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अगस्त, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नि:स्वार्थ प्रेम और सच्चरित्रता की महिमा

                   संसार का मिलना बिछुड़ने के लिए ही हुआ करता है l जहाँ राग होता है, वहां विछोह में दुःख और स्मृति में सुख-सा प्रतीत होता है l जहाँ द्वेष होता है, वहां विछोह में सुख और स्मृति में दुःख होता है l राग-द्वेष से परे नि:स्वार्थ प्रेम की एक स्थिति होती है, वहां माधुर्य-ही-माधुर्य है  l  स्वार्थ ही विष और त्याग ही अमृत है l जिस प्रेम  में जितना स्वार्थ-त्याग होता है, उतना ही उसका स्वरुप उज्जवल होता है l प्रेम का वास्तविक  स्वरुप तो त्यागपूर्ण है, उसमें तो केवल प्रेमास्पद का सुख-ही-सुख है l अपने सुख की तो स्मृति ही नहीं है l                     धन कमाने में उन्नति हो यह तो व्यवहारिक दृष्टि से वांछनीय है ही l  परन्तु जीवन का उद्धेश्य यही नहीं है l जीवन का असली उद्धेश्य महान चरित्रबल को प्राप्त करना है, जिससे भगवत्प्राप्ति का मार्ग सुगम होता है l  धन, यश, पद, गौरव, मान, संतान - सब कुछ हो, परन्तु यदि मनुष्य में सच्चरित्रता नहीं है, तो वह वस्तुत:मनुष्यत्वहीन है l सच्चरित्रता ही मनुष्यत्व है l                     धन कमाने की इच्छा ऐसी प्रबल और मोहमयी न होनी चाहिए जिससे न्याय और स

जीवन की सार्थकता

काम , क्रोध , लोभ , मोह और प्रमाद आदि का नाश भगवत्कृपा से भगवान् पर पूर्ण विश्वास होने पर ही होता है l इस से पहले वे किसी - न - किसी रूप में रहते ही हैं l श्रीभगवान के नाम का जप जैसे बने , वैसे ही करते रहिये l करते - करते नाम के प्रताप से विश्वास बढेगा , न घबराइयेगा , न इससे हार मानियेगा l भगवान् का आश्रय चाहनेवाला तो इनका नाश करके ही दम लेता है l इनके नाश का उपाय बस भगवद्विश्वास है - जो भजन से प्राप्त होता है l मैं तो तुच्छ प्राणी हूँ l आप विश्वास कीजिये , श्रीभगवान हम सभी के सुहृद हैं और वे सर्वज्ञ हैं , इसलिए हमारी स्थिति से पूरे जानकर भी हैं तथा इसी के साथ वे सर्वशक्तिमान भी हैं l बस , उन पर विश्वास कीजिये l फिर निश्चय ही परम कल्याण होगा , और आपको सच्ची सुख - शान्ति मिल जाएगी l साधन - बल से कुछ नहीं होना है - यह मान लिया सो ठीक है l साधन का बल रखिये भी मत l बल रखिये भगवत्कृपा का l क्या छोटे बच्चे को माँ के आश्रय के सिवा और कोई बल होता है ? अहाहा ! भगवान् रुपी माँ सदा अपना अंचल फैलाये हमें गोद लेने को तैयार है l हम नहीं , वे ही हमारे लिए सतृष्ण नयनों से बाट देख रही हैं l बस ,

विपत्ति और निन्दा से लाभ

                     सचमुच  विपत्ति में ही मनुष्य के धैर्य और धर्म का पता लगता है; परन्तु यह विश्वास रखिये, जिनका जीवन केवल आराम से ही बीतता है उनके लिए जीवन में पूर्ण विकास और पूर्ण परिणति बहुत कठिन हो जाती है l  वे न तो अपने को भलीभांति परख - पहचान सकते हैं और न दूसरे की यथार्थ स्थिति का ही अनुभव कर सकते हैं l इसी से बुद्धिमान लोग विपत्ति से घबराते नहीं l वे जानते हैं कि जो लोग 'हाँ हजूर' कहनेवाले खुशामदियों और तारीफ के पुल बांधनेवाले स्वार्थियों से घिरे रहकर इन्द्रिय सुखभोग के आराम में लगे रहते हैं, वे भगवत्कृपा के परम लाभ से प्राय: वंचित ही रहते हैं l विपत्ति में धीरज न छोड़कर उसे भगवान् के दें मानकर सम्पत्ति के रूप में परिणत कर लेना चाहिए l फिर विपत्ति का दुःख मिटते देर न लगेगी l                         यही बात निन्दा करने वाले भाइयों के सम्बन्ध में समझिये l आप यह माने कि आपकी जितनी भी निन्दा होती है, उतने ही आपके पातक घुलते हैं l निन्दा करनेवाले तो बिना पैसे के धोबी हैं, हमारे अन्दर जरा भी मैल नहीं रहने देना चाहते l हमारे पाप धोने जाकर जो स्वाभाविक ही हमारे पाप का हि

