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आज का भ्रष्टाचार और उससे बचने के उपाय -२-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग भाद्रपद कृष्ण, दशमी, शनिवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे ... पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद | ते नर पाँवर पापमय देह धरे मनुजाद || लोभइ ओढन लोभइ डासन | सिस्रोदर पर जमपुर त्रास न | काहूँ की जों सुनहिं   बड़ाई | स्वास लेहीं जनु जूडी आई || जब काहूँ के देखहि विपती | सुखी भये मानहूँ जग नृपति || स्वारथ रत परिवार बिरोधी | लंपट काम क्रोध अति क्रोधी || माता पिता गुर विप्र न मानहीं | आपु गए अरु घालहिं आनहि || करहीं मोह बस द्रोह परावा | संत संग हरी कथा न भावा || अवगुन सिन्धु   मंदमति कामी | बेद विदुषक   परधन स्वामी || बिप्र द्रोह पर द्रोह विसेषा | दंभ कपट जिय धरे सुबेषा || यदि सच्चाई के साथ विचार करके देखा जाय तो न्यूनाधिक रूप में ये सभी लक्षण आज हमारे मानव-समाज में आ गए है | सारी दुनिया की यही स्थिती है | सभी और मनुष्य आज काम-लोभपरायण होकर असुर- भावापन्न हुआ जा रहा है | परन्तु हमारे देश की स्थिती देखकर और भी चिन्ता तथा वेदना होती है | जिस देश में त्याग को ही जीवन का लक्ष्य माना जाता था, जहाँ स्त्रीमात्र

आज का भ्रष्टाचार और उससे बचने के उपाय -१-

     || श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग भाद्रपद कृष्ण, नवमी, शुक्रवार, वि० स० २० ७०   भगवत्स्वरूप भक्तशिरोमणि भरत जी भगवान् राघवेन्द्र श्री रामचन्द्र जी से संत-असंत के लक्षण पूछना चाहते है, परन्तु संकोच वश निवेदन करने में हिचकते है | भरतजी आदि भ्रातागण सब हनुमान जी की और ताकते है | इसलिए की श्रीहनुमानजी भगवान के अतिसय प्रिय भक्त है, वे हमारी और से निवेदन कर दे | अन्तर्यामी प्रभु सब जानते ही थे, वे कहते है ‘हनुमान ! कहो, क्या पूछना चाहते हो ?’ हनुमान जी हाथ जोड़ कर कहते है , ‘नाथ ! भारत जी कुछ पूछना चाहते है, परन्तु शीलवश प्रश्न करते सकुचाते है |’ प्रेमसिन्धु भगवान कहते है ‘हनुमान तुम तो मेरा स्वाभाव जानते हो, भारत जी और मुझमे क्या कोई अन्तर है ?’ भरत जी भगवान के वचन सुनकर उनके चरण पकड़ लिए और अपने अनुरूप ही निवेदन किया नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहूँ   सोक न मोह |     केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह || फिर उन्होंने संत-असंत के भेद और लक्षण पूछे | भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने पहले संतों के अति सुन्दर लक्षण बतलाकर फिर असंतों का स्वभाव बतलाते हुए कहा : सुनहूँ असंत

विषय और भगवान -९-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग भाद्रपद कृष्ण, नवमी, गुरूवार, वि० स० २० ७०   विषय और भगवान -९- गत ब्लॉग से आगे... .. हमलोग बहुत ही भूल में है जो सर्वाधार भगवान् को छोड़कर बाह्य विनाशी वस्तुओं के पीछे भटक-भटक कर अपना अमूल्य मानव-जीवन व्यर्थ खो रहे है | कामना के इस दासत्व ने आठों पहर के भिखमंगेपन ने हमे बहुत ही नीचाशय बना दिया है | हम बड़े ही अभिमान से अपने को ‘महत्वाकांक्षा’ वाला प्रसिद्ध करते है, परन्तु हमारी वह महत्वाकांक्षा होती है प्राय: उन्ही पदार्थों के लिए जो विनाशी और वियोगशील है | असत और अनित्य की आकांक्षा   महत्वाकांक्षा कदापि नहीं है | हमे उस अनन्त, महान की   आकांक्षा करनी चाहिये, जिसके संकल्प मात्र से विश्व-चराचर की उत्पति और लय होता है और जो सदा सबमे समाया हुआ है | जब तक मनुष्य उसे पाने की इच्छा नहीं करता, तब तक उसकी सारी इच्छाएँ तुच्छ और नीच ही है | इन तुच्छ और नीच इच्छाओं के कारण ही हमे अनेक प्रकार की याचनाओं का शिकार बनना पडता है | यदि किसी प्रकार भी हम अपनी इच्छाओं का दमन न कर सके तो कम-से-कम हमे अपनी इच्छाओं की पूर्ती चाहनी चाहिये-भक्तराज ध्रुव की भा

