सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

मार्च, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
प्रेमी भक्त उद्धव : ..... गत ब्लॉग से आगे...  तुम्हारी कीर्तिसे ही सारा संसार भरा हुआ है! तुम भगवान् श्रीकृष्णकी नित्य प्रिया आह्लादिनी शक्ति हो! वे जब जहाँ जिस रूपमें रहते हैं तब तहाँ वैसा ही रूप धारण करके तुम भी उनके साथ रहती हो! जब वे महाविष्णु हैं तब तुम महालक्ष्मी हो!जब वे सदाशिव हैं तब तुम आद्याशक्ति हो! जब वे ब्रम्हा हैं तब तुम सरस्वती हों! जब वे राम हैं तब तुम सीता हो और तो क्या कहूँ; माता! तुम उनसे अभिन्न हो! जैसे गन्ध और पृथ्वी, जल और रस, रूप और तेज, स्पर्श और वायु, शब्द और आकाश पृथक-पृथक नहीं हैं, एक ही हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण तुमसे पृथक नहीं है! ज्ञान और विद्या, ब्रह्मा और चेतनता, भगवान् और उनकी लीला  जैसे एक हैं वैसे ही तुम भी श्रीकृष्णसे एक हो, वे गोलोकेश्वर हैं तो तुम गोलोकेश्वरी हो! देवी! यह मूर्छा त्यागो, होशमें आओ, मुझे दर्शन देकर मेरा कल्याण करो!  उद्धवकी प्राथना सुनकर 'श्रीकृष्ण -श्रीकृष्ण' कहती हुई राधा होशमें आयीं! उन्होंने आँखें खोलकर धीरेसे पूछा - 'श्रीकृष्णके समान शरीर और वेशभूषावाले तुम कौन हो? तुम कहाँसे आये हो? क्या श्रीकृष्णने तुम्हें भेजा
प्रेमी भक्त उद्धव : ..... गत ब्लॉग से आगे...  तुम्हारी कीर्तिसे ही सारा संसार भरा हुआ है! तुम भगवान् श्रीकृष्णकी नित्य प्रिया आह्लादिनी शक्ति हो! वे जब जहाँ जिस रूपमें रहते हैं तब तहाँ वैसा ही रूप धारण करके तुम भी उनके साथ रहती हो! जब वे महाविष्णु हैं तब तुम महालक्ष्मी हो!जब वे सदाशिव हैं तब तुम आद्याशक्ति हो! जब वे ब्रम्हा हैं तब तुम सरस्वती हों! जब वे राम हैं तब तुम सीता हो और तो क्या कहूँ; माता! तुम उनसे अभिन्न हो! जैसे गन्ध और पृथ्वी, जल और रस, रूप और तेज, स्पर्श और वायु, शब्द और आकाश पृथक-पृथक नहीं हैं, एक ही हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण तुमसे पृथक नहीं है! ज्ञान और विद्या, ब्रह्मा और चेतनता, भगवान् और उनकी लीला  जैसे एक हैं वैसे ही तुम भी श्रीकृष्णसे एक हो, वे गोलोकेश्वर हैं तो तुम गोलोकेश्वरी हो! देवी! यह मूर्छा त्यागो, होशमें आओ, मुझे दर्शन देकर मेरा कल्याण करो!  उद्धवकी प्राथना सुनकर 'श्रीकृष्ण -श्रीकृष्ण' कहती हुई राधा होशमें आयीं! उन्होंने आँखें खोलकर धीरेसे पूछा - 'श्रीकृष्णके समान शरीर और वेशभूषावाले तुम कौन हो? तुम कहाँसे आये हो? क्या श्रीकृष्णने तुम्हें भेजा
प्रेमी भक्त उद्धव : ..... गत ब्लॉग से आगे...  तुम्हारी कीर्तिसे ही सारा संसार भरा हुआ है! तुम भगवान् श्रीकृष्णकी नित्य प्रिया आह्लादिनी शक्ति हो! वे जब जहाँ जिस रूपमें रहते हैं तब तहाँ वैसा ही रूप धारण करके तुम भी उनके साथ रहती हो! जब वे महाविष्णु हैं तब तुम महालक्ष्मी हो!जब वे सदाशिव हैं तब तुम आद्याशक्ति हो! जब वे ब्रम्हा हैं तब तुम सरस्वती हों! जब वे राम हैं तब तुम सीता हो और तो क्या कहूँ; माता! तुम उनसे अभिन्न हो! जैसे गन्ध और पृथ्वी, जल और रस, रूप और तेज, स्पर्श और वायु, शब्द और आकाश पृथक-पृथक नहीं हैं, एक ही हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण तुमसे पृथक नहीं है! ज्ञान और विद्या, ब्रह्मा और चेतनता, भगवान् और उनकी लीला  जैसे एक हैं वैसे ही तुम भी श्रीकृष्णसे एक हो, वे गोलोकेश्वर हैं तो तुम गोलोकेश्वरी हो! देवी! यह मूर्छा त्यागो, होशमें आओ, मुझे दर्शन देकर मेरा कल्याण करो!  उद्धवकी प्राथना सुनकर 'श्रीकृष्ण -श्रीकृष्ण' कहती हुई राधा होशमें आयीं! उन्होंने आँखें खोलकर धीरेसे पूछा - 'श्रीकृष्णके समान शरीर और वेशभूषावाले तुम कौन हो? तुम कहाँसे आये हो? क्या श्रीकृष्णने तुम्हें भेजा
