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मार्च, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नाथ मैं थारो जी थारो।

  ।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग चैत्र शुक्ल, प्रतिपदा, सोमवार, वि० स० २० ७० नाथ मैं थारो जी थारो। ( राग खमाच-ताल दीपचंदी)   ( मारवाड़ी बोली) नाथ मैं थारो जी थारो। चोखो , बुरो , कुटिल अरु कामी , जो कुछ हूँ सो थारो॥ बिगड्यो हूँ तो थाँरो बिगड्यो , थे ही मनै सुधारो। सुधर्‌यो तो प्रभु सुधर्‌यो थाँरो , थाँ सूँ कदे न न्यारो॥ बुरो , बुरो , मैं भोत बुरो हूँ , आखर टाबर थाँरो। बुरो कुहाकर मैं रह जास्यूँ , नाँव बिगड़सी थाँरो॥ थाँरो हूँ , थाँरो ही बाजूँ , रहस्यूँ थाँरो , थाँरो !! आँगलियाँ नुँहँ परै न होवै , या तो आप बिचारो॥ मेरी बात जाय तो जा‌ओ , सोच नहीं कछु हाँरो। मेरे बड़ो सोच यों लाग्यो बिरद लाजसी थाँरो॥ जचे जिस तराँ करो नाथ ! अब , मारो चाहै त्यारो। जाँघ उघाड्याँ लाज मरोगा , न्नँडी बात बिचारो॥   — श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी , पदरत्नाकर पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!                       

गो-महिमा -३-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग चैत्र कृष्ण, अमावस्या , रविवार, वि० स० २० ७० गो-महिमा -३- गत ब्लॉग से आगे... गौएँ परम पावन और पुण्यस्वरूपा है । इन्हें ब्रह्मणों को दान करने से मनुष्य स्वर्ग का सुख भोगता है । पवित्र जल से आचमन करके पवित्र गौओं के बीच में गोमती-मन्त्र ‘गोमा अग्ने विमाँ अश्वी’ का जप करने से मनुष्य अत्यन्त शुद्ध एवं निर्मल (पापमुक्त) हो जाता है । विद्या और वेदव्रत में निष्णात पुण्यात्मा ब्राह्मणों को चाहिये की वे अग्नि, गौ और ब्रह्मणों के बीच अपने शिष्यों को यज्ञतुल्य गोमती-मन्त्र की शिक्षा दे । जो तीन रात तक उपवास करके गोमती-मन्त्र का जाप करता है उसे गौओं का वरदान प्राप्त होता है । पुत्र की इच्छा वाले को पुत्र, धन की इच्छा वाले को धन और पति की इच्छा रखनेवाली स्त्री को पति मिलता है । इस प्रकार गौएँ मनुष्य की सम्पूर्ण कामनाये पूर्ण करती है । वे   यज्ञ का प्रधान अंग है, उनसे बढ़कर दूसरा कुछ नहीं ।   (महा० अनु० ८१) गौ-मन्त्र जाप से पापनाश ‘ गाय घृत और दूध देने वाली है, घृत का उत्पतिस्थान, घृत को प्रगट करने वाली, घृत की नदी और घृत की भवरँरूप है, वे स

गो-महिमा -२-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग चैत्र कृष्ण, चतुर्दशी, शनिवार, वि० स० २० ७० गो-महिमा -२- गत ब्लॉग से आगे... गौओं को यज्ञ का अंग और साक्षात् यज्ञस्वरूप बतलाया गया है । इनके बिना यज्ञ किसी तरह नहीं हो सकता । ये अपने दूध और घी से प्रजा का पालन-पोषण करती है तथा इनके पुत्र (बैल) खेती के काम आते है और तरह तरह के अन्न एवं बीज पैदा करते है, जिनसे यज्ञ संपन्न होते है और हव्य-कव्य का भी काम चलता है । इन्हीं से दूध, दही और घी प्राप्त होते है । ये गौए बड़ी पवित्र होती है और बैल भूक प्यास कष्ट सह कर अनेको प्रकार के बोझ ढोते रहते है । इस प्रकार गौ-जाति अपने काम से ऋषियों तथा प्रजाओं का पालन करती रहती है । उसके व्यवहार में शठता या माया नहीं होती । वह सदा पवित्र कर्म में लगी रहती है । इसी से ये गौएँ हम सब लोगों के उपर स्थान में निवास करती है । इसके सिवा गौएँ वरदान भी प्राप्त कर चुकी है तथा प्रसन्न होने पर वे दूसरों को वरदान भी देती है ।   (महा० अनु० ८३ ।१७-२१) गौएँ सम्पूर्ण तपस्विओं से भी बढकर है । इसलिए भगवान शंकर ने गौओं के साथ रहकर तप किया था । जिस ब्रह्मलोक में सिद्ध ब्रह्

