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सौन्दर्य-लालसा 2

सौन्दर्य-लालसा 2 नेत्रों की ही क्यों- प्रत्येक इन्द्रिय की दर्शन-स्पृहा बढ़ रही है। सभी अंग उनके मधुर मिलन की उत्कट आकांक्षा से आतुर हैं। बार-बार मिलने पर भी वियोग की-विरह की ही अनुभूति होती है। वे फिर कहती हैं- नदज्जलदनिःस्वनः श्रवणकर्षिसत्सिजिंतः सनर्मरससूचकाक्षरपदार्थभंगयुक्तिकः। रमादिकवरागनाहृदयहारिवंशीकलः स मे मदनमोहनः सखि तनोति कर्णस्पृहाम् ।।   ‘सखि! जिनकी कण्ठध्वनि मेघ-गर्जन के सदृश सुगम्भीर है , जिनके आभूषणों की मधुर झनकार कानों को आकर्षित करती है , जिनके परिहास-वचनों में विविध भावभगिमाओं का उदय होता रहता है और जिनकी मुरलीध्वनि के द्वारा लक्ष्मी आदि देवियों का हृदय-हरण होता रहता है , वे मदनमोहन मेरे कानों की श्रवणस्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’   कुरंगमदजिद्वपुःपरिमलोर्मिकृष्टांबनः स्वकांगनलिनाष्टके शशियूताब्जगन्धप्रथः। मदेन्दुवरचन्दनागुरुसुगन्धिचर्चार्चितः स मे मदनमोहनः सखि तनोति नासास्पृहाम्।। ‘ सखि! जिनके मृगमदविजयी श्री अंग की सौरभतरंगों से अंगनाएँ वशीभूत हो जाती हैं , जो अपने देहस्थित अष्टकमल (दो चरणकमल , दो करकमल , दो नेत्रकमल , एक नाभिकमल और ए

सौन्दर्य-लालसा 1

सौन्दर्य-लालसा मनकी सौन्दर्य-लालसा को दबाइये मत , उसे खूब बढ़ने दीजिये ; परंतु उसे लगाने की चेष्टा कीजिये परम सुन्दरतम पदार्थ में। जो सौंन्दर्य का परम अपरिमित निधि है , जिस सौन्दर्य-समुद्र के एक नन्हें-से कण को पाकर प्रकृति अभिमान के मारे फूल रही है और नित्य नये-नये असंख्य रूप धर-धरकर प्रकट होती और विश्व को विमुग्ध करती रहती है - आकाश का अप्रतिम सौन्दर्य , शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु का सुख-स्पर्श-सौन्दर्य , अग्नि-जल-पृथ्वी का विचित्र सौन्दर्य , अनन्त विचित्र पुष्पों के विविध वर्ण और सौरभ का सौन्दर्य , विभिन्न पक्षियों के रंग-बिरंगे सुखकर स्वरूप और उनकी मधुर काकलीका सौन्दर्य , बालकों की हृदयहारिणी माधुरी , ललनाओं का ललित लावण्य तथा माता-पत्नि-मित्र आदि का मधुर स्नेह-सौन्दर्य- ये सभी एक साथ मिलकर भी जिस सौन्दर्य-सुधासागर के एक क्षुद्र सीकर की भी समता नहीं कर सकते , उस सौन्दर्यराशि को खोजिये। उसी के दर्शन की लालसा जगाइये , सारे अंगों में जगाइये। आपकी बुद्धि , आपका चित्त-मन , आपकी सारी इन्द्रियाँ , आपके शरीर के समस्त अंग-अवयव , आपका रोम-रोम उसके सुषमा-सौन्दर्य के लिये व्याकुल हो उठ

