्ठुर रूप देखा है, जो तुम्हारे आश्रित हैं, जिन्होंने तुम्हें आत्मसमर्पण कर दिया हैं, उन्हें इस प्रकार कुएँमें डाल रहे हो, भला, यह कौन-सा धर्म हैं? छोडो
प्रेमी भक्त उद्धव: ..... गत ब्लॉग से आगे.... आह! श्रुतियाँ जिनके चरण-चिह्नोंकी खोजमें ही लगी हैं, ये गोपियाँ उन्हें पाकर, उनसे एक होकर उनके प्रेममें तन्मय हो गयी हैं! क्यों न हो, स्वजन और  आर्यपथका त्याग करके श्रीकृष्णके चरणोंको अपना लेना आसन थोडें ही है! लक्ष्मी जिनकी अर्चना करती हैं, आप्तकाम आत्माराम जिनका ध्यान करते हैं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमल अपने हृदयपर रखकर इन्होंने हृदयकी जलन शांत कि है! मैं तो इनकी चरणधूलिका भी अधिकारी नहीं हूँ! मैं चरणधूलिकी ही वंदना करता हूँ!' उद्धव उनकी चरणधूलिमें लोटने लगते! दो दिनके लिए आये थे, महीनों बीत गए! मथुरा जानेके दिन उद्धवके सिरपर  हाथ रखकर राधाने आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो! तुम्हारा सर्वदा कल्याण हो! भगवान् से तुम्हें परमज्ञान प्राप्त हो और तुम सर्वदा भगवान् के परम प्रेमपात्र रहो! सर्वश्रेष्ट कर्म उन्हें प्रसन्न करनेवाला कर्म है! सर्वश्रेष्ट जीवन उन्हें समर्पित जीवन है! उसी व्रत, ज्ञान और तपस्याकी सफलता है जो उनके उद्देश्यसे है! उद्धव! वही पराप्तर परीपूर्णतम ब्रह्मा हैं! श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं, ज्योतिः स्वरु
प्रेमी भक्त उद्धव: ...... गत ब्लॉग से आगे....... चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार मैं किससे कहूँ, मेरी मानसिक पिडाका किसे विश्वास होगा? मेरे-जैसी अभागिनी, मेरे- जैसी दुखिनी स्त्री न हुई और न होनेकी सम्भावना है! मैं कल्पवृक्षको पाकर भी ठगी गयी! दैवने मुझे ठग लिया! उन्हें देखकर मेरा जीवन सफल हो गया था, मेरा हृदय और आँखें स्निग्ध हो गयी थीं! उनके नामकी मधुर ध्वनि सुनकर मेरे प्राण पुलकित हो उठते हैं! उनकी मधुस्मृतिसे आत्मा तर हो जाती है! मैंने उनके कर-कमलोंका स्पर्श अनुभव किया है! मैं उनकी छत्रछायामें रही हूँ! मैं क्या पाकर उन्हें भूल सकती हूँ? ऐसी कोई वास्तु नहीं, ऐसा कोई ज्ञान नहीं, ऐसा कोई शास्त्र नहीं, ऐसा कोई संत नहीं तथा ऐसा कोई देवता नहीं जिससे मैं श्रीकृष्णको भूल सकूँ! स्थितिकी गति संभव है परन्तु जहाँ बिना मार्गके ही चलना है, उसे गति कैसे कह सकते हैं? यह शून्यकी सेज है!' राधिका रोने लगीं, उद्धव रोने लगे, गोपियाँ रोने लगीं, वहाँके पशु-पक्षी, वृक्ष-लताएँ और जड़-चेतन सब-के-सब रोने लगे! करुणाका, प्रेमका अनन्त समुद्र उमड़ पड़ा!  उद्धव बहुत दिनोंतक व्रजमें रहे थे!
प्रेमी भक्त उद्धव : ..... गत ब्लॉग से आगे..... चैत्र शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६९, बुधवार अनेकों प्रकारके दान देकर उद्धवको भोजनपान कराकर उन्हें वर दिया कि 'तुम्हें सब सिद्धियाँ मिल जायँ, तुम भगवान् के दास बने रहो और तुम्हें उनकी पराभक्ति प्राप्त हो! उद्धव! तुम उनके पार्षद और श्रेष्ट पार्षद होओ!  जब उद्धव विदा होनेके लिये श्रीराधासे अनुमति लेनेको आये तब श्रीराधाने कहा - 'उद्धव! हम अबला हैं! हमारे हृदयका हाल कौन जान सकता है? मुझे भूलना मत, मैं विरहसे कातर हो रही हूँ! मेरे लिये घर और वनमें अब कोई भेद नहीं रह गया है! पशु और मनुष्य एक-से जान पड़ते हैं! जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्तिमें कोई अंतर नहीं दीख पड़ता! चंद्रमा-सूर्यका उदय, रात और दिनका होना -जाना मुझे मालूम नहीं है! मुझे अपनी ही सुधि नहीं रहती! श्रीकृष्णके आनेकी बात, उनकी लीला सुनकर, गाकर कुछ क्षणोंके लिये सचेतन हो जाती हूँ! मुझे चारों और श्रीकृष्ण -ही -कृष्ण दीखते हैं, मैं निरंतर मुरली-ध्वनि ही सुनती हूँ! मुझे किसीका भय नहीं हैं! किसीकी लज्जा नही है! कुलकी परवाह नहीं है! मैं उन्हींको जानती हूँ! उन्हींको भजति हूँ! ब्रह्म