गो-महिमा -१-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग चैत्र कृष्ण, द्वादशी, शुक्रवार, वि० स० २० ७० 28   Ma rch 201 4 , Friday गो-महिमा -१- गौएँ प्राणियों का आधार तथा कल्याण की निधि है । भूत और भविष्य गौओं के ही हाथ में है । वे ही सदा रहने वाली पुष्टिका कारण तथा लक्ष्मी की जड हैं । गौओं की सेवा में जो कुछ दिया जाता है, उसका फल अक्षय होता है । अन्न गौओं से उत्पन्न होता है, देवताओं को उत्तम हविष्य (घृत) गौएँ देती है तथा स्वाहाकार (देवयज्ञ) और वषटकार (इन्द्रयाग) भी सदा गौओं पर ही अवलंबित है । गौएँ ही यज्ञ का फल देने वाली है । उन्हीं में यज्ञौ की प्रतिष्ठा है । ऋषियों को प्रात:काल और सांयकाल में होम के समय गौएँ ही हवंन के योग्य घृत आदि पदार्थ देती है । जो लोग दूध देने वाली गौ का दान करते है, वे अपने समस्त संकटों और पाप से पार हो जाते है । जिनके पास दस गायें हो वह एक गौ का दान करे,जो सौ गाये रखता हो, वह दस गौ का दान करे और जिसके पास हज़ार गौएँ मौजूद हो, वह सौ गाये दान करे तो इन सबको बराबर ही फल मिलता है । जो सौ गौओं का स्वामी होकर भी अग्निहोत्र नहीं करता, यो हज़ार गौएँ रखकर भी यज्ञ नही

होली और उस पर हमारा कर्तव्य -5-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग चैत्र   कृष्ण, प्रतिपदा, सोमवार, वि० स० २० ७०   होली और उस पर हमारा कर्तव्य -5-   गत ब्लॉग से आगे ...... शास्त्र में कहा है - १-किसी भी स्त्री को किसी भी अवस्था में याद करना, २-उसके रूप-गुणों का वर्णन करना,स्त्री-सम्बन्धी चर्चा करना या गीत गाना, ३-स्त्रियों के साथ तास, चौपड़, फाग आदि खेलना, ४-स्त्रियों को देखना, ५-स्त्री से एकान्त में बात करना, ६-स्त्री को पाने के लिए मन में संकल्प करना, ७-पाने के लिए प्रयत्न करना और ८-सहवास करना- ये आठ प्रकार के मैथुन विद्वानों ने बतलाये है, कल्याण चाहने वालो को इनसे बचना चाहिये । इनके सिवा ऐसे आचरणों से निर्लज्जता बढती है, जबान बिगड़ जाती है, मन पर बुरे संस्कार जम जाते है, क्रोध बढ़ता है, परस्पर में लोग लड़ पढ़ते है, असभ्यता और पाशविकता भी बढती है । अतएव सभी स्त्री-पुरुषों को चाहिये की वे इन गंदे कामो को बिलकुल ही न करे । इनसे लौकिक और परलौकिक दोनों तरह के नुकसान होते है । फाल्गुन सुदी ११ से चैत्र वदी १ तक नीचे लिखे काम करने चाहिये । १). फाल्गुन सुदी ११ को या और किसी दिन भगवान की सवारी निकाल

होली और उस पर हमारा कर्तव्य -4-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग फाल्गुन कृष्ण, पूर्णिमा, रविवार, वि० स० २० ७०   होली और उस पर हमारा कर्तव्य -4-   गत ब्लॉग से आगे ...... जो कुछ भी हो,इन सारी बातों पर विचार करने से यही अनुमान होता है की यह त्यौहार असल में मनुष्यजाति की भलाईके लिए ही चलाया गया था, परन्तु आजकल इसका रूप बहुत बिगड़ गया है । इस समय अधिकाश लोग इसको जिस रूप में मनाते है उससे तो सिवा पाप बढ़ने और अधोगति होने के और कोई अच्छा फल होता नहीं दीखता । आजकल क्या होता है ? कई दिन पहले से स्त्रियाँ गंदे गीत गाने लगती हैं, पुरुष बेशरम होकर गंदे अश्लील कबीर, धमाल, रसिया और फाग गाते है । स्त्रियों को देखकर बुरे-बुरे इशारे करते और आवाजे लगाते है । डफ बजाकर बुरी तरह से नाचते है और बड़ी गंदी-गंदी चेष्टाये करते है । भाँग, गाँजा, सुलफा और मांजू आदि पीते और खाते है । कही-कही शराब और वेश्याओतक की धूम मचती है । भाभी, चाची, साली, साले की स्त्री, मित्र की स्त्री, पड़ोसिन और पत्नी आदिके साथ निर्लज्जता से फाग खेलते और गंदे-गंदे शब्दों की बौछार करते है । राख, मिटटी और कीचड़ उछाले जाते है, मुह पर स्याही, कारिख य

