सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

नवंबर, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भगवान् की अखण्ड स्मृति क्यों नहीं होती ?

         आप भगवान् का अखण्ड स्मरण चाहते हैं, आपके मन में इसके लिए छटपटाहट भी होती है, आप कभी-कभी बड़ी पीड़ा भी अनुभव करते हैं कि आपको यह स्थिति तुरन्त क्यों नहीं प्राप्त हो जाती - ये सब बातें उत्तम हैं l आप भगवान् के कृपा पर विश्वास करके अपनी इस सदिच्छा को अनन्य तथा निर्मल बनाते रहिये - भगवत्कृपा से आपको भगवान् की अखंड स्मृति का प्राप्त होना कठिन नहीं है l पर इस समय आपको जो बाधा अनुभव हो रही है, उस पर आप गहराई से विचार करेंगे तो आप जन सकेंगे कि लौकिक विषयों को लेकर आपकी प्रतिकूल भावनाजनित चित्त की अशांति इसमें एक प्रधान कारण है l आप जानते हैं की यहाँ फलरूप में जो प्राप्त होता है, वह पूर्व निश्चित्त होता है और अधिकांशतः अपरिवर्तनीय एवं अनिवार्य होता है तथा यह भी आप जानते हैं कि उसके किसी भी 'प्रिय' या 'अप्रिय' रूप से आत्मा की दृष्टि से आप का कोई लाभ या हानि नहीं होती, तथापि आप सभी कुछ अपने मन के अनुकूल चाहते हैं, जरा-सी भी मन के विपरीत बात को सहन नहीं कर सकते और अत्यंत दुखी तथा अशान्त  हो जाते हैं l भगवान् का मंगल विधान मानकर भी सन्तोष नहीं कर सकते ; आपके ह्रदय में अ

बुराई न देखकर प्रेम करना चाहिये

        सत्य कहूँ तो - आप जरा भी अत्युक्ति न मानियेगा - मैं स्वयं इतनी दुर्बलताओं से, इतने दोषों से भरा हूँ कि दूसरों के दोषों की आलोचना करना तो दूर की बात है, उनकी ओर देखने का भी अधिकारी नहीं हूँ l जन्म से अबतक असंख्य अपराध बने हैं, अब भी कर रहे हैं l ऊपर के साज और मन की यथार्थ स्थिति में कितना अंतर है, इसे अन्तर्यामी ही जानते हैं l यह सब जानते हुए भी दोषों से मुक्त नहीं हुआ जाता, यह कितना बड़ा अपराध है l इतने पर भी दयासागर अपनी दया से, अपनी अनोखी कृपा से, अपने सहज सौहार्द से कभी वंचित तो करते ही नहीं, अपनी कृपा सुधा के समुद्र में सदा डुबाया रखते हैं l  इस घृणित नरक-कीट पर कितनी कृपा करते है, इसकी सीमा ही नहीं है l  मैं आप से क्या बताऊँ ? मेरी तो आप से भी यही प्रार्थना है कि दूसरे क्या करते है, इस बात पर ध्यान मत दीजिये l          तेरे  भाएँ   जो  करो,  भलो   बुरो  संसार l          नरायन  तो बैठि कै  अपनी  भवन बुहार l l        एक महात्मा लिखते हैं - 'जितना हम सोचते हैं कि उस पुरुष में इतनी बुराई  है, उतनी ही बुराई हम उसे देते हैं l  जो जितना कमजोर होगा, उतना ही अधिक दूसरों क