प्रमी भक्त उद्धव : ...... गत ब्लॉग  से आगे.... (४) सारे जगतमें आत्मा भगवन श्रीकृष्ण हैं! यह जगत तभी सुखी होता हैं, शांति पाता हैं, जब अपनी आत्मा भगवान् की सन्निधिका अनुभव करता है! बिना उनके इसमें सुख नहीं, शांति नहीं, आनंद नहीं! परन्तु श्रीकृष्णकी आत्मा क्या है, कौन- सी ऐसी वस्तु है, जिसके बिना श्रीकृष्ण भी छटपटाते रहते हैं और जिसे पाकर उनका आनंद अनंत-अनंत गुना बढ़ जाता है! वह हैं श्रीराधा! श्रीराधा ही श्रीकृष्णकी आत्मा हैं और उन्हींके  साथ रमण करनेके कारण श्रीकृष्णको आत्माराम कहा गया है! श्रीकृष्णके बिना राधा प्राणहिन हैं और राधाके बिना श्रीकृष्ण आनंदहिन हैं! ये दोनों कभी अलग होते ही नहीं! अलग होनेकी लीला करते हैं और इसलिये करते हैं कि लोग परम प्रेमका, परम  आनंदका साक्षात् दर्शन करें! इनके दर्शन श्रीकृष्णमें, श्रीराधामें ही सम्पूर्ण रूपसे प्राप्त हो सकते हैं! जबसे श्रीकृष्ण मथुरा गये, तबसे राधाकी विचित्र दशा थी! रातको नींद नहीं आती, दिनको शान्तिसे बैठा नहीं जाता, कभी वृत्तियाँ लय हो जाती हैं तो कभी मूर्छित! कभी पागल-सी होकर नाना प्रकारके प्रलाप करती हैं तो कभी सुरीली वानिके
प्रमी भक्त उद्धव : ...... गत ब्लॉग  से आगे.... हम भला उन्हें कैसे भूल सकती हैं? हे नाथ, हे रमानाथ, हे व्रजनाथ, हे दीनबन्धो! हम दुःखके समुद्रमें डूब रही हैं! हमें बचाओ! हमारा उद्धार करो! श्रीकृष्णके  संदेशोंसे गोपियोंकी  विरहज्वाला बहुत कुछ शान्त हुई! वे उद्धवको श्रीकृष्णस्वरुप मानकर उनका सत्कार करने लगीं! उन्होंने कहा -' उद्धव! तुम राधिकाके पास चलो! भगवान् के विरहमें उनकी क्या दशा हो रही है, चलकर देखो! वे मर-मरकर जीती हैं, जी-जीकर मरती है! चिंता, जागरण, मूर्छा, प्रलय इन्हींका क्रम चालू रहता है, वे कभी मत्त हो जाती हैं, कभी मोहित हो जाती हैं, चलो उनके दर्शन करो, उनके चरणोंमें सर नवाकर कुछ सीखो! उद्धवने उनके साथ श्रीराधाके पास जानेके लिये प्रस्थान किया! [२२]
प्रमी भक्त उद्धव : ...... गत ब्लॉग  से आगे.... मैं तुम्हारे पास ही हूँ! तुम्हारे हृदयमें हूँ, तुम्हारी आत्माके रूपमें हूँ! वियोग क्या वस्तु है? इसके लिये पीड़ित होनेकी क्या आवश्यकता? मुझे ढूँढो मत, मेरा अनुभव करो, मैं तुम्हारे पास हूँ! उद्धव इतना कहकर चुप हो गये! अपने प्रियतमका आदेश, अपने प्राणोंका सन्देश सुनकर गोपियोंको बड़ा ही आनंद हुआ! उनके सन्देशसे उनकी स्मृति ताज़ी हो गयी, वे प्रसन्न होकर उद्धवसे बोलीं -- 'श्रीकृष्ण प्रसन्न हैं, आनंदसे हैं, यह बड़ी अच्छी बात हैं! कंस और उसके अनुचर मर गये, जगतका बड़ा कल्याण हुआ! जैसे हम उन्हें देख-देखकर प्रसन्न होती थी, वैसे ही मथुरावासी भी उन्हें देख-देखकर प्रसन्न होते होंगे! वहाँके लोग विशेष प्रेमी होंगे, उनके प्रेमपाशमें श्रीकृष्ण बँध जायँ, यह स्वाभिविक ही है! क्या वे उनमें रहकर हमारी याद रख सकेंगे? रखते हैं? क्या उन्हें वह रात्री याद है, जब उन्होंने चन्द्रिकाचर्चित वृन्दावनमें हमलोगोंके साथ गा- गाकर, नाच-नाचकर रासलीला की थी! क्या वे हमारे प्राणोंको जीवित करनेके लिये यहाँ आवेंगे? अब वे हम वनवासियोंके पास क्यों आने लगे? वे आत्माराम हैं
प्रेमी भक्त उद्धव : ...... गत ब्लॉग से आगे .... भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे तुम्हें सर्वात्मभावकी प्राप्ति हो गयी है! तुम्हें हर जगह श्रीकृष्ण-ही श्रीकृष्ण दीखते हैं! तुम्हारे पास भेजकर श्रीकृष्णने मुझपर बड़ा ही अनुग्रह किया है! मैं तुम्हारे दर्शनसे धन्य हो गया! कल्याणी गोपियो! उन्होंने तुम्हारे लिए जो सन्देश कहा है, मैं वही सुनाता हूँ! वह सुनकर तुम्हें बड़ा ही आनंद होगा! उनका यही एकांत सन्देश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ!' 'श्रीकृष्णने कहा है-- मेरी प्रिय गोपियों! मैं कभी तुमलोगोंसे अलग नहीं रह सकता! जैसे पृथ्वी,  जल, वायु ये आकाशसे अलग नहीं हो सकते वैसे ही तुम हमसे अलग नहीं हो सकती! तुम्हारा मन, तुम्हारा प्राण, तुम्हारा शरीर, तुम्हारी इन्द्रियाँ, तुम्हारे गुण और जो कुछ तुम हो, सब मुझमें है, अपने-आपका ही पालन करता हूँ और अपने -आप ही अपने-आपका संहार करता हूँ! मैं अपनी ही मायासे, अपनी ही शक्तिसे स्वयं ही इन रूपोंमें बन जाता हूँ! आत्मा ज्ञानस्वरुप है! वह मायासे, रहित और गुणोंसे परे है! स्वप्न, सुषुप्ति, जाग्रत  इन तीनों अवस्थाओंसे परे और इनका साक्षी हैं! वियोग  तो तब है, जब