होली और उस पर हमारा कर्तव्य -3-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग फाल्गुन कृष्ण , चतुर्दशी, शनिवार, वि० स० २० ७०   होली और उस पर हमारा कर्तव्य -3- गत ब्लॉग से आगे ...... कहा जाता है की भक्तराज प्रह्लादकी अग्नि परीक्षा इसी दिन हुई थी । प्रहलाद के पिता   दैत्यराज हिरन्यकशिपु ने अपनी बहन ‘होलका’ से (जिसको भगवदभक्त के न सताने तक अग्नि में न जलने का वरदान मिला था) प्रहलाद को जला देने के लिए कहा, होलका   राक्षसी उसे गोद में ले कर बैठ गयी, चारो तरफ आग लगा दी गयी । प्रह्लाद भगवान के अनन्य भक्त थे, वे भगवान का नाम रटने लगे । भगवतकृपा से प्रह्लाद के लिए अग्नि शीतल हो गयी और वरदान के शर्त के अनुसार ‘होलका’ उसमे जल मरी । भक्तराज प्रह्लाद   इस कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और आकर पिता से कहने लगे राम नामके जापक जन है तीनो लोकों में निर्भय । मिटते सारे ताप नाम की औषध से पक्का निश्चय ।। नहीं मानते हो तो मेरे तन की और निहारो तात । पानी पानी हुई आग है जला नहीं किन्च्चित भी गात ।। इन्ही भक्तराज और इनकी विशुद्ध भक्ति का स्मारक रूप यह होली का त्यौहार है । आज भी ‘होलिका-दहन’ के समय प्राय: सब मिलकर एकस्व

होली और उस पर हमारा कर्तव्य -2-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग फाल्गुन कृष्ण , त्रयोदशी, शुक्रवार, वि० स० २० ७०   होली और उस पर हमारा कर्तव्य -2- गत ब्लॉग से आगे ...... होली का एक नाम ‘वासन्ती नवशस्येष्टि ।’ इसका अर्थ ‘वसन्तमें पैदा होने वाले नए धानका ‘यज्ञ’ होता है, यह यज्ञ फाल्गुन शुक्ल   १५ को किया जाता है । इसका प्रचार भी शायद इसी लिए हुआ हो की ऋतु-परिवर्तन के प्राक्रतिक विकार यज्ञ के धुएं से नष्ट होकर गाँव-गाँव और नगर-नगर में एक साथ ही वायु की शुद्धि हो जाए । यज्ञ से बहुत से लाभ होते है ।   पर यज्ञधूम   से वायुकी शुद्धि होना तो प्राय: सभी को मान्य है अथवा नया धान किसी देवता को अर्पण किये बिना नहीं खाना चाहिये, इसी शास्त्रोक्त हेतु को प्रत्यक्ष दिखलाने के लिए सारी जातिने एक दिन ऐसा रखा है जिस दिन देवताओं के लिए देश भर में धन से यज्ञ किया जाये । आजकल भी होलीके दिन जिस जगह काठ-कंडे इक्कठे करके उसमे आग लगायी जाती है, उस जगह को पहले साफ़ करते और पूजते है और सभी ग्रामवासी उसमे कुछ-न-कुछ होमते है, यह शायद उसी ‘नवशस्येष्टि’ का बिगड़ा हुआ रूप हो । सामुदायिक यज्ञ होनेसे अब भी सभी लोग उसके लिए पहले से