धन का सदुपयोग

अब आगे.........                           सन्तों  की इस उक्ति को याद रखना चाहिए l नीचे लिखी सात बातें सदा याद रखने की हैं  -               १- नौकर और मजदूरों को अपने से नीचा समझकर उनका अपमान न करें l उनको अपने धन का हिस्सेदार समझें और जहांतक हो उन्हें इतनी मजदूरी  दें जिससे उनके बाल-बच्चों को अन्न-वस्त्र का कभी अभाव न हो l  विपत्ति, रोग और अभाव के समय सहानुभूतिपूर्ण ह्रदय से उनकी विशेष सेवा करें l                २- हो सके तो सब में भगवद बुद्धि  करके भगवत्सेवा के भाव से सबके साथ यथायोग्य बर्ताव करते हुए उनकी सेवा करें  l                ३- दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव करें, जैसा दूसरों से हम अपने प्रति चाहते हैं l                ४- सब में आत्मभाव रखकर यथासाध्य दूसरों के दुखों को अपना दुःख समझकर उनका दुःख दूर करने के चेष्टा करें l                ५- सन्तों  का तो यह स्वभाव होता है कि वे अपने दुःख की तो परवा नहीं करते, परन्तु दूसरों के दुःख और अध्:पतन से असह्य पीड़ा का अनुभव करते हैं l सन्तों के इस आदर्श पर बराबर विचार करें l                 ६- मरने के बाद धन यहीं रह जायेगा

धन का सदुपयोग

अब आगे........ .               आपको यही मानना चाहिए कि आपने उसका हक़ ही उसको दिया है l वह उपकार मानकर कृतज्ञ हो तो यह उसका कर्त्तव्य है, परन्तु आपको तो यही मानना चाहिए कि मैंने उसका कोई उपकार नहीं किया है l वस्तुत: किसी को आप कुछ देते हैं तो आपका ही उपकार होता है l               १- भगवान् की चीज़ भगवान् की सेवा में लगी, आप बेईमानी से बचे और भगवान् के दरबार में ईमानदारी का इनाम पाने के अधिकारी हो गए l               २-धन का सदुपयोग हुआ तो आपकी सदगति में कारण है - धन की तीन गति होती हैं - दान, भोग और नाश l आपका कमाया हुआ धन आपके या दूसरे किसी के द्वारा बुरे काम में लगता तो आपको दुर्गति भोगनी पड़ती l               ३- दान से आपकी कीर्ति हुई, उसका और उसके परिवार का आशीर्वाद मिला l किसी को उचित वेतन या हिस्सा देकर रखा तो आपके व्यापार क काम ठीक चला, जिससे आपको लाभ पहुँचा l अच्छे आदमियों से आपकी प्रीति और मैत्री हुई तो समय पर विपत्ति में आपकी सहायता देनेवाली होगी l                ४- आपको तृप्ति हुई, जिससे आनन्द प्राप्त हुआ l इस प्रकार वस्तुत: आपको ही उपकार हुआ l                 '

धन का सदुपयोग

           भगवान् ने आपको जो कुछ दिया है, वह आपका नहीं है, भगवान् का है l आप उसके स्वामी नहीं है, आप तो उसकी रक्षा, व्यवस्था और भगवदाज्ञानुसार भगवदर्थ खर्च करनेवाले सेवक मात्र  हैं l इस धन को बड़ी दक्षता के साथ भगवान् की सेवा में लगाना चाहिए l दक्षता यही कि दान करते समय परिवार के लोगों को न भूल जाएँ, धूर्तों के द्वारा ठगे न जाएँ और योग्य पात्र  कभी विमुख न लौटें l यह तो उनका सौभाग्य है जो उन्हें भगवान् की चीज़ भगवान् की  सेवा में लगाने का सुअवसर मिल रहा है l अतएव आपके पास जब कोई अभाव युक्त बहिन-भाई सहायता के लिए आवें, तब आपको ह्रदय से उनका स्वागत करना चाहिए, और उचित जाँच के बाद यदि वे आपको योग्य पात्र जान पड़े तो उनकी यथायोग्य सेवा करके अपने को धन्य मानना चाहिए और आनन्द मनाना चाहिए इस बात का कि आप भगवान् की वस्तु के द्वारा भगवान् की  सेवा होने में 'निमित्त'  बन रहे हैं l             आपके द्वारा जिनकी सेवा हो, उनपर कभी अहसान नहीं जताना चाहिए l न यही मानना चाहिए कि वे आपसे निम्न-श्रेणी के हैं l धन न होने से वस्तुत: कोई नीचा नहीं हो जाता l  नीचा मानने वाले ही नीचे होते हैं l

