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कृपाशक्त्ति प्रधान है

माघ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, मंगलवार जितने भी भगवत्प्राप्त महापुरुष हुए हैं, उन सबकी स्थितियाँ पृथक्-पृथक् हैं; पर तत्त्वतः सभीने एक ही सत्यको प्राप्त किया है! साधानकालमें  मार्गकी भिन्नता रहती है --- जैसे किसीमें ज्ञान प्रधान होता है, किसीमें भक्ति, किसीमें निष्काम कर्म तथा किसीमें योग-साधन! पर सबका प्राप्तव्य एक ही भगवान् है! अतएव महापुरुष सभी साधनोंका आदर करते हैं; पर जिस साधनद्वारा वे वहाँतक पहूँचे हैं, उसीका वे विशेषरूपमें  समर्थन करते हैं, कारण उस साधनका उन्हें व्यवहारिक ज्ञान अधिक है!  जगतका कोई भी सौन्दर्य न स्थायी है और न वर्धनशील; वह अनित्य है, विनाशी है, क्षणभंगुर है, अपूर्ण है! भगवान् का सौन्दर्य नित्य है तथा पूर्णतम होते हुए भी नित्य वर्धनशील है!  भगवान् के आश्रयके लिये आवश्यकता है --- दैन्यकी! 'दैन्य ' का अर्थ है -- अभिमान - शुन्यता! हममें नाना प्रकारके अभिमान भरे हैं -- जैसे धनका अभिमान, पदक अभिमान, साधनका अभिमान, ज्ञानका अभिमान, त्यागका अभिमान, सेवा करनेका अभिमान आदि ! जहाँ- जहाँ अभिमानका उदय होता है, वहाँ-वहाँ भगवान् की विस्मृति हो जाती है! पर भक्तों

वृन्दावनवास

मौनी एवं सोमवती अमावस्या, वि.सं.-२०६८, सोमवार साधकका आदर्श त्यागी है, भोगी नहीं! इसीसे साधक भोगीद्वारा प्रलोभन दिये जानेपर भी भोगोंको स्वीकार नहीं करता!   वृन्दावनवासका बड़ा माहात्म्य है, पर वृन्दावनमें केवल रहना वृन्दावनवास नहीं है; वृन्दावनवासका अर्थ है -- जीवनका श्रीकृष्णमय हो जाना!  पर्देपर चित्रित गहनोंको देखकर उसके प्रति आसक्ति, प्रलोभन नहीं जागता! यह संसार, यहाँके भोग-पदार्थ पर्देपर गहने हैं -- यह प्रतीति हो जाय तो स्वाभाविक ही इनके प्रति आसक्ति -उपेक्षा हो जायगी!  भगवान् पर  हमारा विश्वास दृढ़ हुआ कि नहीं, इसकी  कसौटी है -- भगवान् के प्रत्येक विधानमें मंगलबुद्धि हुई कि नहीं तथा दुःखमें भगवान् का संस्पर्श  अनुभव होता है कि नहीं! जबतक भगवान् के किसी भी विधानसे मनपर विषाद-चिन्ता आती है, तबतक यह स्पष्ट है कि हमारा भगवान् पर विश्वास दृढ़ नहीं  हुआ है! 

साधकका यह स्वरुप

माघ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, रविवार गत ब्लॉग से आगे...  सेवा वह उत्तम होती है, जिसमें सेवकका नामतक सेव्यका ज्ञात न हो सके! अभिमानका स्वभाव है -- अपमान करना! अभिमानीसे अपमान किये बिना नहीं रहा जाता -- चाहे जिस क्षेत्रमें देख लिया जाय!    जिस प्रकारके वातावरणका  हम सेवन करेंगे मनसे, शरीरसे, वाणीसे -- वैसा ही बननेकी हमारी इच्छा होगी! संगसे वृत्ति, वृत्तिसे क्रिया और क्रियासे स्वरुप बनता है!  आज हम धर्मके नामसे लजाते है! भगवान् को माननेवाले भी समाजमें, सबके सामने अपनेको भगवान् को माननेवाला कहनेमें लज्जा अनुभव करते हैं!  साधककी यह वृत्ति रहती है कि वह भोगियोंसे सर्वथा उलटा चलता है! भोगी साधककी  वृत्तिको समझते नहीं और वे उसे भ्रमित मानते हैं; पर साधक उनकी इस मान्यतासे उद्वेग नहीं करता, वह अन्तरमें प्रसन्न होता है!  साधक और भोगीके दृष्टिकोणमें बड़ा अन्तर होता है! भोगी भोगोंमें ही जागता-सोता है और साधक भोगोंके त्यागमें ही जागता-सोता है!  साधकका यह स्वरुप है कि वह भोगोंसे स्वाभाविक अपनी चित्तवृत्तिको हटाये! भोगी जिन चीजोंको चाहता है तथा ग्रहण करता है -- सुखके लिये, साधक उन ची

