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जुलाई, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -९-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग श्रावण कृष्ण, नवमी, बुधवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे....जिन बेचारों के पेट पूरे नहीं भरते, उनके लिए तो कदाचित रात-दिन मजदूरी में लगे रहना और अधिक-से-अधिक कार्य का विस्तार करना क्षम्य भी हो सकता है; परन्तु जो सीधे या प्रकारांतर से धन की प्राप्ति के लिए ही कार्यों को बढ़ाते है; वे तो मेरी तुच्छ बुद्धि में भूल ही करते है | निष्काम भाव से करने की इच्छा रखने वाले पुरुष भी जब अधिक कार्यों में व्यस्त हो जाते है , तब प्राय निस्कामभाव चला जाता है और कहीं-कहीं तो ऐसी परिस्थति उत्पन्न हो जाती है, जिसमे बाध्य होकर सकाम भव का आश्रय लेना पड़ता है | अतएव जहाँ तक बने, साधक पुरुष को संसारिक कार्य उतने ही करने चाहिये, जितने में गृहस्थी का खर्च सादगी से चल जाये, प्रतिदिन नियमित रूप से भजन-सधन को समय मिल सके, चित न अशान्त हो और न निक्कमेपन के कारण प्रमाद या आलस्य को ही अवसर मिले, कर्तव्य-पालन की तत्परता बनी रहे और मनुष्य-जीवन के मुख्य ध्येय ‘भगवत्प्राप्ति’ का कभी भूलकर भी विस्मरण न हो | विघ्न और भी बहुत से है, पर प्रधान-प्रधान विघ्नों में ये आठ ब

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -८-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग श्रावण कृष्ण, अष्टमी, मंगलवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे....सांसारिक कार्यों की अधिकता-मनुष्य के घर, संसार के, आजीविका के-यहाँ तक की परोपकार तक के कार्य उसी हद तक करने चाहिये, जिसमे विश्राम करने तथा दूसरी आवश्यक बाते सोचने के लिए पर्याप्त समय मिल जाये | जो मनुष्य सुबह से लेकर रात को सोने तक काम में ही लगे रहते है, उनको जब विश्राम करने की फुरसत नही मिलती, तब घंटे दो घंटे स्वाध्याय करने की फुरसत करने अथवा   मन लगा कर भगवचिन्न्तन करने को तो अवकाश मिलना सम्भव ही कैसे हो सकता है | उनका सारा दिन हाय-हाय करता बीतता है, मुश्किल से नहाने-खाने को समय मिलता है | वे उन्हीं कामों की चिन्ता करते करते सो जाते है, जिससे स्वप्न में भी उन्हें वैसी ही सृष्टी में विचरण करना पडता है | असल में तो सांसारिक पदार्थों के अधिक संग्रह करने की इच्छा ही दूषित है | दान के तथा परोपकार के लिए भी धन-संग्रह करने वालों की मानसिक दयनीय दुर्दशा के द्रश्य प्रयत्क्ष देखे जाते है, फिर भोग के लिए अर्थसंचय करनेवालों के दुःख भोगने में तो आश्चर्य ही क्या है | परन्तु धन-संच

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -७-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग श्रावण कृष्ण, सप्तमी, सोमवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे....बाहरी दिखावा-साधन में ‘दिखावे’ की भावना बहुत बुरी है | वस्त्र, भोजन और आश्रम आदि बातों में मनुष्य पहले तो संयम के भाव से कार्य करता है; परन्तु पीछे उसमे प्राय: ‘दिखावे’ का भाव आ जाता है | इसके अतिरिक्त, ‘ऐसा सुन्दर आश्रम बने, जिसे देखते ही लोगों का मन मोहित हो जाये, भोजन में इतनी सादगी हो की देखते ही लोग आकर्षित हो जाँए, वस्त्र इस ढंग से पहने जाए की लोगों के मन उसको देख कर खीच जायँ’ ऐसे भावों से ये भी कार्य होते है | यदपि यह दीखावटी भाव सुन्दर और असुन्दर दोनों ही प्रकार के चाल-चलन और वेश भूषा में रह सकता है | बढ़िया पहने वालों में स्वाभाविकता हो सकती है और मोटा खदर, या गेरुआ अथवा बिगाड़कर कपडे पहनने वालों में ‘दिखावे’ का भाव रह सकता है | इसका सम्बन्ध ऊपर की क्रिया से नहीं है, मन से है | तथापि अधिकतर सुन्दर दीखाने की भावना ही रहती है | लोक में जो फैशन सुन्दर समझी जाती है, उसी का अनुकरण करने की चेष्टा प्राय हुआ करती है | अन्दर सच्चाई होने पर भी ‘दिखावे’ की चेष्टा साधक को गिर