धन का सदुपयोग

           भगवान् ने आपको जो कुछ दिया है, वह आपका नहीं है, भगवान् का है l आप उसके स्वामी नहीं है, आप तो उसकी रक्षा, व्यवस्था और भगवदाज्ञानुसार भगवदर्थ खर्च करनेवाले सेवक मात्र  हैं l इस धन को बड़ी दक्षता के साथ भगवान् की सेवा में लगाना चाहिए l दक्षता यही कि दान करते समय परिवार के लोगों को न भूल जाएँ, धूर्तों के द्वारा ठगे न जाएँ और योग्य पात्र  कभी विमुख न लौटें l यह तो उनका सौभाग्य है जो उन्हें भगवान् की चीज़ भगवान् की  सेवा में लगाने का सुअवसर मिल रहा है l अतएव आपके पास जब कोई अभाव युक्त बहिन-भाई सहायता के लिए आवें, तब आपको ह्रदय से उनका स्वागत करना चाहिए, और उचित जाँच के बाद यदि वे आपको योग्य पात्र जान पड़े तो उनकी यथायोग्य सेवा करके अपने को धन्य मानना चाहिए और आनन्द मनाना चाहिए इस बात का कि आप भगवान् की वस्तु के द्वारा भगवान् की  सेवा होने में 'निमित्त'  बन रहे हैं l             आपके द्वारा जिनकी सेवा हो, उनपर कभी अहसान नहीं जताना चाहिए l न यही मानना चाहिए कि वे आपसे निम्न-श्रेणी के हैं l धन न होने से वस्तुत: कोई नीचा नहीं हो जाता l  नीचा मानने वाले ही नीचे होते हैं l

भगवान् की चाह

            न तो घर छोड़ने से ही भगवत्प्राप्ति होती है और न घर में फँसे रहने से ही l भगवत्प्राप्ति होती है - भगवान् को पाने की तीव्र आकांक्षा  से प्रेरित होकर की जाने वाली अखंड साधना से l इस साधना से पहले आवश्यकता है भगवान् की चाह होनी l   चाह इतनी बढे कि उसके सामने अन्य सारी इच्छाएं दब जाएँ - मर जाएँ l किसी भी वस्तु में मन न लगे - दिल न अटके l फिर चाहे घर में रहें या घर से बाहर l कहीं रहा जाये, जब तक शरीर है तब तक शरीर से कुछ-न-कुछ करना ही पड़ेगा l ऐसी निपुणता के साथ  कि किसी को जरा भी असंतोष न हो l पिता समझे ऐसा सुपुत्र किसी के नहीं है, माता समझे मेरा बेटा सब से बढ़कर सुपूत है l भाई समझे कि यह तो राम या भरत-सा भाई है; स्त्री समझे कि ऐसा स्वामी मुझे बड़े पुण्य से मिला है l स्वामी समझे - ऐसी पतिव्रता साध्वी स्त्री तो बस एक यही है l इसी प्रकार हमारे व्यवहार से - जिनसे भी हमारा काम पड़े छोटे-बड़े -सभी संतुष्ट और परितृप्त हों, सभी हमसे अमृत लाभ करें l परन्तु हमारी दृष्टि सदा अपने लक्ष्य पर लगी रहे l हमारा सोना-जागना, खाना-पीना, कहना-सुनना, लेना-देना, रोना-हँसना सभी हो केवल भगवान् के ल