भगवान् के प्रति कई भाव

माघ कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार भगवान् के प्रति कई भाव हो सकते हैं ! सर्व-साधारणके लिये सीधा सरल भाव है -- भगवान् के प्रति स्वामीका भाव ! 'भगवान् मेरे स्वामी, मैं उनका दास' -- यह सर्वथा एवं सर्वदा निर्दोष  भाव है; इसमें कहीं भी पतनकी  गुंजाइश नहीं है !  दूसरा भाव है -- भगवान् को अपना सखा मानना! यह भाव दास्य-भावसे ऊँचा है! इस भावमें मानसिक रूपसे सदा-सर्वत्र भगवान् के साथ रहे और भगवान् की लीलाका चिन्तन करे! इसमें भगवान् के बालस्वरूपका या पार्थसखारूपका चिन्तन करे!  तीसरा भाव है -- भगवान् को अपना बालक मानकर उनकी लीलाको देखे, अर्थात् भगवान् के प्रति   वात्सल्यभाव ! भगवान् ने बालपनेमें जो-जो लीलाएँ की हैं, उन-उन लीलाओंका चिन्तन करे! बस, भगवान् की उन लीलाओंके प्रति मनमें अनुराग हो तथा उन्हें सर्वथा सत्य माने!  चोथा भाव है -- मधुर भाव, अर्थात् भगवान् को अपने प्रियतमरूपमें अनुभव करे ! 'गोपी-भाव' इसीका नाम है! गोपी-भावके कई स्तर हैं, जिनमें मन्जरी-भाव सर्वोत्तम है ! श्रीराधामाधव मन्जरीके इष्ट हैं और श्रीराधामाधवके सुखका आयोजन करना मन्जरीका जीवन ! मन्जरीपर श्री राधारा

नाम-जप

माघ कृष्ण सप्तमी, मकरसंक्रान्ति, वि.सं.-२०६८, रविवार गत ब्लॉग से आगे....  नाम-जपसे जो भी ऊँची-से-ऊँची स्थिति अन्य किसी साधनसे प्राप्त हो सकती है, वह प्राप्त हो जाती है - यह मेरा विश्वास है! साधाककी वृत्ति  उत्तरोत्तर भगवान् के नाम-रूप -गुण-चिन्तनमें ही लगती जाय! आरम्भमें वृत्ति दूसरी और जाती है; पर उसमें यह सावधानी रखनी चाहिए कि वह या तो उधर जाय ही नहीं और यदि जाय तो भगवान् कि सेवाकी भावनासे ही! भगवान् की सेवाकी भावनाके अतिरिक्त दुसरे किसी भी भावसे वृत्तिका जाना निचे स्तरका है!  मन वृत्तियोंका समूह है! वृत्ति जब एक विषयमें जाकर उसके रूपकी हो जाती है, तब उसको 'ध्यान 'कहते हैं !  शरीरका आराम, नामका नाम और जीभका स्वाद-साधकके लिये ये तीन बड़े विघ्न हैं! 

सत्संग-वाटिकाके बिखरे सुमन

माघ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार ( नित्यलीलालीन श्रीभाईजीके पुराने सत्संगसे चयन किये हुए ) मानव-जीवन भगवान् का बननेके लिये प्राप्त हुआ है! हम वास्तवमें भगवान् के हैं, पर हमने अपनेको काम-क्रोध आदिका गुलाम बना रखा है! यही मुर्खता है ! जो भगवान् का बना, उसका जीवन सार्थक; जो जगतका बना, उसका जीवन सार्थक नहीं, निरर्थक!  किसी भी साधनसे हो, किसी भी प्रकारसे हो करना है एक ही काम- भगवान् के चरणोंमें अनुराग! भगवान् के चरणोंमें उत्तरोत्तर अनुराग बढ़ता रहे, इसीमें जीवनकी सार्थकता है ! अतएव भगवान् के प्रति प्रेमकी लालसा जगानी चाहिये! इसके लिये प्रेमस्वरूप भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये और जहाँतक बने, प्रेम प्राप्त करनेके लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिये!  सच्चे मनसे, श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान् से माँगनेपर कोई भी सकंट रह नहीं सकता! प्रार्थनाके समय मनमें यह  भाव होना चाहिये कि 'भगवान् मेरा यह सकंट दूर कर दें' और प्रार्थनामें आर्तभाव होना चाहिये तथा यह विश्ववास होना चाहिये कि 'इस संकटको भगवान् दूर कर ही देंगे'! जो भगवान् से भगवान् का प्रेम ही चाहते हैं, वे तो सर्