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -६-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग श्रावण कृष्ण, षष्ठी, रविवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे....गुरुपन-साधन अवस्था में मनुष्य के लिए गुरुभाव को प्राप्त हो जाना बहुत ही हानिकारक है | ऐसी अवस्था में, जब वह ही सिद्धावस्था को प्राप्त नहीं होता, जब उसी का साधन पथ रुख जाता है, तब वह दूसरों को कैसे पार पहुचायेगा ! ऐसे ही कच्चे गुरुओं के सम्बन्ध में यह कहा जाता है-जैसे अन्धा अन्धों की लकड़ी पकड़कर अपने सहित सबको गड्ढे में डाल देता है, वैसी ही दशा इनकी होती है | परमार्थ पथ में गुरु बनने का अधिकार उसी को है, जो सिद्धावस्था को प्राप्त कर चुका हो | जो स्वयं लक्ष्य तक नहीं पंहुचा है, वह यदि दूसरों को पहुचाने का ठेका लेने लगता है तो उसका परिणाम प्राय: बुरा ही होता है | शिष्यों में से कोई सेवा करता है तो उस प उसका मोह हो जाता है | कोई प्रतिकूल होता है तो उस पर क्रोध आता है | सेवक के विरोधी से द्वेष होता है | दलबंदी हो जाती है | जीवन बहिर्मुख होकर भाँती-भांति के झंझटों में लग जाता है | साधन छुट जाता है |उपदेश और दीक्षा देना ही जीवन का व्यापार बन जाता है | राग-द्वेष बढ़ते रहते हैं और अ

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -५-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग श्रावण कृष्ण, पन्चमी, शनिवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे....मान-बड़ाई-यह बड़ी मीठी छुरी है या विषभरा सोने का घड़ा है | देखने में बहुत ही मनोहर लगता है, परन्तु साधन-जीवन को नष्ट करते इसे देर नहीं लगती | संसार के बहुत बड़े-बड़े पुरुषों के बहुत बड़े-बड़े कार्य मान-बड़ाई के मोल पर बिक जाते है | असली फल उत्पन्न करने से पहले से ही वे सब मान-बड़ाई के प्रवाह में बह जाते है | मान की अपेक्षा भी बड़ाई अधिक प्रिय मालूम होती है | बड़ाई पाने के लिए मनुष्य मान का त्याग कर देता है ; लोग प्रशंसा करे, इसके लिए मान छोड़ कर सबसे नीचे बैठते और मानपत्र आदि का त्याग करते लोग देखे जाते है | बड़ाई मीठी लगी की साधन-पथ से पतन हुआ | आगे चलकर तो उसके सभी काम बड़ाई के लिए ही होते है | जब तक साधन से बड़ाई होती है, तब तक वह साधक का भेष रखता है | जहाँ किसी कारण से परमार्थ-साधन में रहने वाले मनुष्य की निन्दा होने लगती है, वहीँ वह उसे छोड़ कर जिस कार्य में बड़ाई होती है, उसी में लग जाता है; क्योकि अब उसे बड़ाई से ही काम है, भगवान से नहीं | अतएव मान-बड़ाई की इच्छा का सर्वथा त्याग करना