भगवान् की वस्तु सदा भगवान् की सेवा में लगाते रहिये

        भारतवर्ष में लाखों-करोड़ों व्यक्ति इतने गरीब हैं, जिनको रोज भरपेट भोजन नहीं मिलता, तन ढकने को कपडा नहीं मिलता, दूध, चिकित्सा, आराम का घर आदि तो बहुत दूर की बातें हैं l  फिर आज की भयंकर महँगाई  ने तो मानो प्राणियों पर राक्षसी धावा ही बोल दिया है l इस अवस्था में जिनके पास जो कुछ भी साधन हैं, उनके द्वारा इन अभावग्रस्त प्राणियों की अपने-ही-जैसे प्राण-मन वाले मानवों की सेवा करनी चाहिये  - यह धर्म है और इसकी उपेक्षा बहुत बड़ा पाप है l           सच तो यह है कि यहीं कुछ भी किसी का नहीं है, सभी भगवान् का है और उसे यथासाध्य आवश्यकतानुसार प्राणिमात्र की सेवा के द्वारा भगवान् की सेवा में लगाना है l  वस्तुतः सभी प्राणी भगवान् की ही अभिव्यक्ति हैं l  अतएव इनकी सेवा में किसी वस्तु का अर्पण करना भगवान् की वस्तु  भगवान् की सेवा में लगाना मात्र  है l  यह ईमानदारी है, कोई महत्व की बात नहीं l श्रीमद्भागवत में देवर्षि नारदजी के वाक्य हैं - जितने से अपना पेट भरे, उतने पर ही मानवों का अधिकार है l जो उससे अधिक पर अपना अधिकार मानता है, उसे दण्ड मिलना चाहिये l '           देवर्षि नारद के उन शब्द

भगवत्कृपा की वर्षा

         साधना की व्यक्तिगत बातें सबके सामने प्रकट करने की नहीं हुआ करतीं, तथापि यह सत्य भी है कि अपने में अपनी दृष्टि से मुझे अनेक-अनेक दुर्बलताएँ प्रतीत होती हैं l साधना और भगवत्प्रेम का जो स्वरूप कल्पना में आता है, वह तो कहने में ही नहीं आता  और जिसको लोगों के सामने कहा जाता है, उसके अनुसार भी देखने पर अपने में बड़ी त्रुटियाँ प्रतीत होती हैं; पर साथ ही यह अवश्य अनुभव होता है कि भगवान् की अहैतुकी कृपा किसी की साधना को नहीं देखती l वह तो जो उस पर विश्वास अवश्य है और मैं यह अनुभव भी करता हूँ कि भगवान् की अहैतुकी कृपा मेरे ऊपर निरन्तर बरस रही है और अगर मेरे में किसी को कोई अच्छापन दिखाई देता है तो वह उस भगवत्कृपा की ही कृपा का फल है l        सम्मान की चाह  मनुष्य में बहुत दूर तक बनी रहती है l मनुष्य भगवान् के नाम पर अपने व्यकतित्व का प्रचार और अहम् की पूजा करवाने लगता है, यह उसकी एक कमजोरी है l  आपने मेरे सम्बन्ध में पूछा, सो मुझे यही कहना चाहिए और यही लगता भी है कि इस कमजोरी से मैं बचा नहीं हूँ l आपके कथनानुसार -पुस्तकों पर मेरा नाम छपता है, 'कल्याण' में नाम छपता है, संस्थ

सदगुरु का महत्व

           अज्ञानान्धकार से हटाकर भगवत्स्वरूप पुण्य प्रकाश में पहुँचा देनेवाले गुरु का महत्व भगवान् से भी अधिक माना  जाता है l पता नहीं, सदगुरु की कृपा से कितने प्राणी दुराचार का त्याग करके नरकानल  से बच गए हैं और बच रहे हैं l गुरु भगवान् स्वरूप ही हैं l  ऐसे सदगुरु बड़े ही पुण्य बल और भगवान् की कृपा से प्राप्त  होते हैं l  सदगुरु के चरणों में बार-बार नमस्कार l           'गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही महान ईश्वर महादेव हैं, गुरु ही साक्षात् परब्रह्म हैं; उन गुरु के चरणों में नमस्कार l ज्ञानांजन की सलाई के द्वारा अज्ञानरूप रतौंधी से अंधे हुए लोगों की आँखों को खोल देनेवाले गुरु के चरणों में नमस्कार l ' गुरु की महिमा अवर्णनीय है l जगत के समस्त विकारों का नाश करने के लिए ऐसे सदगुरु ही संजीवन-सुधा हैं l घोर पाप-ताप के प्रचण्ड प्रवाह में बहते हुए प्राणी की रक्षा के लिए स्वयं गुरुदेव ही सुदृढ़ जहाज हैं और वे ही उसके कर्णधार हैं l इसलिए गुरु का विरोध करना साधारण पाप ही नहीं , सीधा नरक को निमन्त्रण है l पर वस्तुतः यह महिमा शिष्य के अज्ञान एवं पाप-ताप आदि का हरण कर