प्रभुके चिन्तनमें चित्त रखो

माघ कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, गुरुवार प्रभुके  चिन्तनमें चित्त रखो, उसकी प्रत्येक देनको सिर चढ़ाकर आनंदसे स्वीकार करो, उसकी हरेक आज्ञाका हृदयसे पालन करो और उसपर अनन्य निर्भर होकर माँगनेकी वासनाको ही त्याग दो !  उससे माँगना ही ठगाना है! कारण, वह परम सुहद् भगवान् हमारा जितना हित सोच सकता है, उतना सोचनेके  लिये हमारी बुद्धि कभी समर्थ ही  नहीं है!  एक दिन अवश्य मर जाना है, इस बातको भूलो मत, मृत्युके भयानक दृश्यको याद रखो, मरते हुए मनुष्यके शरीरकी घृणित दशाका स्मरण करो, उसके दुःखसे भरे हुए निराश नेत्रोंकी भयानकताका ध्यान करो, एक दिन तुम्हारी भी यही दशा होनेवाली है !  मृत्युकी भीषणतासे एक बार भय होगा, विषद होगा, जगत् में अन्धकार दिखेगा, निराशा होगी; पर इससे घबराओ मत, यह निराशा ही तुम्हारे परम सुखका कारण होगी, इसीमें तुम परमात्माकी झाँकी कर सकोगे! ' नैराश्यं परमं सुखम् !  भगवान् पर कभी अविश्वास न करो, यह सबसे बड़ा पाप है! भगवान् के नामपर विश्वास रखो! याद रखो, नामके बारेमें संतोंका एक-एक वचन सच्चा है! नामकी शरण लेकर परीक्षा कर देखो! 

सच्चे भक्त

माघ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, बुधवार सच्चे भक्तोंका एकमात्र बल भगवान् का भरोसा ही है! वे पूर्ण निर्भरताके साथ भगवान् के होकर अपना जीवन केवल भगवान् के चिंतनमें ही लगाया करते हैं !  जितना भरोसा बढ़ेगा, उतनी ही भगवत्कृपाकी झाँकी प्रत्येक्ष दिखेगी !  यह याद रखो कि भगवान् के समान सुहद, दयालु, प्रेमी, सुन्दर, ऐश्वर्यवान् और कोई भी नहीं है एवं वह तुम्हारा नित्य साथी है! तुम्हें हृदयसे लगानेके लिए सदा ही हाथ फैलाये तैयार है!  संसारमें जो कुछ देखते हो सो सब उसीका है, उसीका नहीं, वही सब कुछ बना हुआ है! यह जो कुछ हो रहा है सो सब उसीकी लीला है! वह आप ही अपनेमें खेल कर रहा है !  सर्वभावसे उसकी शरण हुए बिना यह रहस्य समझमें नहीं आवेगा ! सब प्रकारके अभिमानको छोड़कर उसकी शरण हो जाओ, उसकी कृपापर दृढ़ भरोसा रखो, सारी चिंताओंको छोड़कर सब कुछ उसके चरणोंपर चढ़ा दो ! 