विषय और भगवान -८-

     || श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग भाद्रपद कृष्ण, अष्टमी, बुधवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे... .. त्याग मन से ही होना चाहिये | परन्तु जो लोग मन से त्याग नहीं करते, जिनके अहंकार और ममत्व की बीमारी बढ़ी हुई होती है, उन्ही के लिए भगवान् कृपाकर उपर्युक्त दिव्यऔषधि की व्यवस्था कर उन्हें रोग से छुड़ाते है |              अतएव भगवान् के विधान किये हुए प्रत्येक फल में मनुष्य को आनन्द का अनुभव होना चाहिये | जो हमारे पर पिता हैं, परम सुहृद है, परम सखा है, परम आत्मीय है, उनकी प्रेमभरी देनपर जो मनुष्य मन मैला करता है, वह प्रेमी कहाँ है, वह परमात्मा की प्राप्ति का साधक कहाँ है, वह तो भोगों का गुलाम और काम का दास है | ऐसे मनुष्य को नित्य, परमसुख रूप, समस्त अभावो का सदा के लिए अभाव करदेने वाले ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती | इसलिए प्रत्येक कष्ट और विपत्ति को भगवान के आशीर्वाद के रूप में सिर चढ़ाना चाहिये और सब विषयों से मन हटाकर सच्ची लगन से एक चित से उस परम सुहृदय परमात्मा की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिये | शेष अगले ब्लॉग में.... — श्रद्धेय

विषय और भगवान -७-

     || श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग भाद्रपद कृष्ण, सप्तमी, मंगलवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे... .. विराग की आग में विषयों की पूर्णाहुति दे देनी पड़ेगी | भगवान् तो कहते है ‘जो मेरा प्रेम से भजन करते है, मैं उसके वित्त को (उसकी संपत्तिको ) हर लेता हूँ (संपत्ति से केवल रूपये ही नहीं समझने चाहिये, जिसका मन जिस वस्तु को सम्पत्ति समझता है वही उसकी सम्पत्ति है   जैसे लोभी धन को, कामी स्त्री को और मानि मान को संपत्ति मानता है) और उसका भाइयों से, घरवालों से विच्छेद करवा देता हूँ, इससे वह बड़े ही दुःख से जीवन काटता है | इतना संताप प्राप्त होने पर भी जो मेरा त्याग नहीं करता, प्रेम से मेरा भजन करता ही रहता है, उसे में अपना देव-दुर्लभ परमपद प्रदान कर देता हूँ |’ श्रीमद्भागवत में एक दूसरी जगह भगवान् कहते है ‘जिस पर मैं कृपा करता हूँ, उसके सारे धन (रत्न-धन, स्वर्ण-धन, गौ-धन, कीर्ति-धन) आदि को शनै: शनै: हर लेता हूँ, तब उस दुखों से घिरे हुए निर्धन मनुष्य को उसके स्वजन लोग भी छोड़ देते है | यदि फिर भी वह घरवालों के   आग्रह से धन कमाने का कोई उद्योग करता है तो मेरी कृपा से उसक

विषय और भगवान -६-

     || श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग भाद्रपद कृष्ण, षष्ठी, सोमवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे... .. भाई ! उन्नति के-यथार्थ उन्नति के उच्चे सिंघासन पर चढ़ने वाले को प्रथम बाधा-विघ्नजनित भयानक निराशा के थपेड़े अटल, अचलरूप से सहने पडते है, शून्यता के घोर जलशून्य मरुस्थल को स्थिर धीर भाव से लाँघकर आगे बढ़ना पडता है | इस अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण होनेपर फिर कोई भय नहीं है | अतएव मेरे भाई ! तुम निराश न होओ, जितना दुःख या कष्ट आये, जितनी ही अधिक निराशा, शून्यता, अभाव और अधंकार की काली-काली घटाएँ जीवनाकाश में चरों और फ़ैल जायँ, उतना ही तुम भगवान की और अग्रसर हो सकोगे | यातना की अग्निशिखा जितनी ही अधिक धधकेगी, तुम उतने ही शान्ति-धाम के समीप पहुचोगे |’ घड़े के सदुपदेश से शिष्य की आँखे खुल गयी, उसने अपनी पूर्वस्थिति के साथ वर्तमान-स्तिथि की तुलना की तो उसे साधना और गुरुसेवा का प्रयत्क्ष महान फल धीखायी दिया | वह घड़े को उठाकर गुरु की कुतिया को चल दिया और वहाँ पहुचकर गुरु के चरणों में लोट गया | इस द्रष्टान्त से यह समझना चाहिये की हमे यदि सत, चित, आनन्द, नित्य निरंजन परमात्म