श्रीकृष्णदर्शन की साधना 2

श्रीकृष्णदर्शन की साधना श्री राधा-कृष्ण  हम लोग धन-संतान और मान-कीर्ति के लिये जितना जी-तोड़ परिश्रम और सच्चे मन से प्रयत्न करते हैं जितना छटपताते हैं उतना परमात्मा के लिये क्या अपने जीवनभर में कभी किसी दिन भी हमने प्रयत्न किया है या हम छटपटाते हैं ? तुच्छ धन-मान के लिये तो हम भटकते और रोते फिरते हैं ; क्या परमात्मा के लिये व्याकुल होकर सच्चे मन से हमने कभी एक भी आँसू गिराया है ? इस अवस्था में हम कैसे कह सकते हैं कि परमात्मा के दर्शन नहीं होते। हमारे मन में परमात्मा के दर्शन की लालसा ही कहाँ है। हमने तो अपना सारा मन अनित्य सांसारिक विषयों के कूड़े-कर्कट से भर रखा है। जोर की भूख या प्यास लगने पर क्या कभी कोई स्थिर रह सकता है ? परंतु हमारी भोग-लिप्सा और भगवान् के प्रति उदासीनता इस बात को सिद्ध करती है कि हम लोगों को भगवान् के लिय जोर की भूख या प्यास नहीं लगी। जिस दिन वह भूख लगेगी , उस दिन भगवान् को छोड़कर दूसरी कोई वस्तु हमें नहीं सुहायेगी।   उस दिन हमारा चित्त सब ओर से हटकर केवल उसी के चिन्तनमें तल्लीन हो जायेगा। जिस प्रकार विशाल साम्राज्य के प्राप्त हो जाने पर साधारण कौड

श्रीकृष्णदर्शन की साधना 1

श्रीकृष्णदर्शन की साधना एक गुजराती सज्जन निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर बड़ी उत्कण्ठा के साथ चाहते हैं। नाम प्रकाश न करने के लिये उन्होंने लिख दिया है , इसलिये उनका नाम प्रकाशित नहीं किया गया है , प्रश्नों की रक्षा करते हुए कुछ शब्द बदले गये हैं। कई महात्मा पुरुष कहते हैं कि इस समय ईश्वर दर्शन नहीं हो सकता। क्या यह बात मानने योग्य है ? यदि थोड़ी देर के लिये मान लें तो फिर भक्त तुलसीदास और नरसी मेहता आदि को इस कलियुग में उस श्याम सुन्दर की मनमोहिनी मूर्ति का दर्शन हुआ था , यह बात क्या असत्य है ?    जैसे आप मेरे सामने बैठे हो और मैं आपसे बातें कर रहा हूँ , क्या प्यारे कृष्णचन्द्र का इस प्रकार दर्शन होना सम्भव है ? यदि सम्भव है तो हमें क्या करना चाहिये कि जिससे हम उस मोहिनी मूर्ति को शीघ्र देख सकें ? जहाँ तक ये चर्म-चक्षु उस प्यारे को तृप्त होने तक नहीं देख सकेंगे ,  वहाँ तक ये किसी काम के नहीं हैं। नेत्रों को सार्थक करने का ‘सिद्ध-मार्ग’ कौन-सा है ,  वह बताइये।   कृष्णदर्शन की तीव्रतम विरहाग्नि हृदय में जल रही है , न जाने वह बाहर क्यों नहीं निकलती! इसी से मैं और भी घबरा र

पदरत्नाकर

[ ४३ ] तर्ज लावनी — ताल कहरवा श्रीराधा-माधव!   यह मेरी सुन लो बिनती परम उदार। मुझे स्थान दो निज चरणोंमें , पावन प्रभु!   कर कृपा अपार॥ भूलूँ सभी जगतको , केवल रहे तुम्हारी प्यारी याद। सुनूँ जगतकी बात न कुछ भी , सुनूँ तुम्हारे ही संवाद॥ भोगोंकी कुछ सुधि न रहे , देखूँ सर्वत्र तुम्हारा मुख। मधुर-मधुर मुसकाता , नित उपजाता अमित अलौकिक सुख॥ रहे सदा प्रिय नाम तुम्हारा मधुर दिव्य रसना रसखान। मनमें बसे तुम्हारी प्यारी मूर्ती मञ्जु सौन्दर्य-निधान॥ तनसे सेवा करूँ तुम्हारी , प्रति इन्द्रियसे अति उल्लास। साफ करूँ पगरखी-पीकदानी सेवा-निकुञ्जमें खास॥ बनी खवासिन मैं चरणोंकी करूँ सदा सेवा , अति दीन। रहूँ प्रिया-प्रियतमके नित पद-पद्म-पराग-सुसेवन-लीन॥