भगवान् के प्रेमको प्राप्त करना ही मनुष्य-जीवनका मुख्य उदेश्य है

माघ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, मंगलवार १.) सत्संगसे इन्द्रियसंयम और मनकी शुद्धि होती है! अतः कुसंगका त्याग कर सत्संगका सेवन            करो!  २.) वकील और कचहरियोंसे ही झगड़ोंकी जड़ नहीं कटती, झगड़ोंकी जड़ काटनेके लिये तो सबसे                  अधिक जरूरी बात है ईमानदारी ! यदि मनुष्य दूसरेका हक़ मारनेकी इच्छा छोड़ दे तो झगड़ा        हो ही नहीं! ३.) भगवान् के प्रेमको प्राप्त करना ही मनुष्य-जीवनका मुख्य उदेश्य है, इस बातको स्मरण                  रखना चाहिए! भगवत्प्रेमकी  प्राप्ति भगवान् की कृपासे ही होती है, किसी साधनसे नहीं !     ४.) साधनाका अहंकार कभी न रखो, भगवान् के आज्ञानुसार भगवदर्थ भजन-ध्यान करनेमें        प्राणपणसे लगे  रहो; परन्तु अपने हृदयमें साधकपनका अभिमान पैदा न होने दो!  ५.) भगवान् पर दृढ़ विश्वास रखो, तुम्हारे मनमें जितना -जितना भगवान् का विश्वास अधिक                   होगा, तुम उतना ही भगवान् की और आगे बढ़ सकोगे !   
पौष शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, सोमवार मान-बड़ाईके मोलमें धर्मको न दो, मान-बड़ाईको पैरोंतले कुचल डालो, पर धर्मको बचाओ!  धन,मकान,मनुष्य,शरीर आदिके बलपर न इतराओ, यह सारा बल पलभरमें नष्ट हो सकता है, सच्चा बल ईश्वरीय बल है, उसीको अर्जन करो!  जहाँ अस्पताल और वैध -डाक्टर ज्यादा हैं, सामझो की वहाँके मनुष्योंका शारीरिक पतन हो चूका है! जहाँ वकील ज्यादा हों और कचहरीमें भीड़ रहती हो, समझो की वहाँके मनुष्योंकी ईमानदारी प्रायः नष्ट हो चुकी है और जहाँ गन्दा साहित्य बिकता हो, समझो कि वहाँ लोगोंका नैतिक पतन हो चूका है !  केवल दवा और अस्पतालोंसे ही रोगोंका समूल नाश नहीं होता! रोगोंका समूल  नाश तो इन्द्रियसंयम और मनकी सुद्धि होनेपर होता है! इन्द्रियसंयम और मनः सुद्धि ऐसी दवा है कि इनसे शारीरिक स्वास्थ्य तो मिलता ही है, पारमार्थिक स्वास्थ्यकी भी प्राप्ति होती है! अतः इन्द्रियोंको वशमें करने और मनको सुद्ध बनानेका निरंतर प्रयत्न करते रहो!   
सुख तुम्हारे मनमें है न कि किसी कार्य या वस्तुविशेषमें, चित्त शान्त है तो सुख है, नहीं तो दुःख -ही-दुःख है! चित्तकी शान्तिके लिये जगतकी कामनाओंका त्याग जरूरी है!  जो कुछ भी कार्य करो, भगवान् की सेवा समझकर उन्हींके लिये करो, दयानिधान  प्रभुकी अपने ऊपर परम कृपा समझो, उनकी कृपा पर पूर्ण विश्वास रखो और तुम्हारे कार्य का जो कुछ भी परिणाम हो, उसे मंगलमय भगवान् की इच्छा समझकर आनंदसे सिर चढ़ाओ ! जीवन बिता जा रहा है, हम पल-पलमें मृत्युकी और बढ़ रहे हैं,बहुत ही जल्दी जीवन ख़त्म होगा, यह समझकर अगली यात्राके लिये यहाँका काम निपटाकर सदा कमर कसे तैयार रहो! जगतकी आसक्ति सर्वथा त्यागकर परमात्मासे मिलनेकी तीव्र इच्छा करना ही कमर कसकर तैयार होना है!  जगतमें नाटकके पात्रकी तरह रहो, अपना पार्ट पूरा करनेमें कभी चुको मत और किसी भी पदार्थको कभी अपना समझो मत! पार्ट करनेमें चूकना नमकहरामी और किसीको अपना मानना बेईमानी है! समझो नाटक, परन्तु लोकदृष्टिमें अभिनय करो सत्य-सा समझकर ही!   
पौष शुक्ल पुत्रदा एकादशी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार भोगोंमें वैराग्य करो, वैराग्यके  लिये चार बातें आवश्यक हैं --- जगतमें रमणीयता, सुख, स्नेह और सत्ताका त्याग! परमात्मामें राग करो, उसमें ये चारों बातें पूर्ण हैं, इनका अनुभव करो !  कुसंगसे सदा बचना चाहिये और सत्संगका आश्रय लेना चाहिये ! विषयी पुरुषोंका संग तो बहुत ही हानिकर है! चेतनकी तो बात ही क्या है, मनको लुभानेवाली और इन्द्रियोंको आकर्षित करनेवाली जड़ भोग्य वस्तुओंका संग भी त्याज्य है !  ईश्वरके विरोधकी बात कभी भूलकर भी न कहनी चाहिये, न सुननी चाहिये, यह सबसे बड़ा अपराध है!  मनसे राग-द्वेषको निकालकर अनासक्तभावसे इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका भोग करना चाहिये, न कि राग-द्वेषयुक्त होकर तथा इन्द्रियोंके गुलाम बनकर, इन्द्रियोंको गुलाम बनाकर उनसे काम लो! उनके गुलाम बनकर उनके कहनेमें न चलो!  साधकके लिये सबसे बड़ा प्रतिबन्धक कीर्तिकी चाह है ! धन और स्त्रीका छोड़ना सहज है; परन्तु कीर्तिका लोभ छोड़ना बहुत ही मुश्किल है !