प्रेमी भक्त उद्धव

चैत्र कृष्ण अमावस्या, वि.सं.-२०६८, गुरुवार प्रेमी भक्त उद्धव: गत ब्लॉग से आगे..... हम यमुनाका जल लानेका, दही बेचनेका और भी किसी काम-काजका बहाना बनाकर कई बार वनमें जातीं और उन्हें देख आतीं! जब वे शामको लौटते, हम पहलेसे ही रास्तेपर खड़ी होतीं और उनका मार्ग देखा करती! वे जब बाँसुरी बजाते हुए ग्वालबालोंके साथ लौटते थे, उनके घुँघराले काले केशोंपर व्रजराज पड़ी होती थी, उनके कपोलोंपर श्रमबिंदु उग आये होते थे तो देखकर हमें कितनी प्रसन्नता होती, कितना आनंद होता, कह नहीं सकतीं! हम रातमें भी नंदबाबाके घर जातीं! वे बाँसुरी बजाकर हमें वन में बुलाते, हमारे साथ क्रीडा करते! वह सब कहनेसे अब कोई लाभ नहीं! हमने व्रत करके, उपवास करके, देवी-देवताओंकी मानता करके, हृदयसे आत्मासे यही चाह था कि श्रीकृष्ण ही हमारे स्वामी हों, वे हुए भी परन्तु  उद्धव! अब वे कहाँ हैं? अब हम उनकी बातें कह रही हैं, उनका सन्देश हम पा रहीं हैं, उनका सुमिरन हम कर रही हैं, परन्तु अब वे कहाँ हैं? हमारे बीचमें वे नहीं है! हमारा जीवन भार हैं, व्यर्थ है!' कहते -कहते गोपियाँ तन्मय हो गयीं! उनका बाह्यज्ञान जाता रहा! गोपियोंमें जब क

प्रेमी भक्त उद्धव

चैत्र कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार प्रेमी भक्त उद्धव: गत ब्लॉग से आगे........ परन्तु जब उन्होंने स्वीकार कर लिया तब तो उनपर हमारा हक़ हो गया, हमारा दावा हो गया! चाहिये  तो यह था की वे हमारी इच्छाके विपरीत एक क्षणके लिए भी हमसे अलग नहीं होते! परन्तु हम यह नहीं चाहतीं! हृदयसे भी चाहनेपर भी उनपर कोई दबाव नहीं डालतीं, उनसे कहतीं नहीं परन्तु हम इसी प्रकार कितने दिनोंतक घुल-घुलकर मरती रहेंगी? हम बहुत दिनोंतक शान्तिसे प्रतीक्षा भी करती रहतीं यदी ये दिन शीघ्रतासे बीतते होते! एक-एक दिन पहाड़ से भारी होते जा रहे हैं! समुद्र -से अपार होते जा रहे हैं! हम क्या करें, ये दिन कैसे बितावें? एक पलक युग हो गया, आँखोंसे आँसुओंकी धारा रूकती ही नहीं, सब सुना-ही-सुना दीखता है! हमारा यह सूनापन क्या कभी बीतेगा ही नहीं? 'उद्धव! हमें अपने वे दिन स्मरण हैं, जब हमारे प्रियतम, हमारे श्रीकृष्ण गौओंको चरानेके लिये जंगलमें जाया करते थे! एक-एक पल हम विकल होकर बितातीं और ह्रदय हहरता रहता की कहीं उनके कमल-से कोमल चरणोंमें काँटे-कुश न गड जायँ! उनके लाल-लाल तलुओंमें पीड़ा न पहुँच जाय! उद्धव! हमारा हृदय  जान