धनवानों का कर्त्तव्य

             भारत में अभी ऐसे बहुत-से पुरुष हैं जो बहुत सुख से खाते-पीते हैं और चाहें तो बहुतों के पेट की ज्वाला मिटा सकते हैं l खाने के पदार्थ भी - अन्न , चारा-घास इत्यादि भी कीमत देने पर काफी परिमाण में मिल सकते हैं l ऐसा होते हुए भी आज लाखों प्राणी अन्न और चारे-दाने बिना मरे जाते हैं , यह बहुत ही खेद की बात है l मैं आपको सच लिख रहा हूँ , जब खाने बैठता हूँ और अपने सामने थाली में घी से चुपड़ी हुई रोटियां तथा कई  तरह की तरकारियाँ देखता हूँ और सोने  के समय जब रुई की गद्दी पर सिर के नीचे तकिया लगाकर रजाई ओढ़कर सोना चाहता हूँ तब प्राय: उन कन्कालमात्र  नंगे , भूखे , अपने ही जैसे नर-नारियों के चित्र आँखों के सामने आ जाते हैं l भगवान् के राज्य में सब न्याय ही होता है परन्तु अपनी ये सुख की सामग्रियां तो वस्तुत: बहुत ही दुःख देने वाली वस्तु मालूम होती है l यह है तो बड़े दुःख की बात कि एक देश के - एक ही घर में दस भाई-बहनों में आठ-नौ नंगे , भूखे रहें और दो-एक पेट भर खाकर सुख कि नींद सोयें l मैं  उन सभी भाइयों से , जो कुछ संपन्न हैं , कम-से-कम जो अपने तथा अपने बाल-बच्चों का अच्छी तरह भरण-पोष

विषयों में सुख नहीं है

          मौत के मुँह में पड़े हुए मनुष्य का भोगों की तृष्णा रखना वैसा ही है जैसा कालसर्प के मुँह में पड़े हुए मेंढक का मच्छरों की ओर झपटना l पता नहीं कब मौत आ जाये l इसलिए भोगों से मन हटाकर दिन-रात भगवान् में मन लगाना चाहिए l जब तक स्वास्थ्य अच्छा है तभी तक भजन में आसानी से मन लगाया जा सकता है l अस्वस्थ होने पर बिना अभ्यास के भगवान् का स्मरण होना भी कठिन हो जायेगा l इसी से भक्त प्रार्थना करता है  -            ' श्रीकृष्ण ! मेरा यह मनरूपी राजहंस तुम्हारे चरणकमल रुपी पिंजरे में आज ही प्रवेश कर जाये l प्राण निकलते समय जब कफ-वात-पित्त से कंठ रुक जायेगा , इन्द्रियां अशक्त हो जाएँगी तब स्मरण तो दूर रहा , तुम्हारा नामोच्चारण भी नहीं हो सकेगा   l ' अतएव अभी से मन को भगवान् में लगाना और जीभ से उनके नाम का जप आरम्भ कर देना चाहिए l             धन-ऐश्वर्य , कुटुम्ब-परिवार सभी क्षणभंगुर हैं l इनकी प्राप्ति में सुख तो है ही नहीं वरं दुःख ही बढ़ता है l संसार में ऐसा कोई भी विचारशील पुरुष नहीं है जो विवेक-बुद्धि से यह कह सकता हो कि इनमें से किसी से भी उसे कोई सुख मिला है l यहाँ कि प्र

श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुल प्रवेश

            भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि माता-पिता को मेरे ऐश्वर्य का , मेरे भगवद्भाव का ज्ञान हो गया है , परन्तु उन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं , ऐसा सोचकर वे अपने माँ-बाप के पास जाकर आदरपूर्वक और विनय से झुककर उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे - ' पिताजी ! माताजी ! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिए सर्वदा उत्कंठित रहे हैं , फिर भी आप हमारे बाल्य , पौगंड और किशोर अवस्था का सुख हम से नहीं पा सके l दुर्देववश हम लोगों को आपके पास रहने का सौभाग्य  ही नहीं मिला l पिता और माता ही इस शरीर को जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं l   तब कहीं जाकर यह शरीर , धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष कि प्राप्ति का साधन बनता है l यदि कोई मनुष्य सौ वर्ष तक जीकर माता और पिता कि सेवा करता रहे , तब भी वह उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता l   जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बाप कि शरीर और धन से सेवा नहीं करता , उसके मरने पर यमदूत उसे उसके अपने शरीर का मांस खिलाते हैं l जो पुरुष समर्थ हो कर भी बूढ़े माता-पिता , सती पत्नी , बालक , संतान , गुरु , ब्राह्मण , और शरणागत का भरण-पोषण नहीं करता - वह जीता हुआ भी म