विषय और भगवान -५-

     || श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग भाद्रपद कृष्ण, पन्चमी, रविवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे... .. यह विचार कर उसने घड़ा जमींन पर रख दिया और भागने का विचार किया | गुरु महाराज बड़े ही महात्मा पुरुष थे और परम योगी थे | उन्होंने शिष्य के मन की बात जानकर उसे चेतना के लिए योगबल से एक विचित्र कार्य किया | उनकी योगशक्ति से मिट्टी के जड घड़े में से मनुष्य की भाँती आवाज निकलने लगी | घड़े ने पुकारकर पुछा, ‘भाई ! तुम कहाँ जा रहे हो ?’ शिष्य ने कहा, इतने यहाँ रहकर सत्संग किया, परन्तु कुछ भी नहीं मिला, इससे इसे छोड़कर कही   दूसरी जगह जा रहा हूँ |’ घड़े में से फिर आवाज आई, ‘जरा ठहरो, मेरी कुछ बाते मन लगा कर सुन लों, मैं तुम्हे अपनी जीवनी सुनाता हूँ, उसके सुनने के बाद जाना उचित समझना तो चले जाना |’ शिष्य के स्वीकार करने पर घड़ा बोलने लगा ‘देखो, मैं एक तालाब के किनारे मिट्टी के रूप में पड़ा था, किसी की भी कुछ भी बुराई नहीं करता था, एक जगह चुपचाप पड़ा रहता था, लोग आकर मेरे ऊपर मलत्याग करते,सियार-कुते बिना बाधा पेशाब करते | मैं सब कुछ सहता, मन का दुःख कभी किसी के सामने नहीं कहता | म

विषय और भगवान -४-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग भाद्रपद कृष्ण, चतुर्थी, शनिवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे... .. *जो साधक थोड़े में ही बहुत ऊची स्थिति प्राप्त करने की आशा कर बैठता है उसके मन में इस प्रकार की दशा समय-समय पर हुआ करती है, यह साधन में विघ्न है, ऐसे समय घबराकर साधन को छोड़ नहीं बैठना चाहिये | धीरता और दृढता के साथ बिना उकताए साधन किये जाना ही साधक का कर्तव्य है, सच्चे साधक को तो यह विचारने के ही आवश्यकता नहीं है की मेरी उन्नति हो रही है या नहीं | जो हरिभजन और   गुरु- शुश्रुषा के बदले में उन्नति चाहता है और उन्नति की कामना से हरिभजन और गुरुशुश्रुषा करता है,वह तो हरिभजन और गुरुशुश्रुषारुपी सहज धर्म को-प्रेम के परम कर्तव्य को उन्नति के मूल्य पर बेचता है, वह सौदागर है, हरिभक्त और हरीशिष्य नहीं | भक्त और शिष्य का तो केवल यही कर्तव्य है की गुरुपदिष्ट मार्ग से निष्कामभाव से विशुद्ध प्रेम के साथ स्वाभाविक ही साधना करता रहे | मैं साधन कर रहा हूँ ऐसी भावना ही मन में न आने दे | ऐसी भावना से अपने अन्दर साधनपन का अभिमान उत्पन्न होगा और साधन के फल की स्पृहा जाग्रत हो उठेगी, इश्व

विषय और भगवान -४-

     || श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग भाद्रपद कृष्ण, तृतीया, शुक्रवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे... .. ऐसा कौन सा कष्ट है जो अपने इस परम ध्येय की प्राप्ति के लिए मनुष्य को नहीं सहना चाहिये | जो थोड़े में ही घबरा उठते है, उनके लिए इस पथ का पथिक बनना असम्भव है | यहाँ तो तन-मन और लोक-परलोक की बाजी लगा देनी पड़ती है | सब कुछ न्योछावर कर देना पड़ता है उस प्रेमी के चारू चरणों पर ! महाराज श्री कृष्णानन्द जी कहा करते थे- एक धनी जमींदार का नौजवान लड़का किसी महात्मा की पास जाया करता था, साधू-सन्ग के प्रभाव से उसके मन में कुछ वैराग्य पैदा हो गया, उसकी महात्मा में बड़ी श्रद्धा थी, वह प्रेम के साथ महात्मा की सेवा करता था | कुछ दिन बीतने पर महात्मा ने कृपा करके उसे शिष्य बना लिया, अब वह बड़ी श्रद्धा के साथ गुरु-महाराज की सेवा-शुश्रुषा करने लगा | कुछ दिनों तक तो उसने बड़े चाव से सारे काम किये, परन्तु आगे चल कर मन चन्चल हो उठा, संस्कारवश पूर्वस्मृति जाग उठी और कई तरह की चाहों के चक्कर में पड़ने से उसका चित डावाँडोल हो गया | उसे महत्मा के सन्ग से बहुत लाभ हुआ था, परन्तु इस समय का