प्रेमी भक्त उद्धव

चैत्र कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे... इसी समय यमुनामें स्नान करके आते हुए उद्धव दिख पड़े! उद्धवको देखकर उन्हें और भी आश्चर्य हुआ! वैसा ही शरीर, वैसी ही बाँहें, वैसी ही कमलके समान नेत्र, गलेमें कमलकी माला और पीताम्बर धारण किये हुए! मुखपर वैसी ही प्रसन्नता खेल रही थी! परन्तु ये श्रीकृष्ण नहीं थे! ये दर्शनीय पुरुष कौन हैं, कहाँसे आये और श्रीकृष्ण के समान ही इन्होनें वेष-भूषा क्यों धारण कर रखी है? हो-न-हो ये उन्हींके अनुचर है! उन्हींके सहचर हैं! उन्होंनेही इन्हें भेजा होगा! तब क्या वे हमारा स्मरण करते हैं? जैसे उनके लिए हम छटपटाती रहती हैं, क्या वैसे ही हमारे  लिये वे छटपटाते रहते हैं? हो सकता है, छटपटाते हों! परन्तु नहीं, तब क्या वे दो दिनके लिये आ नहीं सकते थे? फिर इन्हें भेजा क्यों हैं? माता-पिताकी सांत्वनाके लिये! अच्छी बात है! पर क्या केवल बातोंसे ही उनका ह्रदय शांत हो जायगा? उन्हें आश्वासन मिल जायगा? यह असंभव है! शायद हमारे लिये भी कुछ सन्देश कहला भेजा हो! न भी कहलाया हो तो क्या,ये अनुचर तो हैं न! इनसे बात करनेपर उनकी कोई बात सुन

प्रेमी भक्त उद्धव

प्रेमी भक्त उद्धव चैत्र कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे... हम इन दोनों बातोंकी परिणति उद्धवके जीवनमें पायेगें! अभी तो उद्धव सीख रहे हैं, सिखने आये हैं! आगे चलकर श्रीकृष्णने वियोगमें भी इन्हें जीवन धारण करना पड़ेगा और संसारके  सामने प्रेमभक्तिका आदर्श स्थापित करना होगा तथा उसका रहस्य बतलाना होगा! व्रजमें उन्होंने गोपियोंमें क्या देखा, क्या सीखा, अभी तो यही चर्चा प्रासंगिक है! सूर्योदयका समय था! दूद दुहा जा चूका था! दही मथनेकी ध्वनि अब कम हो चली थी! हरे-हरे वृक्षोंपर रंग-विरंगे पक्षी चहक रहे थे! बछड़े भी कूदक-कूदककर अपने हमजोलियों और माताओंसे खेल रहे थे! प्रेमकी करुनामिश्रित धारा चारों और फैली हुई थी, सब कुछ था परन्तु वह रौनक न थी जो श्रीकृष्णके रहनेपर रहती थी! सभीके आँखें किसीका अन्वेषण कर रही थीं! सबको एक अभाव-सा खटक रहा था! और जहाँ दृष्टि पड़ती थी वहाँ सुना-सा जान पड़ता था! मशीनकी भाँती सब अपने-अपने काममें लगे हुए थे परन्तु उनमें उत्साह नहीं था, स्फूर्ति नहीं थी! वे उन कामोंकी ओरसे कुछ उदासीन, कुछ सिथिल और कुछ खींचे हुए-से-जान पड़त

प्रेमी भक्त उद्धव

प्रेमी भक्त उद्धव चैत्र कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे... भगवत्सम्बंधके जितने भाव हैं, उनमें सख्य, वात्सल्य और माधुर्य --ये तीन भाव प्रधान हैं! यों तो भगवान् के साथ होनेवाले सभी सम्बन्ध उत्तम ही हैं परन्तु व्रजभूमिमें इन्हीं तीनोंकी विशेषता है! इन तीनोंमें भी माधुर्यभाव परम भाव है और वह रहस्य रस है! जो भगवान् के सख्य और वात्सल्यभावसे परिचित नहीं, इस मधुरतम रसमें उनका प्रवेश नहीं हो सकता! मधुर भाव क्या हैं? आत्माका आत्मामें रमण! भगवान् का अपनी आत्मस्वरूपा एवं अंतरंगा शक्तियोंके साथ, जो  की भगवन्मय ही हैं, दिव्य क्रीडा! आनंद और प्रेमका संयोग! त्रिगुणसे परे, प्रकृतिसे परे जो आत्माका आत्मस्वरूप ही रस है उसका आस्वादन! इसे उज्जवल रस भी कहते हैं!  इस उज्जवल रसमें एक होनेपर भी दो प्रकारकी अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं! एक मिलनकी और दूसरी बिछोहकी! भगवान् से मिलन और उनके साथ रस-क्रीडाका अवसर विरलेही भाग्यवानोंको मिलता है! उसे चाहनेपर भी गोपियोंका पद- रज ह्रदयमें धारण किये बिना कोई नहीं पा सकता! अधिकांश लोग ऐसे ही हैं, जो भगवान् से बिछुड़े हुए

प्रेमी भक्त उद्धव:

चैत्र कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे... 'वे सीघ्र ही यहाँ आयेंगे भी! यदि आप उन्हें शरीरसे  देखना चाहते हैं तो यह भी होगा, आप उनसे प्रेम करें और वे आपके पास न आवें, ऐसा नहीं हो सकता! कंस आदि दुष्टोंको मारनेके बाद यदुवंशियोंकी रक्षा- दीक्षाका सारा भार उन्हींपर आ पड़ा है! उनकी व्यवस्था करके वे यहाँ आ सकते हैं! गोपोंके वहाँसे चलनेके समय जो कुछ उन्होंने कहा था उसे श्रीकृष्ण अवश्य पूरा करेंगे! आपलोग बड़े ही भाग्यवान हैं! आप अपने निकट ही श्रीकृष्णका दर्शन प्राप्त करेंगे! वे आपसे दूर थोड़े ही हैं! वे आपके अंतरात्मा हैं, वे काष्टमें अग्निकी भाँती सर्वत्र व्यापक हैं! उनके लिये खिन्न होनेकी आवश्यकता नहीं! उनका न तो कोई प्रिय हैं और न तो अप्रिय! उनकी दृष्टिमें न कोई ऊँचा है, न नीचा! वे सर्वत्र समान हैं, अभिमान उनका स्पर्श नहीं कर पाता! न तो उनकी कोई माता है, न पिता है, न पत्नी है और न पुत्र! न कोई अपना है, न पराया! न शरीर है और न तो जन्म! न उनका कोई कर्म है और न तो उन्हें कर्मोंका फल भोगना है! वे अपने प्रेमी भक्तोंकी रक्षाके लिये लीलावतार ग

प्रेमी भक्त उद्धव:

चैत्र कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे.... यमुना -किनारे जाती हूँ, घण्टों बैठकर उसकी लहरियाँ गिनती रहती हूँ! ऐसा मालूम पड़ता है कि इसी नीले जलमें वह कहीं छिपा होगा परन्तु जब घण्टों नहीं निकलता तो आँखोंपर बड़ा क्रोध आता है! मैं अपने हाथोंसे ही इन आँखोंको फोड़ डालती, अपने श्यामसुन्दरके अतिरिक्त और किसीको देखना ही क्या है परन्तु उसीको देखनेकी लालसासे इन्हें बचा रखा है! क्या कभी मेरी अभिलाषा पूरी होगी, क्या दो दिनके लिए भी वह मेरे पास आवेगा? क्या मैं फिर उसे अपनी गोदमें ले सकूँगी? उद्धव! क्या मेरा जीवन, मेरी आँखें कभी सफल हो सकेंगी?' यशोदाकी आँखोंसे झर-झर आँसूके निर्झर बह रहे थे! उनका गला भर आया, वे चुप होकर उद्धवकी  और देखने लगी! नन्द और यशोदाके इस अलौकिक प्रेमको देखकर उद्धव अवाक् हो गये! उनसे कुछ बोला नहीं गया! उद्धवमें शांत भक्ति पहलेसे ही थी, दास्यभाव भी था, सख्यका भी कुछ अंकुर उग  आया था; उनकी ऐसीही मानसिक स्थितिमें श्रीकृष्णने उन्हें वृन्दावन भेजा था! वृन्दावनमें प्रवेश करते ही उद्धवको सख्य-रसकी पूर्णता प्राप्त हुई! श्रीदामा आदि

प्रेमी भक्त उद्धव:

चैत्र कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, सोमवार प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे.... क्या अपनी माँको भी कोई भूल सकता है? मेरा वही इकलौता लाल है! जब वह मुझसे हठ करता था, किसी बातके लिये मुझसे अड़ जाता था तो बिना वह काम कराये मानता ही नहीं था! वहाँ किसके सामने हठ करता होगा, मेरी ही भाँती कौन उसका दुलार करता होगा? कौन उसकी जिद्दको पूरी करता होगा? मेरा नन्हा व्रजका सर्वस्व है! कुलका दीपक है! उसे खिला-पिलाकर मैंने बहुत -से दिन पलके समान बिता दिये हैं! उस दिनकी बात तुमने भी सुनी होगी!         मैं दही मथ रही थी, मैं तन्मय होकर दही मथनेमें  लगी थी और ऐसा सोच रही थी की मेरा कन्हैया अभी सो  रहा है! एकाएक वह आया और पीछेसे उसने मेरी आँखें बंद कर लीं! मैं उसके कोमल करोंका मधुर स्पर्श पाकर आनंदके मारे सिहर उठी! मैंने धीरेसे अपनी बाँहोंमें लपेटकर उसे अपनी गोदमें ले लिया और दूध पिलाने लगी! कभी-कभी वह दूध पीना छोड़कर मेरी और देखता, कितना सुन्दर, कितना कोमल, मरकतमणि -सा चिक्कन उसका कपोल है! लाल-लाल ओठोंमेंसे सफ़ेद-सफ़ेद दंतुलियाँ कितनी सुन्दर लग रही थीं! मैं मुग्ध होकर दिग्धके समान स्निग्ध उस