जिसका अन्त सुधरा, वही सफल -जीवन है

        मनुष्य के आभ्यन्तरिक मन की वस्तुतः क्या स्थिति है, उसमें किस प्रकार के कौन-से संस्कार लिए हैं, इसका पता बाहरी आचरणों से नहीं लगता l  बाह्य मन से भी वे संस्कार छिपे रहते हैं, स्वप्न, सन्निपात अथवा उन्माद की अवस्था में कहीं कहीं न्यूनाधिक रूप में मनुष्य के भीतरी मन के संस्कार प्रकट हुआ करते हैं l         किसी परिस्थिति में पड़कर एक मनुष्य चोरी करता था, परन्तु उसके भीतरी मन में चोरी से घृणा थी, अतएव वह जब-जब चोरी करता, तभी तब उसके भीतरी मन पर अज्ञातरूप से ऐसा आघात लगता कि उसे ज्वर हो जाता l फिर उसके मन में आता - 'चोरी से आई हुई चीज़ जिसकी है, उसे वापस कर दी जाये l ' जब वह वापस  करता , तब उसे चैन पड़ता - उसका बुखार उतरता l          एक हमारे परिचित सज्जन थे l अब उनका देहान्त हो गया l  वे एक प्रसिद्ध  आश्रम में रहते थे l  थे सच्चे आद्मिल l  आश्रम के सारे नियमों का वे पालन करते, पर उनके भीतरी मन में काम-वासना थी l वह समय-समय पर जब प्रकट होती, तब वे अकेले में ही अश्लील शब्दों का उच्चारण करने लगते l          एक आदमी के भीतरी मन से एक साधू के प्रति बुरा भाव हो गया था और बार-बार

अपने विषय में स्वीकारोक्ति

        जिन विचारों और कार्यों को बुरा, अनुचित और अकर्तव्य समझता-बतलाता था, अब उन्हीं को स्वयं कर-करवा रहा हूँ l युक्तिवाद से भले ही उनका औचित्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाये, पर मन तो जानता-समझता ही है l  लोगों  से कहता था कि 'चुपचाप साधन करना है l  अपना प्रचार कभी नहीं करना है, न लौकिक, मान-सामान कभी ग्रहण करना है l  इस प्रकार साधन करनी है सहज स्वाभाविक, जिससे लोगों को पता ही न अलगे कि यह भी कोई साधना करता है l  इसके कर्म में भी कोई विशेषता है l ' ऐसा केवल कहता ही नहीं था, यही मानता था, सच्चे ह्रदय से मानता था और इसी के अनुसार करना चाहता और करता भी था l  बड़ी सरलता से साधना चल रही थी l  मन में शान्ति, उल्लास, एवं सात्विक विचारों कि उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही थी l  उस समय मैं प्रवचन नहीं करता था l मित्रों-सज्जनों ने कहा - 'प्रवचन किया करो, मन में अच्छे सात्विक विचार आयेंगे, उनका  मनन होगा तथा लोगों का भी भला होगा आदि' - मैं प्रवचन करने लगा l  पहले-पहले तो लाभ हुआ - लाभ तो अब भी होता ही होगा, क्योंकि प्रवचन तो अच्छे विचारों का ही होता है  - परन्तु कुछ ही समय बद प्रव