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं -

  १९ भगवन् ! मुझे निरन्तर तुम्हारी संनिधि का अनुभव होता रहे,तुम्हारी संरक्षता की अनुभूति होती रहे । तुम्हारे दिव्य प्रेम, समता, अभय , तेज, बल, शक्ति, साहस , और धैर्य आदि दिव्य गुणों   का प्रकाश तुम्हारी कृपा से निरन्तर बना रहे ।  २० भगवन् ! मन में किसी के लिए भी न कभी अमंगल –कामना जगे, न मेरे द्वारा किसी का अमंगल हो, न किसी के अमंगल मेरे मन में कभी प्रसन्नता हो | दूसरों के दु:खों को कभी मैं अपने लिए सुख न मान सकूँ और मेरे सुख दूसरों के दु:खों का स्थान लेते रहें । २१ भगवन् ! जीवन में मुझे अपने पूर्व-कर्मवश जो कुछ भी दुःख-संकट-विपत्ति प्राप्त हों, उनमें सदा-सर्वदा मैं तुम्हारा मंगलमय स्पर्श प्राप्त करके सुखी रहूँ और प्रत्येक परिस्थिति में मन तुम्हारा कृतज्ञ बना रहे । २२ भगवन् ! मैं जगत को सदा-सर्वदा तुम्हारे सौन्दर्य –माधुर्य से भरा देखूं । सूर्य की प्रखर किरणों में तुम्हारा प्रकाश , चन्द्रमा की शीतल ज्योत्स्ना में तुम्हारी सुधामयी आभा, प्रस्फुटित पुष्पों की मधुर सुगंध में तुम्हारा अंग-सौरभ और शिशु मृदु मधुर हँसी में तुम्हारी मुसकराहट देखकर प्रसन्न-प्रमुदित होता रहूँ । २३ भगवन् ! इ

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं –

  १३ भगवन् ! स्वास्थ्य , धन-सम्पति , पद-अधिकार , यश . कीर्ति , परिवार , संतान , लोक – परलोक , आदि आदि किसी भी वस्तु या स्थिति में मेरा ममत्व कभी न जागे । कोई भी वास्तु मिली हुयी हो तो उसे तुम्हारी समझकर उसकी एक ईमानदार और विश्वासी सेवक या स्वामी के द्वारा नियुक्त व्यवस्थापक की भांति देख-रेख करूँ और तुम्हारे इच्छानुसार ही तुम्हारी सेवा में ही उसका उपयोग करूँ , अपनी समझकर दान-भोग नहीं और इन सबके संग्रह-संचय में मोहवस कभी भी तुम्हारी और तुम्हारे तत्वज्ञ ऋषि-मुनियों की शास्त्र-वाणी के विरुद्ध कोई विचार या क्रिया कभी न हो । १४ भगवन् ! किसी भी वास्तु का उपार्जन और संरक्षण केवल तुम्हारी सेवा के लिए ही जो , भोग के लिए कदापि नहीं । तुम्हारे प्रसाद रूप में मैं अपने लिए उतनी ही वस्तु का उपयोग करूँ , जो जीवन निर्वाह के लिए न्यून-से-न्यून रूप से आवश्यक हो ।   १५ भगवन् ! किसी भी वस्तु पर मैं कभी अपना अधिकार न मानूँ । तुम्हारी दी हुयी वस्तु को तुम्हारी आज्ञानुसार तुम्हारी सेवा में लगाने के लिए ही उसकी देख-भाल करता रहूँ और निरभिमान रहकर तुम्हारी सेवा में यथायोग्य लगता रहूँ । १६ भगवन् ! तुम्हारे प्र