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -४-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग श्रावण कृष्ण, चतुर्थी, शुक्रवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे....प्रसिद्धि –संसार में ख्याति साधन-मार्ग का एक बड़ा विघ्न है | इसी से संतों ने भगवत्प्रेम को ही गुप्त रखने की आज्ञा दी है, जैसे भले घर की कुलटा स्त्री जार के अनुराग को छिपाकर रखती है | साधक की प्रसिद्धि होते है चारों और से लोग उसे घेर लेते है | साधन के लिए उसे समय मिलना कठिन हो जाता हैं | उसका अधिक समय सैकड़ो-हजारों आदमिओं से बातचीत करने और पत्र-व्यवहार में बीतने लगता है | जीवन की अंतर्मुखी वृति बहिर्मुखी हो जाता है | वह बहार के कामों में लग जाता है और क्रमश: गिरने लगता है | परन्तु प्रसिद्धि में प्रिय भाव उत्पन्न हो जाने के कारण उसे वह सदा बढ़ाना चाहता है और यों दिनों-दिन अधिकाधिक लोगों से परिचय प्राप्त कर लेता है | फिर उसका असली साधक का रूप तो रहता नहीं, वर्म प्रसिद्धि कायम रखने के लिए वह दम्भ्ह आरम्भ कर देता है |   और वैसे ही रात-दिन जलता और नये-नये ढोंग रचता है, जैसे निर्धन मनुष्य धनी काहाने पर अपने उस झूठे दीखाऊ धनीपन को कायम रखने के लिए अन्दर-ही-अन्दर जलता और जाल रचता

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -३-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग श्रावण कृष्ण, तृतीया, गुरूवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे....वह कभी भगवान से प्रार्थना भी करता है तो यही की ‘हे भगवान् ! मेरे मन में आपको प्राप्त करने की इच्छा है ; परन्तु मेरे शौक के समान सदा बने रहे, मुझे नये-नये विलास-द्रव्यों की प्राप्ति होती रहे और मैं इसी प्रकार विलासिता में डूबा हुआ ही आपको भी पा लूँ |’ कहना नहीं होगा की यह प्रार्थना भी उसकी क्षणभर के लिए ही होती है | ऐसे लोगों को करोडपति से कंगाल होते देखा जाता है और अर्थ-कष्ट के साथ ही आदत से प्रतिकूल स्थिति में रहने को बाध्य होने का एक महान कष्ट उसे विशेषरूप से भोगना पडता है | जो मनुष्य भगवत्प्राप्ति तो चाहता है परन्तु वैराग्य नहीं चाहता और सादा जीवन बिताने में संकोच का अनुभव करता है, वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकता | अत: विलासिता के भाव को मन में आते ही उसे तुरन्त निकल देना चाहिये | यह भाव तरह-तरह की युक्तियाँ पेश करके पहले-पहले ‘कर्तव्य’ का बाना धारणकर आश्रय प्राप्तकर लेता है, फिर बढकर मनुष्य का सर्वनाश कर   डालता है ; अतएव: इससे विशेष सावधान रह

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -२-

      || श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग श्रावण कृष्ण, द्वितिया, बुधवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे...विलासिता-विलासी पुरुष को मौज-शौक के समान जुटाने से ही फुरसत नहीं मिलती, वह साधन कब करे ! पहले सामान इक्कठा करना, फिर उससे शरीर को सजाना-यही उसका प्रधान कार्य होता है | कभी साधु-महात्मा का संग करता है तो उसकी क्षणभर की यही इच्छा होती है की मैं भी भजन करूँ; परन्तु विलासिता उसको ऐसा नहीं करने देती | भांति-भाँती के नए-नये फैशन के समान संग्रह करना और उनका मूल्य चुकाने के लिए अन्याय और असत्य की परवा न करते हुए   धन कमाने में लगा रहना-इन्ही में उसका जीवन बीतता है | शौक़ीन मनुष्यों को धन का अभाव तो प्राय: बना ही रहता है; क्योकि वह आवश्यक-अनावश्यक का ध्यान छोड़कर जहाँ कहीं भी कोई शौक की बढ़िया चीज देखता है, उसी को खरीद लेता है या खरीदना चाहता है | न रुपयों की परवाह करता है न अन्य किसी प्रकार का परिणाम सोचता है | सुन्दर मकान, बढ़िया-बढ़िया बहुमूल्य महीन वस्त्र, सुन्दर वस्त्र, इत्र्फुलेल, कन्घे, दर्पण, जूते, घडी, छडी, पाउडर आदि की तो बात ही क्या, खाने-पहनने, बिछोने, बैठने, चलने-फि