विचार

शास्त्रो का अनुगमन करनेवाली शुद्ध बुद्धि से अपने सम्बंध में सदा सर्वदा विचार करना चाहिये | विचार से तीक्ष्ण होकर बुद्धि परमात्मा का अनुभव करती है | इस संसार रुपी दीर्घ रोग का सबसे श्रेष्ठ औषध विचार ही है | विचार से विपतियो का मूल अज्ञान ही नष्ट हो जाता है| यह संसार मृत्यु, संकट और भ्रम से भरपूर है, इसपर विजय प्राप्त करने का उपाय एकमात्र विचार है| बुरे को छोड़कर, अच्छे को ग्रहण, पाप को छोड़ कर पुण्य   का अनुष्ठान विचार के द्वारा ही होता है| विचार के द्वारा ही बल, बुद्धि, सामर्थ्य, स्फूर्ति और प्रयत्न सफल होते है| राज्य, सम्पति और मोक्ष भी विचार से प्राप्त होता है | विचारवान पुरुष विपत्ति में घबराते नहीं,सम्पति में फूल नहीं उठाते | विचारहीन के लिये सम्पति भी विपत्ति बन जाती है | संसार के सारे दुःख अविवेक के कारण है | विवेक धधकती हुई अंतर्ज्वाला को भी शीतल बना देता है | विचार ही दिव्य दृष्टि है, इसी से परमात्मा का साक्षात्कार और परमानन्द की अनुभूति होती है | यह संसार क्या है? मैं कौन हूँ? इससे मेरा क्या सम्बन्ध है? यह विचार करते ही संसार से सम्बन्ध छुटकर परमात्मा का साक्षात्कार होने

संतोष

संतोष ही परम कल्याण है | संतोष ही परम सुख है | संतोषी को ही परम शांति प्राप्त होती है | संतोष के धनी कभी अशान्त नहीं होते | संसार का बड़े से बड़ा साम्राज्य-सुख भी उनके लिये तुच्छ   तिनके के समान होता है | विषम-से-विषम परिस्थिती में भी संतोषी पुरुष क्षुब्ध नहीं होता | सांसारिक भोग-सामग्री उसे   विष के समान जान पड़ती है | संतोषामृत की मिठास के सामने स्वर्गीय अमृत का उमडता हुआ समुद्र भी फीका पड जाता है |जिसे अप्राप्त की इच्छा नहीं है, जो कुछ प्राप्त हो उसी में जो समभाव से संतुष्ट है, जगत के सुख-दुःख उसका स्पर्श नहीं कर सकते | जब तक अन्त:करण संतोष की सुधा-धारा से परिपूर्ण   नहीं होता तभी तक संसार की सभी विपत्तियां है | संतोषी चित्त निरंतर प्रफुल्लित रहता है , इसलिये उसी में ज्ञान का उदय होता है | संतोषी पुरुष के मुख पर एक अलोकिक ज्योति जगमगाती रहती है, इससे उसको देखकर दुखी पुरुष के मुख पर भी प्रसन्नता आ जाती है | संतोषी पुरुष की सेवा में स्वर्गीय-सम्पतिँया, विभूतियाँ, देवता, पितर और ऋषि-मुनि अपने को धन्य मानते है | भक्ति से, ज्ञान से, वैराग्य से अथवा किसी भी प्रकार से संतोष का सम्पादन