प्रेमी भक्त उद्धव

चैत्र कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार ( संत श्री तुकाराम जयंती) प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे.... श्रीकृष्ण केवल मेरे बालक ही नहीं हैं, वे हमारे और सम्पूर्ण व्रजके जीवनदाता हैं! उन्होंने दावाग्निसे, बवण्डरसे, वर्षासे, वृषासुरसे और अघासुरसे हमारी रक्षा की है, हमें मृत्युके मुँहसे बचाया है! हम इनके इस दृष्टिसे भी आभारी हैं! परन्तु क्या उन्होंने इसी दिनके लिये हमें बचाया था? क्या यही दुःख देनेके लिये उन्होंने हमें सुखी किया था? उद्धव! क्या कहूँ? मैं उनकी शक्ति का स्मरण करता हूँ, उनके खेल का स्मरण करता हूँ, उनका मुखड़ा, उनकी टेढ़ी-टेढ़ी भौहें, उनके वे काली घुँघराली अलकें मेरे सामनेसे नाच जाती हैं, वे मेरे सामने हँसते हुए -से दीखते हैं! मेरी गोदमें बैठकर मुझे 'पिताजी' 'पिताजी' पुकारते हुए जान पड़ते हैं! वे मेरे पीछेसे आकर मेरी आँखें बंद कर लेते थे, मेरी गोदमें बैठकर मेरी दाढ़ी खींचने लगते थे, ये सब बातें मुझे, आज भी याद आती हैं, आज भी मैं उसी रसमें डूबा जाता हूँ! परन्तु हा देव, कहाँ है वे? मैं लाल-लाल ओठोंवाले कमलनयन  श्यामसुन्दरको बलराम और बालकोंके स
प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे.... चैत्र कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार ( संत श्री तुकाराम जयंती) प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे.... श्रीकृष्ण केवल मेरे बालक ही नहीं हैं, वे हमारे और सम्पूर्ण व्रजके जीवनदाता हैं! उन्होंने दावाग्निसे, बवण्डरसे, वर्षासे, वृषासुरसे और अघासुरसे हमारी रक्षा की है, हमें मृत्युके मुँहसे बचाया है! हम इनके इस दृष्टिसे भी आभारी हैं! परन्तु क्या उन्होंने इसी दिनके लिये हमें बचाया था? क्या यही दुःख देनेके लिये उन्होंने हमें सुखी किया था? उद्धव! क्या कहूँ? मैं उनकी शक्ति का स्मरण करता हूँ, उनके खेल का स्मरण करता हूँ, उनका मुखड़ा, उनकी टेढ़ी-टेढ़ी भौहें, उनके वे काली घुँघराली अलकें मेरे सामनेसे नाच जाती हैं, वे मेरे सामने हँसते हुए -से दीखते हैं! मेरी गोदमें बैठकर मुझे 'पिताजी' 'पिताजी' पुकारते हुए जान पड़ते हैं! वे मेरे पीछेसे आकर मेरी आँखें बंद कर लेते थे, मेरी गोदमें बैठकर मेरी दाढ़ी खींचने लगते थे, ये सब बातें मुझे, आज भी याद आती हैं, आज भी मैं उसी रसमें डूबा जाता हूँ! परन्तु हा देव, कहाँ है वे? मैं लाल-लाल ओ

प्रेमी भक्त उद्धव

                         फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, गुरुवार प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे.... इन ग्वालबालोंका प्रेम देखकर उद्धव तो मुग्ध हो रहे थे! वे पुनः रथपर सवार नहीं हुए! ग्वालबालोंके साथ ही बातचीत करते हुए व्रजकी दशा* देखते हुए नंदबाबाके दरवाजेके पास आ पहुँचे! ग्वालबाल दुसरे दिन मिलनेकी बात कहकर अपनी गौओंको ले-लेकर अपने-अपने घर चले गये! उद्धवने जाकर नंदबाबाको प्रणाम किया! नंदबाबाने उठकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और बड़ी प्रसन्नतासे, बड़े प्रेमसे उन्हें साक्षात श्री कृष्ण समझकर उनका सत्कार किया! जब वे नित्य-कृत्य और भोजन-भजनसे निवृत्त हुए तथा प्रसन्न होकर आसनपर बैठे तब नंदबाबाने बड़े प्रेमसे उनके पास बैठकर मथुराका कुशल-समाचार पूछा! नंदबाबाने कहा - 'उद्धव! मेरे प्रिय बंधू वासुदेव कुशलसे हैं न? उनके पुत्र, मित्र, भाई, बंधू सब प्रसन्न हैं न? बहुत दुःखके बाद उन्हें सुखके दिन देखनेको मिले हैं, यह भगवान् की बड़ी कृपा है! पापी कंस पापके परिणामस्वरूप अपने साथियोंके साथ मारा गया! वह धार्मिक यदुवाशियोंसे बड़ा ही द्वेष रखता था! अब तो सब लोग स्वतंत्रासे धर्माचर

प्रेमी भक्त उद्धव

                  सभी भक्तों को होली की शुभकामनाएँ फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार   प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे.... श्रीदामाने कहा -- 'क्या श्रीकृष्ण इतने निर्मोही हो गये? परन्तु ऐसी सम्भावना नहीं है! उनका ह्रदय बड़ा कोमल है! वे जब गौओंको चराकर लौटते थे, रातमें हमलोग अपने घर चले जाते थे और वे अपनी माँके पास जाकर सोते थे तब रातमें भी वे हमारे लिये छटपटाया करते थे! स्वप्नमें भी हमारा नाम लेकर पुकारा करते थे! प्रातः काल होते  ही हमलोगोंके पास आनेके लिये उतावले हो उठते थे! यदि माँ यशोदा सावधान न रहतीं तो वे बिना कुछ खाये-पिये हमलोगोंके पास दौड़ आते थे! दिनभर हमारे साथ खेलते थे, खाते थे,हमें तनिक भी कष्ट नहीं होने देते थे! वे ही हमारे श्रीकृष्ण, वही हमारा कन्हैया मथुरामें जाकर इतना निष्ठुर हो गया! यह कैसे सोचें,कैसे समझें, कैसे विश्वास करें?' 'उद्धव! तुम कहते  हो की एक-न -एक दिन वे हमें अवश्य मिलेंगे! परन्तु तुम जानते नहीं की उनके बिना एक क्षण युगके समान, एक घड़ी मन्वन्तरके समान,एक पहर कल्पके समान और एक दिन द्वीपरार्धके समान व्यतीत होता