परमार्थ-साधन के आठ विघ्न -१-

      || श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग श्रावण कृष्ण, प्रतिपदा, मंगलवार, वि० स० २० ७०   भगवत्प्राप्ति के साधक को या परमार्थ-पथ के पथिक को एक-एक पैर सँभालकर रखना चाहिये | इस मार्ग में अनेक विघ्न है | आज उनमे से आठ प्रधान विघ्नों के सम्बन्ध में कुछ आलोचना करते है-वे-आठ ये है-आलस्य, विलासिता, प्रसिद्धि, मान-बड़ाई, गुरुपन,बाहरी दिखावा, पर-दोष-चिन्तन और सांसारिक कार्यों की अत्यन्त अधिकता | आलस्य-आलसी मनुष्य का जीवन तमोमय रहता है | वह किसी भी काम को प्राय: पूरा नहीं कर पाता | आज-कल करते-करते ही उसके जीवन के दिन पूरे हो जाते है | वह परमार्थ की बाते सुनता-सुनाता है, वे उसे अच्छी भी लगती है, परन्तु आलस्य उसे साधन में तत्पर नहीं होने देता | श्रद्धावान पुरुष भी आलस्य के कारण उदेश्य-सिद्धि तक नहीं पहुच पाता | इसलिए श्रद्धा के साथ ‘तत्परता’ की आवश्यकता भगवान ने गीता में बतलाई है | आलस्य से तत्परता का विरोध है, आलस्य सदा यही भावना उत्पन्न करता है की ‘क्या है, पीछे कर लेंगे |’ जब कभी उसके मन में कुछ करने की भावना होती है, तभी आलस्य प्रमाद, जम्हाई, तन्द्रा आदि के रूप में आकर उसे घे

भगवान प्रेम स्वरूप हैं !

      || श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ शुक्ल, पूर्णिमा, सोमवार, वि० स० २० ७०   कुछ लोगों की धारणा है की भगवान दण्ड देते है | पर असल में भगवान दण्ड नहीं देते | भगवान प्रेमस्वरूप है | वे स्वाभाविक ही सर्वसुह्रद है | सुहृद होकर किसी को तकलीफ कैसे दे सकते है ? विश्वकल्याण के लिए विश्व का शासन कुछ सनातन नियमों के द्वारा होता है | यदि हम उन नियमों का अनुसरण करके उनके साथ जीवन का सामंजस्य कर लेते है तो हमारा कल्याण होता है; परन्तु यदि हम लापरवाही से या जानबूझ कर उन प्राकृत नियमों का उल्लघन करते है तो हमे तदनुसार उसका बुरा फल भी भोगना पढता है, पर वह भी होता है हमारे कल्याण के लिए ही; क्योकि कल्याणमय भगवान के नियम भी कल्याणकारी है | अत: भगवान किसी को दण्ड नहीं देते, मनुष्य आप ही अपने को दण्ड देता है | भगवान प्रेमस्वरूप है-सर्वथा प्रेम है और वे जो कुछ है, वे ही सबको सर्वदा वितरण कर रहे है !   — श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी , भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर , उत्तरप्रदेश , भारत   नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!     