अहिंसा-धर्म

जो पुरुष काम,क्रोध और लोभ को पापो की खान समझकर उनका त्याग करके अहिंसा-धर्म का पालन करता है, वह मोक्ष रूप सिद्धि को प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है | जो मनुष्य अपने आराम के लिए दीन-प्राणियो का वध करता है, वह मृत्यु के बाद कभी सुखी नहीं हो सकता | मरने के बाद परमसुख उसी को मिलता है, जो सभी प्राणियो को अपने ही समान समझकर किसी पर भी क्रोध नहीं करता और किसी को भी चोट नहीं पहुँचाता | जो मनुष्य प्राणिमात्र को अपने ही समान सुख की कामना और दुःख की अनिच्छा करनेवाले जानकर सबको समान दृष्टि से देखता है, वह महापुरुष देव-दुर्लभ ऊँची गति को प्राप्त होता है | जिस काम को मनुष्य अपने लिये प्रतिकूल समझता है वह काम दूसरे किसी भी प्राणी के लिये नहीं करना चाहिये | जो मनुष्य इसके विरुद्ध व्यवहार करता है वह पाप का भागी होता है | मान-अपमान, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय इनमे जैसे अपने को संतोष और असंतोष होता है, वैसे ही दूसरो को भी होता होगा, यही समझकर व्यवहार करे | जो मनुष्य हिंसा करता है, उसकी हिंसा होती है और जो रक्षण करता है, उसकी दूसरो के द्वारा रक्षा होती है | अतएव हिंसा न करके सबकी रक्षा करनी चा

धर्म और उसका फल

धर्मपरायण मनुष्य दूसरे का हित मानते हुए ही अपना हित चाहते है | उन्हें दूसरे के अहित में अपना हित कभी दिखता ही नहीं | पर हित से ही परम गति प्राप्त होती है | धर्मशील पुरुष हिताहित का विचार करके सत्पुरुषो का संग करता है, सत्संग से धर्मबुद्धि बढती है और उसके प्रभाव से उसका जीवन धर्ममय बन जाता है | वह धर्म से ही धन का उपार्जन करता है |वही काम करता है, जिससे सद्गुणों की वृद्धि हो | धार्मिक पुरुषो से ही उसकी मित्रता होती है | वह अपने उन धर्मशील मित्रो के तथा धर्म से कमाये हुए धन के द्वारा इस लोक और परलोक में सुख भोगता है | धर्मात्मा मनुष्य धर्मसम्मत इन्द्रियसुख को प्राप्त करता है, परन्तु वह धर्म का फल पाकर ही संतुष्ट नहीं हो जाता | वह सत-असत का विचार करके वैराग्य का अवलंबन करता है | वैराग्य के प्रभाव से उसका चित्त विषयों से हट जाता है | फिर वह जगत को विनाशी समझ कर निष्काम कर्म के द्वारा मोक्ष के लिये प्रयत्न करता है | नारायण !      नारायण !!       नारायण !!! शेष अगले ब्लॉग में !!! भगव च्चर्चा,  हनुमानप्रसाद पोद्दार, गीताप्रेस गोरखपुर,  कोड ८२०, पेज २८८  

शुभ संग्रह - १

         पाप और उसका फल मनुष्य जब रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श – इन्द्रियों के इन पाँच   विषयों में से किसी एक में भी आसक्त हो जाता है, तब उसे राग-देष के पंजे मे फँस जाना पढता है | फिर वह जिसमे राग होता है उसको पाना और जिसमे देष होता है उसका नाश करना चाहता है | यो करते-करते वह बड़े-बड़े भयानक काम कर बैठता है और निरंतर इन्द्रियों के भोगो में ही लगा रहता है | इसमें उसके ह्रदय में लोभ-मोह, राग-देष   छा जाते है | इसके प्रभाव से उसकी धर्म-बुधि, जो समय-समय पर उसे चेतावनी देकर पाप से बचाया करती थी, नष्ट हो जाति है | तब वह छल-कपट और अन्याय से धन कमाने में लगता है | जब दूसरो को धोखा देकर, अन्याय और अधर्म से कुछ कमा लेता है, तब फिर इसी रीती से धन कमाने में उसे रस आने लगता है | उसके सुहृद और बुद्धिमान लोग उसके इस काम को बुरा बतलाते और उसे रोकते है, तब वह भांति-भांति की बहानेबाजियाँ करने लगता है | इस प्रकार उसका मन सदा पाप में ही लगा रहता है, उसके शरीर और वाणी से भी पाप होते है | वह पापी जीवन होकर फिर पापिओ के साथ ही मित्रता करता है और इसके फलस्वरूप न तो इस लोक में सुख पाता है और न परल