प्रेमी भक्त उद्धव

फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे.... व्रजभूमि प्रेमकी भूमि है! लीलाकी भूमि है! वहाँके एक-एक रजकण पूर्ण रसमय हैं, वहाँके एक-एक अणुसे अनन्त-अनन्त आनन्दकी धारा प्रवाहित होती है! वहाँकी लताएँ साधारण नहीं है! मृदुलताकी लताएँ हैं! वहाँके वृक्षोंकी पंक्ति रसिकोंकी जमात है! वहाँकी नदियाँ प्रेमके अमृतसे भरी रहती हैं! वहाँके वायु-मंडलमें श्रीकृष्णके विग्रहकी दिव्य सुरभि प्रवाहित हुआ करती है! वहाँकी गौएँ साक्षात उपनिषदें हैं! वहाँका गौरस ब्रह्मरस है! वहाँके ग्वाल, गोपियाँ सब श्रीकृष्णके अंग हैं! श्रीकृष्ण ही व्रजके रूपमें प्रकट हैं! श्रीकृष्ण व्रजमय हैं,श्रीकृष्णमय व्रज है! वहाँ प्रेम,आनन्द, शांतिके अतिरिक्त और कुछ नहीं है!  सन्ध्याका समय था, गौएँ वृन्दावनकी  और लौट रही थीं! उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल श्रीकृष्णकी लीलाओंका गायन करते हुए जा रहे थे! किसीकी दृष्टि दुरसे उड़ती हुई धुलपर पड़ी, मानो व्रजकी रजरासी पहले स्नान कराकेकिसीको व्रजमें आनेका अधिकार बना रही हो! जब रथ दिखने लगा तब किसीने कहा --' देखो वह रथ आ रहा है!' किसीने कह

प्रेमी भक्त उद्धव

फल्गुन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे.... 'उद्धव! व्रजका एक-एक स्थान, वहाँका एक-एक वृक्ष, एक -एक लता मुझे स्मरण आ रही है, मैं उन्हें भूल नहीं रहा हूँ! वहाँके सारस, हंस, मयूर, कोकिल सभी मुझे याद आ रहे हैं! वहाँकी वे हरिण और हरिणीयाँ, जो मेरे पास आकर मेरा शरीर खुजलाती थीं, मेरे ह्रदयमें वैसी ही चेष्टा करती हुई दीख रही हैं! वहाँके भौरोंकी गुंजार अब भी मेरे कानोंको भर रही है! वहाँके पक्षियोंका  कलरव अब भी मेरे मनको मोहित कर रहा है! उद्धव! तुम जाओ, अब तनिक भी विलम्ब मत करो!' सम्भव है, गोपियोंके प्रेमका वर्णन सुनकर उद्धवके मनमें यह अभिलाषा रही हो की मैं व्रजमें जाकर उनका प्रेम देखूँ! अथवा शायद वे ज्ञानमें ही डूबते रहे हों, भगवान् ने प्रेमरसके आस्वादनके लिये उन्हें व्रजमें भेजा हो; कुछ भी हो, भगवान् ने उन्हें व्रजमें भेजा और उन्होंने अविलम्ब आज्ञाका पालन किया! उद्धव भगवान् का सन्देश लेकर रथपर सवार हुए और संध्या होते-होते वे व्रजकी सीमामें पहुँच  गए! वहाँकी हरी-हरी वनपंक्तियाँ सुर्यकी लाल-लाल किरणोंसे अनुरंजित हो रही थीं, मानों व

प्रेमी भक्त उद्धव

फाल्गुन शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे.... 'मेरे वे सखा, मेरे संगी, जिनके साथ मैं खेलता था, जिनसे मेरा ऊँच-नीचका तनिक भी व्यवहार नहीं था, जो घुल-मिलकर मुझसे एक हो गये थे, आज भी गौओंको लेकर जंगलमें चराने आते होंगे! और दिनभर टकटकी लगाकर मथुराकी और देखते रहते होंगे! उद्धव! वे मेरे जीवन-सखा हैं! सहचर हैं! मेरी लीलाके सहकारी हैं! उनके साथ मैं जंगलमें खता था! वे अपने घरसे अच्छी-अच्छी चीजें ला-लाकर पहले मुझे खिलाया करते थे! गौएँ दूर चली जाती तो वे मुझे नहीं जाने देते, स्वयं ही जाकर हाँक लाते थे! उनपर तनिक सी भी आपत्ति आती तो वे मुझे पुकारने लगते, सच्चे ह्रदय से पुकारते! ब्रह्मा उन्हें हर ले गये! मैंने वर्षभरतक उनका रूप धारण किया! ब्रह्मा छक गये! इन्द्र ने उनका अनिष्ट करना चाहा, मैंने सात दिनोंतक अपनी ऊँगलीपर गौवर्धन उठा रखा! उनके साथ मैं उछलता था, कूदता था, खेलता था, उनकी स्मृति मुझे रह -रहकर आया करती है! तुम जाओ! उन्हें केवल तुम्हीं समझा सकते हो!  'मेरी गौएँ हैं! मैं जब उनके पीछे -पीछे चलता था तो वे सर घुमा-घुमाकर मुझे देख लिया करती

