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आते हो तुम बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार।

|| श्रीहरिः ||   पदरत्नाकर   ६२ - ( राग जैतकल्याण-ताल मूल) आते हो तुम बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार। कहते- ’ खोलो द्वार , मुझे तुम ले लो अंदर करके प्यार ’ ॥ मैं चुप रह जाता , न बोलता , नहीं खोलता हृदय-द्वार। पुनः खटखटाकर दरवाजा करते बाहर मधुर पुकार॥ ‘ खोल जरा सा ’ कहकर यों- ’ मैं , अभी काममें हूँ , सरकार। ‘ फिर आना ’- झटपट मैं घरके कर लेता हूँ बंद किंवार॥ फिर आते , फिर मैं लौटाता , चलता यही सदा व्यवहार। पर करुणामय ! तुम न ऊबते , तिरस्कार सहते हर बार॥ दयासिन्धु ! मेरी यह दुर्मति हर लो , करो बड़ा उपकार। नीच-‌अधम मैं अमृत छोड़ , पीता हालाहल बारंबार॥ अपने सहज दयालु विरदवश , करो नाथ ! मेरा उद्धार। प्रबल मोहधारामें बहते नर-पशुको लो तुरंत उबार॥ — श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी , पदरत्नाकर पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

वशीकरण -२-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग अषाढ़ शुक्ल, नवमी, रविवार, वि० स० २० ७१ वशीकरण   -२- द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद   गत ब्लॉग से आगे ....यशस्विनी सत्यभामा की बात सुनकर परम पतिव्रता द्रौपदी बोली-‘हे सत्यभामा ! तुमने मुझे (जप, तप, मन्त्र, औषध, वशीकरण-विद्या, जवानी और अन्जानादी से पति को वश में करने की ) दुराचारिणी स्त्रियों के वर्ताव की बात कैसे पूछी ? तुम स्वयं बुद्धिमती हो, महाराज श्रीकृष्ण की प्यारी पटरानी हो, तुम्हे ऐसी बाते पूचन औचित नहीं । मैं तुम्हारी बातों का क्या उत्तर दूँ ? देखों यदि कभी पति इस बात को जान लेता है की स्त्री मुझपर मन्त्र-तन्त्र आदि चलाती है तो वह साँप वाले घर के समान उसे सदा बचता और उदिग्न रहता है । जिसके मन में उद्वेग होता है उसको कभी शान्ति नही मिलती और अशान्तों को कभी सुख नही मिलता । हे कल्याणी ! मन्त्र आदि से पति कभी वश में नहीं होता । शत्रुलोग ही उपाय द्वारा शत्रुओं के नाश के लिए विष आदि दिया करते है । वे ही ऐसे चूर्ण दे देते है जिनके जीभ पर रखते ही, या शरीर पर लगाते ही प्राण चले जाते है ।          कितनी ही पापिनी स्त्रियों ने पति

वशीकरण -१-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग अषाढ़ शुक्ल, अष्टमी, शनिवार, वि० स० २० ७१ वशीकरण   -१- द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद   भगवान् श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामा एक समय वन में पाण्डवों के यहाँ अपने पति के साथ सखी द्रौपदी से मिलने गयी । बहुत दिनों बाद परस्पर मिलन हुआ था । इससे दोनों को बड़ी ख़ुशी हुई । दोनों एक जगह बैठकर आनन्द से अपने-अपने घरों की बात करने लगी । वन में भी द्रौपदी को बड़ी प्रसन्न और पाँचों पतियों द्वारा सम्मानित देखकर सत्यभामा को आश्चर्य हुआ । सत्यभामा ने सोचा की भिन्न-भिन्न प्रकृति के पांच पति होने पर भी द्रौपदी सबको समान-भाव से खुश किस तरह रखती है । द्रौपदी के कोई वशीकरण तो नही सीख रखा है ।    यह सोचकर उसने द्रौपदी से कहाँ-‘सखी ! तुम लोकपालों के समान दृढशरीर महावीर पाण्डवों के साथ कैसे बर्तति हों ? वे तुमपर किसी दिन भी क्रोध नही करते, तुम्हारे कहने के अनुसार ही चलते है और तुम्हारे मुहँ की और ताका करते है, तुम्हारे सिवा और किसी का स्मरण भी नही करते । इसका वास्तविक कारण क्या है ? क्या किसी व्रत, उपवास, तप, स्नान, औषध और कामशास्त्रमें कही हुई वशीकरण-विद्या स