सेवा की सात आवश्यक बातें -1-

      || श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग आषाढ़ शुक्ल, चतुर्दशी, रविवार, वि० स० २० ७०   सेवा की सात आवश्यक बातें    सेवक में जब ये सात बाते होती है, तब सेवा सर्वांगसुन्दर तथा परम कल्याणकारिणी होती है १. विश्वाश, २.पवित्रता, ३. गौरव, ४. संयम, ५. शुश्र्ना, ६. प्रेम, और ७. मधुर भाषण | इसका भाव यह है की सेवक को अपने तथा अपने सेवाकार्य में विश्वास होना चाहिये | विश्वास हुए बिना जो सेवा होगी, वह ऊपर-ऊपर से होगी-दिखावे मात्र होगी | सेवक के ह्रदय में विशुद्ध सेवा का पवित्र भाव होना चाहिये, वह किसी बुरी वासना-कामना को मन में रखकर सेवा करेगा (जैसे इनको सेवा से सतुष्ट करके इनके द्वारा अमुक शत्रु को मरवाना है, आदि) तो सेवा अपवित्र हो जाएगी और उसका फल अध्:पतन   होगा | जिसकी सेवा की जाय, उसमे गौरवबुद्धि और पूज्य बुद्धि होनी चाहिये |   अपने से नीचा मान कर या केवल दया का पात्र मानकर अहंकारपूर्ण ह्रदय से जो सेवा होगी, उसमे सेव्य का असम्मान, अपमान और तिरस्कार होने लगेगा, जिससे उसके मन में सेवक के प्रति सद्भाव नहीं रहेगा और ऐसी सेवा को वह अपने लिए दुःख की वस्तु मानेगा| अत: सेवा का म

Hanuman Prasadji Poddar - Bhaiji Discourse

किसी बहन पर अगर विपति आ गयी--उसके पतिका देहान्त हो गया।सास कह देती है, घरके लोग कह देते हैं कि यह हमारे घरमें ऐसी कुलक्षिंणी आयी कि पतिको खा गयी। कितना बड़ा अपराध है यह । वह बेचारी खुद इस समय कितनी संत्रस्त है, कितनी दु:खी है और उसके घावपर और घाव लगा देना। यह कितना बड़ा महापाप है? यह देखनेकी चीज है पर हम देखते कहाँ हैं? हम अपने सुख के सामने उसके दु:ख को भूल जाते हैं।(मेरी अतुल सम्पति)   त्याग ही प्रेमकी बीज है। त्यागकी सुधाधाराके सिञ्चनसे ही प्रेमबेलि अंकुरित और पल्लवित होती है। जबतक हमारा हृदय तुच्छ स्वार्थोंसे भरा है तबतक प्रेमकी बातें करना हास्यास्पद व्यापारके सिवा और कुछ भी नहीं है। (तुलसी-दल) जितने भी भगवत्प्राप्त महापुरुष हुए हैं, उन सबकी स्थितियाँ पृथक्-पृथक् हैं; पर तत्त्वतः सभीने एक ही सत्यको प्राप्त किया है! साधानकालमें मार्गकी भिन्नता रहती है --- जैसे किसीमें ज्ञान प्रधान होता है, किसीमें भक्ति, किसीमें निष्काम कर्म तथा किसीमें योग-साधन! पर सबका प्राप्तव्य एक ही भगवान् है! अतएव महापुरुष सभी साधनोंका आदर करते हैं; पर जिस साधनद्वारा वे वहाँतक पहूँचे हैं, उ

पदरत्नाकर

॥श्रीहरि:॥ ८३ प्रभु ! तुम अपनौ बिरद सँभारौ। हौं अति पतित , कुकर्मनिरत , मुख मधु , मन कौ बहु कारौ॥ तृस्ना-बिकल , कृपन , अति पीडित , काम-ताप सौं जारौ। तदपि न छुटत विषय-सुख-‌आसा , करि प्रयत्न हौं हारौ॥ अब तौ निपट निरासा छा‌ई , रह्यौ न आन सहारौ। एक भरोसौ तव करुना कौ , मारौ चाहें तारौ॥ ८४ प्रभु ! मोहि दे‌उ साँचौ प्रेम। भजौं केवल तुमहि , तजि पाखंड , झूँठे नेम॥ जरै बिषय-कुबासना , मन जगै सहज बिराग। होय परम अनन्य तुहरे पद-कमल-‌अनुराग॥ — परम श्रद्धेय नित्यलीलालीन श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार – भाईजी , पदरत्नाकर कोड- 50, गीता प्रेस , गोरखपुर