होली और उस पर हमारा कर्तव्य -1-

।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग फाल्गुन कृष्ण , द्वादशी, गुरूवार, वि० स० २० ७०   होली और उस पर हमारा कर्तव्य -1-       इसमें कोई संदेह नहीं की होली हिन्दुओं का बहुत पुराना त्यौहार है;परन्तु इसके प्रचलित होने का प्रधान कारण और काल कौन सा है इसका एकमत से अबतक कोई निर्णय नहीं हो सका है | इसके बारे में कई तरह की बाते सुनने में आती है, सम्भव है, सभी का कुछ-कुछ अंश मिलकर यह त्यौहार बना हो | पर आजकल जिस रूप में यह मनाया जाता है उससे तो धर्म, देश और मनुष्यजाति को बड़ा ही नुकसान पहुँच रहा है | इस समय क्या होता है और हमे क्या करना चाहिये, यह बतलाने से पहले, होली क्या है ? इस पर कुछ विचार किया जाता है | संस्कृत में ‘होलका’ अधपके अन्न को कहते है | वैध के अनुसार ‘होला’ स्वल्प बात है और मेद, कफ तथा थकावट को मिटाता है | होली पर जो अधपके चने या गन्ने लाठी में बाँध कर होली की लपट में सेककर खाये जाते है, उन्हें ‘होला’ कहते है | कहीं-कहीं अधपके नये जौकी बाले भी इसी प्रकार सेकी जाती है | सम्भव है वसंत ऋतू में शरीर के किसी प्राकृतिक विकार को दूर करने के लिए होली के अवसर पर होला चबान

मानव-जन्म सुदुर्लभ पाकर, भजे नहीं मैंने भगवान् ।

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग भाद्रपद शुक्ल, एकादशी, बुधवार, वि० स० २० ७० मानव-जन्म सुदुर्लभ पाकर , भजे नहीं मैंने भगवान् । ( राग जंगला-तीन ताल)   मानव-जन्म सुदुर्लभ पाकर , भजे नहीं मैंने भगवान् । रचा-पचा मैं रहा निरन्तर , मिथ्या भोगोंमें सुख मान॥ मान लिया मैंने जीवनका लक्ष्य एक इन्द्रिय-सुख-भोग। बढ़ते रहे सहज ही इससे नये-नये तन-मनके रोग॥ बढ़ता रहा नित्य कामज्वर , ममता-राग-मोह-मद-मान। हु‌ई आत्म-विस्मृति , छाया उन्माद , मिट गया सारा जान॥ केवल आ बस गया चितमें राग-द्वेष-पूर्ण संसार। हु‌ए उदय जीवनमें लाखों घोर पतनके हेतु विकार॥ समझा मैंने पुण्य पापको , ध्रुव विनाशको बड़ा विकास। लोभ-क्रएध-द्वेष-हिंसावश जाग उठा अघमें उल्लास॥ जलने लगा हृदयमें दारुण अनल , मिट गयी सारी शान्ति। दभ हो गया जीवन-सबल , छायी अमित अमिट-सी भ्रान्ति॥ जीवन-संध्या हु‌ई , आ गया इस जीवनका अन्तिम काल। तब भी नहीं चेतना आयी , टूटा नहीं मोह-जंजाल॥ प्रभो ! कृपा कर अब इस पामर , पथभ्रष्टस्न्पर सहज उदार। चरण-शरणमें लेकर कर दो , नाथ ! अधमका अब उद्धार॥ — श्र

एक लालसा -५-

           ।। श्रीहरिः ।। आज की शुभतिथि-पंचांग फाल्गुन शुक्ल, दशमी, मंगलवार, वि० स० २० ७० एक लालसा -५- गत ब्लॉग से आगे ..... प्राणी के अभिसार से दौड़ने वाली प्रणयिनी की तरह उसे रोकने में किसी भी सांसारिक प्रलोभन की परबा शक्ति समर्थ नहीं होती, उस समय वह होता है अनन्त का यात्री-अनन्त परमानन्द-सिन्धु-संगम का पूर्ण प्रयासी । घर-परिवार सबका मोह छोड़कर, सब और से मन मोड़कर वह कहता है- बन बन फिरना बेहतर इसको हमको रतं भवन नही भावे है । लता तले   पड़ रहने में सुख नाहिन सेज सुखावे है ।। सोना कर धर शीश भला अति तकिया ख्याल न आवे है । ‘ललितकिशोरी’ नाम हरी है जपि-जपि मनु सचु पावे है ।। अबी विलम्ब जनि करों लाडिली कृपा-द्रष्टि टुक हेरों । जमुना-पुलिन गलिन गहबर की विचरू सांझ सवेरों ।। निसदिन निरखों जुगल-माधुरी रसिकन ते भट भेरों । ‘ललितकिशोरी’ तन मन आकुल श्रीबन चहत बसेरों ।। एक नन्दनंदन प्यारे व्रजचन्द्र की झांकी निरखने के सिवा उसके मन में फिर कोई लालसा नही रह जाती, वह अधीर होकर अपनी लालसा प्रगट करता है- एक लालसा मनमहूँ धारू । बंसीवट, कालिंदी तट, नट नागर नि