भोगो के आश्रय से दुःख -८-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ शुक्ल, सप्तमी, शुक्रवार, वि० स० २० ७१   भोगो के आश्रय से दुःख   -८- गत ब्लॉग से आगे ......यह बात समझ लेने की है की आत्मा जो हमारा वास्तविक स्वरुप है, उस स्वरुप पर तो किसी भी बाहरी चीज का कोई प्रभाव है ही नही । हम जो भगवान् के अंश है सनातन, उस भगवान् के सनातन अंश पर तो किसी का कोई प्रभाव है नही, उसको तो कोई दुख या सुख से प्रभावित कर नही सकता । यहाँ की किसी चीज के जाने और आने से किसी के द्वारा किये हुए मान और अपमान से, किसी के द्वारा की हुई निन्दा-स्तुति से, किसी के द्वारा की हुई हमारी आशा की पूर्ती से और आशा भंग से, सद्व्यवहार से या दुर्व्यव्यहार से भगवान् के सनातन अंश पर कोई असर पड़ता नही ।   वह घटता बढ़ता नही । वह ज्यों-का-त्यों है तो यदि हम चेष्टा करके उसमे जो बद्ध्यता आ गयी है, बन्धन आ गया है, अकारण एक क्लेश उतपन्न हो गया है-उसको मिटाने की चेष्टा उत्पन्न करे तब तो हमारी बुद्धिमानी ठीक और उसको उसी बन्धन में, उसी क्लेश में रखते हुए नये-नये क्लेशों को सुलझाने के लिए नये-नये क्लेशों को उत्पन्न करते रहे तो हमारे बन्धनों की गा

भोगो के आश्रय से दुःख -७-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ शुक्ल, षष्ठी, गुरुवार, वि० स० २० ७१ भोगो के आश्रय से दुःख   -७- गत ब्लॉग से आगे .......जो ठान ले तो महान-से-महान दुःख आने पर भी विचलित नही होता अथवा दूसरा बड़ा सुन्दर तरीका यह है की उसे भगवान् का मंगल-विधान मान ले । भाई ! भगवान् हमसे अधिक जानते है-ये तो मानना ही पड़ेगा । भगवान् को मानने वाला यदि भगवान् को एकमात्र सर्वग्य न भी माने तो कम-से-कम इतना तो माने ही की अपने भगवान् को की वे हमसे जायदा बुद्धिमान है और हमसे जायदा जाननेवाले है ।   इतना तो मानेगा ही और साफ़-साफ़ कहे तो हमसे अधिक हमारे हितेषी भी है, हमे क्या चाहिये-जानते भी है और उनके नियन्त्र्ण के बिन कुछ होता नही तो ऐसी अवस्था में उनके द्वारा विधान किया हुआ जो कुछ भी है, वह सारा-का-सारा हमारे लिए अत्यन्त मंगलमय है, इसमें जरा भी सन्देह की चीज नही । तब फिर वह किस बात को लेकर अपने मन में दुखी होगा । यह बिलकुल ठीक मानिये-सत्य की मैं चाहे मानू या न मानू, पर बात सत्य है-सबके लिए है, वह यह है की दूसरी किसी परिस्थिति के बदलने से हमारी समस्या सुलझ जाएगी, हमारा मनोरथ सिद्ध हो जायेगा

भोगो के आश्रय से दुःख -६-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ शुक्ल, पञ्चमी, बुधवार, वि० स० २० ७१   भोगो के आश्रय से दुःख   -६- गत ब्लॉग से आगे .......अमुक आदमी यों करे तो सुख मिले, अमुक आदमी इस प्रकार मिले तो सुख मिले, अमुक पदार्थ ऐसे प्राप्त हो तो सुख हो । अमुक का वर्ताव बदले, अमुक का व्यवहार बदले, अमुक की हमारे साथ जो बातचीत हो रही है, वह अगर इस रूप में होने लगे, मकान ऐसा हो, जूते-जैसी मामूली वस्तु भी यदि मन के मुताबिक न मिले तो दुखी हो जाता है आदमी । कहीं धोबी के यहाँ से कपडा धुल के आया और जरा सा कही दाग रह गया और अगर मन को ठीक नही लगा तो दुखी हो गया आदमी, उसका बुरा फल । जरा-जरा सी बात पर आदमी अपने को क्षुब्ध कर लेता और उसका बड़ा बुरा परिणाम हो जाता है तो संसार की बात चाहे जरा-सी बड़ी हो, चाहे बहुत बड़ी बात-ये जब तक हम पर अधिकार किये हुए है, तब तक हम उनके वश में है, पराधीन है । हमारा सुख स्वतन्त्र नही, हमारी शान्ति स्वतन्त्र नही, हम सर्वथा पराधीन है और परायी आशा करते है । परायी आशा-दूसरों की आशा पूरी न हो, उलटा हो जाय तो ये आत्मसुख जो है, जो निरन्तर अपने पास है, जो निरन्तर अपनी स