अपने विषय में स्वीकारोक्ति

       जिन विचारों और कार्यों को बुरा, अनुचित और अकर्तव्य समझता-बतलाता था, अब उन्हीं को स्वयं कर-करवा रहा हूँ l युक्तिवाद से भले ही उनका औचित्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाये, पर मन तो जानता-समझता ही है l  लोगों  से कहता था कि 'चुपचाप साधन करना है l  अपना प्रचार कभी नहीं करना है, न लौकिक, मान-सामान कभी ग्रहण करना है l  इस प्रकार साधन करनी है सहज स्वाभाविक, जिससे लोगों को पता ही न लगे कि यह भी कोई साधना करता है l  इसके कर्म में भी कोई विशेषता है l ' ऐसा केवल कहता ही नहीं था, यही मानता था, सच्चे हृदय से मानता था और इसी के अनुसार करना चाहता और करता भी था l  बड़ी सरलता से साधना चल रही थी l  मन में शान्ति, उल्लास, एवं सात्विक विचारों की उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही थी l  उस समय मैं प्रवचन नहीं करता था l मित्रों-सज्जनों ने कहा - 'प्रवचन किया करो, मन में अच्छे सात्विक विचार आयेंगे, उनका  मनन होगा तथा लोगों का भी भला होगा आदि' - मैं प्रवचन करने लगा l  पहले-पहले तो लाभ हुआ - लाभ तो अब भी होता ही होगा, क्योंकि प्रवचन तो अच्छे विचारों का ही होता है  - परन्तु कुछ ही समय बाद प्रवचन

जगत को भगवत-रूप देखने का प्रयत्न कीजिये

        न तो सबकी प्रकृति एक -सी है, न रूचि और बुद्धि ही l लोगों की कार्यपद्धति भी भिन्न-भिन्न होती है l  अतएव सब लोग एक-सा काम, एक ही प्रणाली से करें, यह सम्भव नहीं l वस्तुतः कर्म में कोई ऊँचा-नीचापन है भी नहीं l  ब्राह्मण यज्ञ करता है , किसान खेती करता है l  दोनों ही अपने-अपने स्थान में महत्त्व रखते हैं l जैसे नाटक के पात्र राजा से लेकर भंगी तक का अपना-अपना अभिनय सफलतापूर्वक करते हैं, पर वे करते हैं - अहंता, आसक्ति, ममता-कामना से रहित होकर केवल नाटक के स्वामी की प्रसन्नता के लिए अपने-अपने स्वाँग के अनुसार, इसी प्रकार इस जगन नाटक में हम सभी पात्र हैं, सबको अपने-अपने जिम्मे का अभिनय करना है भली भाँति, सुचारुरूप से l  हमें चाहिए कि हम अपनी प्रकृति, रूचि तथा स्वाँग के अनुसार आसक्ति, ममता, कर्माग्रह, कामना आदि न रखते हुए प्राप्त कर्म को कर्तव्य बुद्धि से करते रहें - उत्साह के साथ, शान्तिपूर्वक, हर्ष-शोकरहित होकर, सम्यक प्रकार से, केवल भगवदर्थ -                    'तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर l l '         न तो कर्म पूर्ण होने की चिन्ता  रखनी चाहिए और न उसके फल की क