प्रेमी भक्त उद्धव

प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे...  श्रीकृष्णने अपने परम प्रेमी सखा उद्धवको एकांतमें ले जाकर उनका हाथ अपने हाथमें लेकर बड़े ही प्रेमसे कहा! उस समय श्रीकृष्णके मुखमण्डलपर करुनाका संचार हो गया था! उनकी आँखें प्रेमसे भरी हुई थीं! उन्होंने उद्धवसे कहा -' प्यारे उद्धव! तुम्हें मेरा एक काम करना होगा! यह काम केवल तुम्हारे ही करनेयोग्य है! तुम व्रजमें जाओ! वहाँ मेरे सच्चे माता-पिता रहते हैं! मैं उनकी गोदमें खेलता था, वे दुलारके साथ मुझे अपने हाथों खिलाते थे, आँखोंकी पुतलीकी भाँती मुझे जोगवते ही उनका सारा समय बीतता था! यदि मेरे कलेवा करनेमें तनिक भी देर हो जाती थी तो वे छटपटा उठते थे! मैं हठ करके गौओंको चराने चला जाता था तो दिनभर उनकी आँखें वनकी ही और लगी रहती थीं! मेरे बिना उनका जीवन भार हो गया होगा! मक्खन-मिश्री देखकर उन्हें मेरी याद आती होगी, बाँसुरी देखकर वे बेसुध हो जाते होंगे, मेरी प्यारी गौएँ जब मुझे ढूँढती  हुई -सी इधर -उधर भटकती होगीं, तब उनका कलेजा फटने लगता होगा! उन्हें केवल तुम्हीं सांत्वना दे सकते हो! मेरे ह्रदयकी बात जाननेवाले  उद्धव! उन्हें प्रसन्न करनेकी क्ष

प्रेमी भक्त उद्धव

प्रेमी भक्त उद्धव:.......गत ब्लॉग से आगे...  भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावनसे मथुरामें आये, कंसका उद्धार हुआ और संस्कारसंपन्न होकर वे उज्जयिनीके गुरुकुलमें अध्ययन करने चले गये! जब वे वहाँसे लौटे और मथुरामें रहने लगे तब उद्धव प्रायः उनके साथ ही रहते थे! वे श्रीकृष्णके साथ ही सोते, श्रीकृष्णके साथ ही बैठते, उनके साथ ही टहलते, उनके साथ ही स्नान करते, मनोरंजन और भोजन भी साथ ही करते! उन्होंने अपना ह्रदय खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया था, वे श्रीकृष्णके एक अन्तरंग सखा थे! उन्हें भगवान् के दर्शनमें, संनिद्धिमें, आलापमें और आज्ञापालनमें इतना आनंद आता कि वे सारे जगतको भूले रहते! श्रीकृष्णके साथ उनका सम्बन्ध सखाका सम्बन्ध था, वे श्रीकृष्णके  एकान्त -प्रेमी थे! भगवान् किस उद्देश्यसे कौन-सी लीला करते हैं, इस बात को स्वयं भगवान् जानते हैं या उनके कृपापात्र  संत जानते हैं! हम लोग तो उस लीलाका केवल बाह्यरूप देखते हैं और अपनी बुद्धिके अनुसार उसका अर्थ कर लेते  हैं! भगवान् ने  एक दिन ऐसी ही लीला रची! पता नहीं गोपियोंके प्रेमसे आकर्षित होकर रची, अपनी दयालुतासे रची, उद्धवके हितके लिए रची अथवा गोपियोंक
गत ब्लॉग से आगे...  भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावनसे मथुरामें आये, कंसका उद्धार हुआ और संस्कारसंपन्न होकर वे उज्जयिनीके गुरुकुलमें अध्ययन करने चले गये! जब वे वहाँसे लौटे और मथुरामें रहने लगे तब उद्धव प्रायः उनके साथ ही रहते थे! वे श्रीकृष्णके साथ ही सोते, श्रीकृष्णके साथ ही बैठते, उनके साथ ही टहलते, उनके साथ ही स्नान करते, मनोरंजन और भोजन भी साथ ही करते! उन्होंने अपना ह्रदय खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया था, वे श्रीकृष्णके एक अन्तरंग सखा थे! उन्हें भगवान् के दर्शनमें, संनिद्धिमें, आलापमें और आज्ञापालनमें इतना आनंद आता कि वे सारे जगतको भूले रहते! श्रीकृष्णके साथ उनका सम्बन्ध सखाका सम्बन्ध था, वे श्रीकृष्णके  एकान्त -प्रेमी थे! भगवान् किस उद्देश्यसे कौन-सी लीला करते हैं, इस बात को स्वयं भगवान् जानते हैं या उनके कृपापात्र  संत जानते हैं! हम लोग तो उस लीलाका केवल बाह्यरूप देखते हैं और अपनी बुद्धिके अनुसार उसका अर्थ कर लेते  हैं! भगवान् ने  एक दिन ऐसी ही लीला रची! पता नहीं गोपियोंके प्रेमसे आकर्षित होकर रची, अपनी दयालुतासे रची, उद्धवके हितके लिए रची अथवा गोपियोंका प्रेम प्रकाशमें लाकर