भोगो के आश्रय से दुःख -५-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ शुक्ल, चतुर्थी, मंगलवार, वि० स० २० ७१ भोगो के आश्रय से दुःख   -५- गत ब्लॉग से आगे .......तुलसीदास जी महाराज ने एक बड़ी सुन्दर बात कही है, वह केवल रोचक शब्द नही है, सिद्धान्त है, उनका अनुभूत सिद्धान्त है । उन्होंने इस सिद्धान्त की स्वयं अपने मुख से तारीफ़, बखान किया- बिगरी जन्म अनेक की सुधरे अबही आजु । होहि राम कौ नाम जपु तुलसी तजि कुसमजु ।। (दोहावली २२) सबसे पहली बात है ‘होहि राम कौ ।’ हम जो दुसरे-दुसरे बहुतों के हो रहे है और बहुतों के बने रहना चाहते है, दूसरों का आधिपत्य छुटता नहीं और दुसरे जो है, वे सारे परिवर्तनशील है, अनित्य है, दुखमय है । उनसे हमको मिलेगा क्या ? तो ‘होहि राम कौ’ बस भगवान् के हो जाय तो नेकों जन्म की बिगड़ी हुई आज ही सुधर जाएगी ।   तुलसीदास जी ने कहा हम तो झूठी पत्तलों को चाटते रहे हमेशा और कहीं पेट भरे ही नहीं, कही तृप्ति हुई ही नही, कही शान्ति मिली ही नहीं और भगवान् का स्मरण करते ही ‘सो मैं सुमिरत राम’ राम का सुमिरन करते ही, ‘देखत परसु धरो’ सुधारस, अमृतरस परोसा रखा है मेरे सामने-ये मैं देखता हूँ,

भोगो के आश्रय से दुःख -४-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ कृष्ण , अमावस्या, शुक्रवार, वि० स० २० ७१   भोगो के आश्रय से दुःख   -४- गत ब्लॉग से आगे .......भूल होती है स्वाश्रित । दुसरे के आश्रय पर भूल नही रहती । भूल रहती है अपने आश्रय से । भूल जब समझ में आ गयी तो भूल नही रहती । इसी प्रकार इस जगत का हाल है ।   यहाँ पर नित्य नयी समस्याएं, बहुत सी समस्याए जीवन में उठती है और बहुत सी समस्याओं को लोग लेकर मिलते है, पर समस्याओं के सुलझाने का कोई साधन अपने पास तो है नहीं, जब तक वे स्वयं अपनि समस्या को सुलझाने को तैयार न हों । समस्या सुलझ नही सकती, वह तो ली हुई चीज है । बनायीं हुई चीज है, अपनी निर्माण की चीज है और अपने संकल्प से वह विघटित है, उसको पकड़ रखा है, आधार दे रखा है हमने स्वयं ।   हम उसको छोड़ दे अभी तो बस अभी शान्ति मिल जाय । हम जो अनेक विषयों, अनेक पदार्थों, अनेक प्राणियों, अनेक परिस्तिथियों का अपने को दास मानते है । अमुक अमुक परिस्थितियों के , प्राणियों के, पदार्थों के, अधिकार में जब तक हम है; तब तक उन प्राणियों पर, पदार्थों पर, परिस्थितियों पर होने वाला परिणाम; उनमे होने व