सभी क्षेत्रों में आदर्श पुरुष हैं

       अवश्य ही वर्तमान समय में भी ऐसे बहुत-से सज्जन सभी क्षेत्रों में वर्तमान हैं , जो भारतीय संस्कृति के परमोज्जवल प्रकाशरूप हैं l  पर ऐसे सज्जन न तो अपना विज्ञापन करते हैं, न वे यह चाहते ही हैं कि उन्हें लोग जानें-मानें l करोड़ों मानवों में, पता नहीं, कितने ऐसे होंगे, जिनके चरित्र अत्यन्त पवित्र  और आदर्श हैं l  जिन क्षेत्रों के लोगों के सम्बन्ध में आपने पूछा है, उन क्षेत्रों में भी ऐसे बहुत-से सजन्नों से मेरा काम पड़ा है और मैं उन्हें जानता हूँ , जो परम आदर्श चरित्र  हैं l       साधुओं में मैं ऐसे महात्माओं को जानता हूँ, जो सचमुच बड़े विरक्त और परम त्यागी, सदाचारी हैं l  उनमें कौन ब्रह्मनिष्ठ हैं  - परमात्मा को प्राप्त हैं, यह तो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि यह स्थिति तो स्वयं संवेद्य है l एक महात्मा को मैंने देखा है, जो बहुत बड़े दार्शनिक विद्वान हैं, पर जिनमें विद्या का जरा भी अभिमान नहीं और जिनका अत्यन्त त्यांगपूर्ण, विरक्त जीवन है l       धनियों में भी ऐसे बहुत-से हैं l  एक ऐसे सज्जन हैं, जो अपने लिए कंजूस हैं और दूसरों के लिए बड़े उदार हैं, सदाचारी हैं,  व्यसन रहित तथा अभिमान

उच्च गति प्राप्त करने के साधन

        मनुष्य के लिए गिरना सहज है, चढ़ना कठिन l जरा-सा पैर फिसला कि गिरा; पर चढ़ने में प्रयास करना पड़ता है l वर्तमान में तो सब ओर कुसंग-ही-कुसंग है l  हाथ पकड़कर बचाने वाले, रक्षा करने वाले, चढ़ने में सहायता करने वाले पुरुषों का  - ऐसे वातावरण का मिलना प्रायः कठिन हो गया है l  इस अवस्था में मनुष्य का पतन हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं l  पर इस समय भी जो सावधान एवं सचेत है तथा जिन्होंने किसी अमोघ शरण्य-शक्ति का आश्रय ले रखा है, वे गिरने से बचकर ऊँचे पर चढ़ सकते हैं, अनायास ही ऊर्ध्व गति को प्राप्त हो सकते हैं l इसके लिए करना यह है -       १- निकम्मा न रहकर काम में लगे रहना l काम भी ऐसा हो, जो बुरे विचारों को उत्पन्न करनेवाला, बढ़ाने वाला न हो और दबे बुरे विचारों को उभाड़ने वाला न हो l       २- यथासाध्य आँख, कान, नासिका, जिह्वा और त्वक - इन सभी इन्द्रियों को तथा मन को सत - भगवान् के  साथ जोड़े रखने का प्रयत्न करना l  इनके द्वारा असत -गिराने वाले विषयों का सेवन कभी न करना l       ३- प्रतिदिन सद्विचारों के उदय, संरक्षण तथा संवर्धन के लिए सत्संग या सद्ग्रन्थों का श्रद्धापूर्वक अध्ययन करना l     

* दीपावली के पावन अवसर पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ *

* दिवाली * जब समस्त जगत की घोर अमावस्या का नाश करने वाले भगवान् भास्कर, सुधावृष्टि से संसार का पोषण करने वाले चंद्रदेव और जगत के आधार अग्नि देवता उन्ही के प्रकाश से प्रकाशित होते है – इन तीनो का त्रिविध प्रकाश उन्ही के प्रकाशाम्बुधि का एक क्षुद्र कण है, तब जहा वह स्वयं आ जाए,वहा के प्रकाश का तो ठिकाना ही क्या ! उनका वह प्रकाश केवल यहाँ तक परिमित नहीं है | ब्रह्मा की जगत-उत्पादनी बुद्धि में उन्ही के प्रकाश की झलक है | शिवकी संहार-मूर्ति में भी उन्ही के प्रकाश का प्रचण्ड रूप है | ज्ञानी मुनियों के ह्रदय भी उसी अलोक-कण से आलोकित है | जगत के समस्त कार्य,मन-बुद्धि की समस्त क्रियाये उसी नित्य प्रकाश के सहारे चल रही है | अतएव पहले काम, क्रोध, लोभ रूप कूड़े को निकाल कर   घर साफ़ कीजिये,फिर देवी सम्पति की सुदर सामग्रियो से उसे सजाइए | तदन्तर प्रेम रुपी नित्य नवीन वस्तु का संग्रह कीजिये और उससे लक्ष्मीपति श्री नारायण देव को वश में कर ह्रदय के गम्भीर अन्त:स्थल में विराजित कीजिये , फिर देखिये – महालक्ष्मी देवी और अखंड अपार अलोकिक राशी स्वयमेव चली आएगी ! देवी का अलग आवाहन करने की आवश्य