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं –

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं – ७ भगवन् ! मेरे संकट – दु:खसे किसी भी दु:खी संकटग्रस्त प्राणीका दुःख – संकट दूर होता हो तो मुझे बार बार दुःख – संकट दिए जाये और उन्हें प्रसन्नतापूर्वक वरण करने की शक्ति दी जाय । किसी भी प्राणी की किसी भी प्रकार की सेवा करने का मुझे सौभाग्य और सुअवसर मिल जाय मैं अपने को धन्य समझूँ और तुम्हारे दिये हुए प्रत्येक साधन से तुम्हारी ही सेवा की भावनासे उनकी सेवा करूँ । पर मन में तनिक भी अभिमान न उत्पन्न हो , वरन् यह अनुभूति हो कि तुमने अपनी ही वस्तु स्वीकार करके मुझपर बड़ा अनुग्रह किया । ८ भगवन् ! तुम्हारे विशुद्ध प्रेम के अतिरिक्त मेरे मन में अन्य किसी वास्तु अथवा स्थिति को प्राप्त करनेकी कभी कामना ही न उत्पन्न हो और मैं तुम्हारे अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु अथवा प्राणी में आसक्त न होऊं । ९ भगवन् ! मेरे जीवन में केवल तुमको प्रसन्न करनेवाले भाव , विचार और कार्यों का ही समावेश हो | क्षणभर के लिए भी बुद्धि , चित , मन और इन्द्रियों द्वारा अन्य किसी भाव , विचार और क्रिया की सम्भावना ही न रहे । १० भगवन् ! मेरा मन नित्य-निरंतर तुम्हारे मधुर मनोहर स्वरुप

पुरुषोत्तम मास के नियम

पुरुषोत्तम मास के नियम - पुरुषोत्तम मास का दूसरा नाम मल मास है | ‘ मल ’ कहते हैं पाप को और ‘ पुरुषोत्तम ’ नाम है भगवान् का | इसलिए हमें इसका अर्थ यों लगाना चाहिए की पापों को छोडकर भगवान पुरुषोत्तम में प्रेम करें और वो ऐसा करें की इस एक महीने का प्रेम अनंत कालके लिए चिरस्थायी हो जाए | भगवान में प्रेम करना ही तो जीवन का परम - पुरुषार्थ है , इसी केलिए तो हमें दुर्लभ मनुष्य जीवन और सदसद्विवेक प्राप्त हुआ है | हमारे ऋषियों ने पर्वों और शुभ दिनों की रचना कर उस विवेक को निरंतर जागृत रखने के लिए सुलभ साधन बना दिया है , इसपर भी यदि हम ना चेतें तो हमारी बड़ी भूल है | इस पुरुषोत्तम मास में परमात्मा का प्रेम प्राप्त करनेके लिए यदि सबही नर-नारी निम्नलिखित नियमों को महीनेभर तक सावधानी के साथ पालें तो उन्हें बहुत कुछ लाभ होने की संभावना है | १. प्रात:काल सूर्योदय से पहले उठें | २. गीताजी के पुरुषोत्तम-योग नामक १५ वे अध्याय का प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक पाठ करें | श्रीमद भागवत का पाठ करें , सुनें | संस्कृत के श्लोक ना पढ़ सकें तो अर्थों का ही पाठ करलें | ३. स्त्री-पुरुष दोनों एक मतसे महीनेभर तक ब्रह्म

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं –

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं – १ भगवन ! तुम्हारा मंगलमय संकल्प पूर्ण हो | २ भगवन! तुम्हारी मंगलमयी चाह पूर्ण हो | मेरे मनमे कोई चाह उत्पन्न ही न हो , हो तो तुम्हारी चाह के अनुकूल हो | तुम्हारी चाह के अतिरिक्त और कोई चाह कभी उत्पन्न ही न हो | कदाचित तुम्हारी चाह के प्रतिकूल कोई चाह उत्पन्न हो तो उसे कभी पूरा न करना | ३ भगवन् ! समस्त चर-अचर प्राणियों में मैं सदा तुम्हारा दर्शन कर सकूँ और तुम्हारी दी हुयी प्रत्येक सामग्री से और शक्ति से यथासाध्य सबकी सेवा कर सकूँ |  ४ भगवन् !अखिल विश्व – ब्रह्माण्ड के मंगल में ही मुझे अपना मंगल दिखाई दे | मेरे मन में कोई भी इसी मंगल कामना न हो , जो किसी भी प्राणी के मंगल से विरुद्ध हो |  ५ भगवन् ! मेरा ‘ स्व ’ असीम रूप से अखिल विश्व में विस्तृत हो जाय | अखिल विश्व का 'स्वार्थ' ही मेरा 'स्वार्थ' हो | मेरा कोई भी स्वार्थ ऐसा न हो , जो अखिल विश्व के किसी भी प्राणी के स्वार्थका बाधक हो और साधक न हो |  ६ भगवन् ! मेरे जीवन का प्रत्येक श्वास तुम्हारी मंगलमयी स्मृति में सना रहे   और मेरी प्रत्येक चेष्ठा केवल तुम्हार