पदरत्नाकर

[ ४१ ] दोहा श्रीराधामाधव जुगल दिब्य रूप-गुन-खान। अविरत मैं करती रहूँ प्रेम-मगन गुन-गान॥ राधागोबिंद नाम कौ करूँ नित्य उच्चार। ऊँचे सुर तें मधुर मृदु , बहै दृगन रस-धार॥ करि करुना या अधम पर , करौ मोय स्वीकार। पर्यौ रहूँ नित चरन-तल , करतौ जै-जैकार॥ मैं नहिं देखूँ और कौं , मोय न देखैं और। मैं नित देख्यौई करूँ , तुम दोउनि सब ठौर॥

पदरत्नाकर

[ ३९ ] राग माँड़ — ताल कहरवा मोहन-मन-धन-हारिणी , सुखकारिणी अनूप। भावमयी श्रीराधिका , आनन्दाम्बुधि-रूप॥ आकर्षक ऋषि-मुनि-हृदय अनुपम रूप ललाम। कृष्णरसार्णव रस-स्वयं लोकोत्तर सुखधाम॥ दीन-हीन मति मलिन मैं असत-पंथ आरूढ़। दु:खद भोगोंमें सदा अति आसक्त विमूढ़॥ युगल कृपानिधि!  कीजिये मुझपर कृपा उदार। पद-रज-सेवाका सतत मिले मुझे अधिकार॥

पदरत्नाकर

[ ३५ ] राग माँड़ — ताल कहरवा राधा-माधव-जुगल के प्रनमौं पद-जलजात। बसे रहैं मो मन सदा , रहै हरष उमगात॥ हरौ कुमति सबही तुरत , करौ सुमति कौ दान। जातें नित लागौ रहै तुव पद-कमलनि ध्यान॥ राधा-माधव!   करौ मोहि निज किंकर स्वीकार। सब तजि नित सेवा करौं , जानि सार कौ सार॥ राधा-माधव!   जानि मोहि निज जन अति मति-हीन। सहज कृपा तैं करौ नित निज सेवा में लीन॥ राधा-माधव!   भरौ तुम मेरे जीवन माँझ। या सुख तैं फूल्यौ फिरौं , भूलि भोर अरु साँझ॥ तन-मन-मति सब में सदा लखौं तिहारौ रूप। मगन भयौ सेवौं सदा पद-रज परम अनूप॥ राधा-माधव-चरन रति-रस के पारावार। बूड्यौ , नहिं निकसौं कबहुँ पुनि बाहिर संसार॥

पदरत्नाकर

[ ३३ ] राग-पीलू — ताल कहरवा राधा-माधव-पद-कमल बंदौं बारंबार। मिल्यौ अहैतुक कृपा तें यह अवसर सुभ-सार॥ दीन-हीन अति , मलिन-मति , बिषयनि कौ नित दास। करौं बिनय केहि मुख , अधम मैं , भर मन उल्लास॥ दीनबंधु तुम सहज दोउ , कारन-रहित कृपाल। आरतिहर अपुनौ बिरुद लखि मोय करौ निहाल॥ हरौ सकल बाधा कठिन , करौ आपुने जोग। पद-रज-सेवा कौ मिलै , मोय सुखद संजोग॥ प्रेम-भिखारी पर्यौ मैं आय तिहारे द्वार। करौ दान निज-प्रेम सुचि , बरद जुगल-सरकार॥ श्रीराधामाधव-जुगल हरन सकल दुखभार। सब मिलि बोलौ प्रेम तें तिन की जै-जैकार॥