विषय और भगवान -३-

     || श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग भाद्रपद कृष्ण, प्रतिपदा, गुरूवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे... .. इसलिए आवश्यकता ही अभाव की जड काटकर ऐसी वस्तुको प्राप्त करने की जो नित्य, पूर्ण, सत् और सर्वभावशून्य हो, जिसे पाकर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है,आप्तकाम और पूर्णकाम हो जाता है, अभाव की आग सदा के लिय बुझ जाती है | यह सत् और पूर्ण वस्तु केवल परमात्मा है, परन्तु उस परमात्मा की प्राप्ति तब तक नहीं होती, जब तक जगतके विषयों का मोह त्यागकर मनुष्य परमात्मा को पाने की लिए एकान्त इच्छुक नहीं हो जाता | जो इस परम वस्तु को पाने के लिए व्याकुल हो उठता है, उसके ह्रदय से भोगों की शक्ति नष्ट हो ही जाती है, क्योकि जहाँ भगवान का प्रेम रहता है, वहाँ भोग-कामना उसी प्रकार नहीं ठहर सकती जिस प्रकार सूर्य के सामने अन्धकार नहीं ठहरता | जो चाहौ हरि मिलनकौ, तजो विषय विष मान | हिय में बसै न एक संग, भोग और भगवान || जिन्हें भगवान से मिलने की चाह है उन्हें और समस्त इच्छाओं की जड बिलकुल काट डालनी पड़ेगी | परन्तु सब जड बड़ी मजबूत है, केवल बातों से उसका काटना सम्भव नहीं, उसके काटने के लिए व

विषय और भगवान -२-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग श्रावण शुक्ल, पूर्णिमा, बुधवार, वि० स० २० ७०   गत ब्लॉग से आगे... .. सारा संसार इसी अभाव के फेर में पड़ा हुआ है | अच्छे=अच्छे विद्वान, बुद्धिमान और चिन्ताशील पुरुष इस अभाव की पूर्ती के लिए ही चिन्तामग्न है | युग बीत गए, नाना प्रकार के नवीन-नवीन औपाधिक आविष्कार हुए और रोज-रोज हो रहे है; परन्तु यह अभाव ऐसा अनन्त है की इसका कभी शेष होता ही नहीं | बड़ी कठिनता से, बड़े पुरुषार्थ से, बड़े भारी त्याग और अध्ययन से मनुष्य एक अभाव को मिटाता है, तत्काल ही दूसरा अभाव ह्रदय में न मालूम   कहाँ से आकर प्रगट हो जाता है |   यों एक-एक अभाव को दूर करने में केवल एक जीवन ही नहीं, न मालूम कितने जन्म बीत गए है, बीत रहे है और अभाव में जड न कटनेतक बीतते ही रहेंगे | कलमी पेड़ की डालों को काटने से वह और भी अधिक फैलता है, इसी प्रकार एक विषय की कामना पूरी होते ही-उसके कटते ही न मालूम कितनी ही नयी कामनाएँ और जाग उठती है | किसी कंगाल को राज्य पाने की कामना है, वह उसकी प्राप्ति के लिए न मालूम कितने जप, तप, विद्या, बुद्धि, बल, परिश्रम आदि का प्रयोग करता है | उसे कर्म सफलत

विषय और भगवान -१-

|| श्रीहरिः || आज की शुभतिथि-पंचांग श्रावण शुक्ल, चतुर्दशी, मंगलवार, वि० स० २० ७०   संसार के विषयों में न मालूम कैसी मोहिनी है, देखते और सुनते ही मन ललचाता हैं, उनकी प्राप्ति के लिये अनेक उचित, अनुचित उपाय उपाय किये जाते है, मनुष्य मोहवश मन-ही-मन सोचता है की इनकी प्राप्ति से सुख हो जायेगा, परन्तु उसका विचार कभी सफल होता ही नहीं | कितने ही लोगों के जीवन तो अभीष्ट विषय की प्राप्ति होने के पूर्व ही पूरे हो जाते हैं | सारा जीवन विषय-सुख के लोभ में अनन्त प्रकार की मानसिक और शारीरिक विपतियों को सहन करते करते ही चला जाता है | किसी को कोई मनचाही वस्तु मिलती है, तब एक बार तो उसे कुछ सुख सा प्रतीत होता है, परन्तु दुसरे ही क्षण नयी कामना उत्पन्न होकर उसके चित को हिला देती है और फिर तुरन्त ही वह अशान्त और व्याकुल होकर उसको पूरी करने की चेष्टा में लग जाता है | वह पूरी होती है तो फिर तीसरी उदय हो जाती है | सारांश यह है की कामनाओं का तार कभी टूटता ही नहीं, वह बराबर बढ़ता चला जाता है | इसका कारण यह है कि संसार का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जो पूर्ण और सारे अभावों को सदा-सर्वदा मिटा देन