दिवाली

                 हमारी धारणा है की साफ़ सजे हुए घर में लक्ष्मीदेवी आती है,बात ठीक है परन्तु लक्ष्मी सदा ठहरती क्यों नहीं ? इसलिए कि हमारी सफाई और सजावट केवल बाहरी होती है और फिर वे ठहरी भी चंचला, उन्हें बांध रखने का कोई साधन हमारे पास नहीं है | हां, एक उपाय है , जिससे वह सदा ठहर सकती है | केवल ठहर ही नहीं सकती, हमारे मना करने पर भी हमारे पीछे-पीछे डोल सकती है | वह उपाय है उनके पति श्रीनारायणदेव को वश में कर भीतर-से-भीतर के गुप्त मंदिर में बंद कर रखना | फिर तो अपने पतिदेव के चारू चरण-चुम्बन करने के लिए उन्हें नित्य आना ही पड़ेगा | हम द्वार बंद करेंगे तब भी वह आना चाहेंगी,ज़बरदस्ती घर में घुसेंगी | किसी प्रकार भी पिंड नहीं छोड़ेंगी | इतनी माया फैलाएंगी कि जिससे शायद हमे तंग आकर उनके स्वामी से शिकायत करनी पड़ेगी | जब वे कहेंगे तब माया का विस्तार बंद होगा | तब भी देवी जी जायेंगी नहीं, छिप कर रहेगी | पति को छोड़ कर जाये भी कहा ? चंचला तो बहुत है परन्तु है परम पतिव्रता-शिरोमणि ! स्वामी के चरणों में तो अचल हो कर ही रहती है | अवश्य ही फिर ये हमे तंग नहीं करेंगी | श्रीके रूपमें सदा निवास

दिवाली

                      दिवाली पर हमारे यहाँ प्रधानतः चार काम हुआ करते है – घर का कूड़ा-कचरा निकाल कर घर को साफ करना और सजाना, कोई नई चीज खरीदना, खूब रोशनी करना और श्री लक्ष्मी जी का आह्वान तथा पूजन करना | काम चारो ही आवश्यक है; किन्तु प्रणाली में कुछ परिवर्तन करने की आवश्यकता  है | यदि वह परिवर्तन कर दिया जाये तो दिवाली का महोत्सव बारहवें महीने न आ कर नित्य बना रहे और कभी उससे ऊबे भी नहीं ! पाठक कहेंगे कि यह है तो बड़े मजे की बात परन्तु रोज रोज इतना खर्च कहा से आवेगा ? इसका उतर यह है की फिर बिना ही रूपये-पैसे के खर्च के यह महोत्सव बना रहेगा और उनकी रौनक भी इससे खूब बढ़ी-चढ़ी रहेगी | अब तो उस बात को सुनने की उत्कंठा सभी के मन में होनी चाहिए | उत्कंठा हो या न हो,मुझे तो सुना ही देनी है – ध्यान से सुनिए – दिवाली पर हम कूड़ा निकालते है,परन्तु निकालते है केवल बाहर का ही | भीतर का कूड़ा ज्यो-का-त्यों  भरा रहता है,जिसकी गन्दगी दिनों दिन बढ़ती ही रहती है | वह कूड़ा रहता है – भीतर घर में,शरीर के अंदर मन में | कूड़े के कई नाम है – काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, मद, वैर, हिंसा, ईर्ष्या, द्रोह, मत्