भोगो के आश्रय से दुःख -३-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ कृष्ण , चतुर्दशी, गुरूवार, वि० स० २० ७१ भोगो के आश्रय से दुःख   -३- गत ब्लॉग से आगे ....... जैसे रात-दिन उसी में जीवन लगा रहता है । पर असल बात यह है की जबतक संसार से आशा रहेगी, जबतक भोगों में सुख आस्था रहेगी; तबतक सुख नही मिलेगा न आज तक किसी को सुख मिला, न मिल सकता है, न मिलेगा; क्योकि वहां वह है ही नही ।   संसार चाहे यों-का-यों रहे और रहता है, परन्तु जब इसमें सुख की आशा नही रहती, सुख की आस्था नही रहती, उसके बाद यह रहा करे । इसकी कोई उलझन हमारे मन को उलझा सकती है । हमारे मन पर असर नही डाल सकती । चाहे समस्या कठिन हो, चाहे अत्यन्त जटिल हो, वह अपने आप सुलझ जाती है-जब आस्था मिट जाती है तो सब जगह से आशा हटाकर, सब जगह से विश्वाश हटाकर, सब जगह से अपनापन हटाकर प्रभु में लग जाय- या जग में जहँ लगि ता तनु की प्रीति प्रतीति सगाई । ते सब तुलसीदास प्रभु ही सों होहि सिमिटी इक ठाई ।। इस जगत में जहाँ तक प्रेम, विश्वास और आत्मीयता है, वह सब जगत से सिमटकर एकमात्र प्रभु में केन्द्रित हो जाय-यह बड़ी अच्छी चीज है । न यह ग्रन्थों में सुलझ

भोगो के आश्रय से दुःख -२-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ कृष्ण , त्रयोदशी, बुधवार, वि० स० २० ७१ भोगो के आश्रय से दुःख   -२- गत ब्लॉग से आगे ....... जैसे जगत के प्राणी-पदार्थ-परिस्थितियों से उसकी आशा बनी है, जबतक वह अपनी इन आशाओं की पूर्ती के लिए प्रयत्न करता है तो कहीं-कहीं प्रयत्न में सफलता भी दिखायी पडती है, पर वह नई-नई उलझन पैदा करने के लिए हुआ करती है । जगत का अभाव कभी मिटता नही; क्यों नही मिटता ? क्योकि भगवान् के बिना यह जगत अभावमय ही है, अभावरूप ही है-ऐसा कहा है । दुखो से आत्यंतिक छुटकारा मिलेगा तो तब मिलेगा, जब संसार से छुटकारा मिल जाय और संसार से छुटकारा तभी मिलेगा, जब इसे हम छोड़ देना चाहे ।   इसे पकडे रहेंगे और इससे छुटकारा चाहेंगे-नही मिलेगा । इसे पकडे रहेंगे और सुख-शान्ति चाहेंगे-नही मिलेगी । मेरा बहुत काम पड़ा है अब तक बहुत से लोगों से मिलने का, बहुत तरह के लोगों से । पर जब उनसे अनके अन्तर की बात खुलती है तो शायद ही दो-चार ही ऐसे मिले हो, जो वास्तव में संसार से उपरत है ।   पर प्राय: सभी जिनको लोग बहुत सुखी मानते है, बहुत संपन्न मानते है, बाहर से जिनको किसी प्रकार क

भोगो के आश्रय से दुःख -१-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ कृष्ण , द्वादशी, मंगलवार, वि० स० २० ७१   भोगो के आश्रय से दुःख   -१- जैसे कोई बीहड़ जंगल होता है-घना । उसमे न कही रहने का ठीक स्थान, न कही बैठने की जगह, न सोने का आराम, अनेक प्रकार के जन्तुओं से भरा हुआ-सब तरफ अन्धकार और भय है । इसी तरह यह संसारान्य है । यह जगत रुपी जंगल वास्तव में बड़ा भयानक है ।   भगवान् ने इस दुखालय कहा, असुख कहा । दुःखयोनी कहा, भगवान् बुद्ध ने दुःख-ही-दुःख बतलाया तो इस दुखारन्य में-दुःख के जंगल में सुख खोजना-ये निराशा की चीज है । कभी ये पूरी होती नही । अब भ्रम से मनुष्य यह मान लेता है की अबकी बार का ये कष्ट निकल जाये फिर दूसरा कोई कष्ट नही आएगा । एक उलझन को सुलझाता है, सम्भव है की और उलझ जाये और सम्भव है थोड़ी बहुत सुलझे, फिर नयी उलझन आ जाये । पर उलझनों का मिटना सम्भव नही है ।   संसार का यही स्वरुप है । अतएव शान्ति, सुख चाहनेवाले प्रत्येकमनुष्य-बुद्धिमान मनुष्य से कहिये की दूसरा रास्ता नही है, वह जगत से निराश हो जाय ।.... शेष अगले ब्लॉग में ।                — श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भा