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शरीर से प्राण कब चले जाये पता नहीं, अतः सदा तैयार रहना चाहिये । वह तैयारी है - भगवान की नित्य निरन्तर मधुर स्मृति और भोगों से सर्वथा उपरत रहना । जिसको हम सदा के लिए अपने पास नहीं रख सकते, उसकी इच्छा करने से और उसको पाने से क्या लाभ । प्रेम रूप सूर्य का उदय होते ही मोह रूप अन्धकार मिट जाता है । प्रेम से इच्छाऒं की निवृत्ति और मोह से इच्छाऒं की उत्पत्ति होती है । प्रेम अपने से, और मोह शरीर से होता है । प्रेम एक से और मोह अनेक से होता है । प्रेम के उदय होते ही विषय विकार मिट जातें हैं । प्रेमी को अनेक में एक ही मालूम होता है । एक ही भगवान अनेक रूपों में दीख रहे हैं, इसलिए सबकी सेवा भगवान की ही सेवा है ।
देहाभिमान ही पाप है और यही सबसे बड़ी अपवित्रता है! या तो अपनेको ईश्वरका पवित्र अभिन्न अंश आत्मा मानो या उस प्राणेश्वर प्रभुका दास मानो, आत्मा तो पवित्र और बलवान है ही, प्रभुका दास भी स्वामीकी सत्तासे, मालिकके बलसे मालिकके समान ही पवित्र और बलवान बन जाता है!  ईश्वरकी कभी सीमा न बाँधों, वह अनिर्वचनीय है, साकार भी है, निराकार भी है तथा दोनोंसे विलक्षण भी है! भक्त उसे जिस भावसे भजता है, वह उसी भावमें प्रत्येक्ष है; यही तो ईश्वरत्व है!  ईश्वरका स्वरूप या सृष्टिरचनाके सिद्धान्तका निर्णय करनेके बखेड़ेमें न पड़कर श्रद्धा- भक्तिपूर्वक किसी भी एक मार्गको पकड़कर आगे बढ़ना शुरू कर दो! ज्यों-ज्यों आगे बढ़ोगे, रहस्य आप ही खुलता जायगा! चलना शुरू न कर, व्यर्थ ही निर्णयमें लगे रहोगे तो किसी-न-किसीके मतके आग्रही बनकर जीवनको लड़ाई-झगडेमें ही वर्थ खो दोगे, तत्त्वकी प्राप्ति शास्त्रार्थसे नहीं होती, गुरुदेवकी सेवा और उनके बतलाये हुए मार्गपर श्रद्धापूर्वक चलनेसे ही होती है! 
ईश्वर सदा-सर्वदा तुम्हारे साथ है, इस बातको कभी न भूलो ! ईश्वरको साथ जाननेका भाव तुम्हें निर्भय और निष्पाप बनानेमें बड़ा मददगार होगा! यह कल्पना नहीं है, सचमुच ही ईश्वर सदा सबके साथ है!  ईश्वरके अस्तित्वपर विश्वास बढ़ाओ, जिस दिन ईश्वरकी सत्ताका पूर्ण निश्चय हो जायगा, उस दिन तुम पापरहित और ईश्वरके सम्मुख हुए बिना नहीं रह सकोगे ! अपनेको सदा बलवान् निरोग, शक्तिसम्पन्न और पवित्र बनाओ, ऐसा बनाने के लिये यह निश्चय करना होगा कि मैं वास्तवमें ऐसा ही हूँ! असलमें बात भी यही है! तुम शारीर नहीं,आत्मा हो! आत्मा सदा ही बलवान्, निरोग, शक्तिसम्पन्न और पवित्र है; देहको 'मैं' माननेसे  ही निर्बलता, बीमारी, अशक्ति और अपवित्रता आती है !  देहको 'मैं' मानकर कभी अपनेको बलवान्, निरोग, शक्ति-सम्पन्न और पवित्र मत समझो, यों समझोगे तो झूठा अभिमान बढ़ेगा; क्योंकि देहमें ये गुण हैं ही नहीं!   
पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, बुधवार घंटेभरके लिये भी कोई आदमी तुमसे मिले तो अपने प्रेमपूर्ण सरल व्यवहारसे उसके हृदयमें अमृत भर दो, सावधान रहो, तुम्हारे पाससे कोई विष न ले जाय! हृदयसे विषको सर्वथा निकालकर अमृत भर लो और पद-पदपर केवल वही अमृत वितरण करो!  वर्ण, जाती, विद्या, धन या पदमें बड़े हो, इसलिये अपनेको बड़ा मत समझो; याद रखो , सबमें एक ही राम रम रहा है! छोटा-बड़ा व्यवहार है न कि  आत्मा !  व्यवहारमें सब प्रकारकी समता असम्भव और हानिकर है, इससे व्यवहारमें आवश्यकतानुसार विषमता रखते हुए भी मनमें समता रखो ! आत्मरूपसे सबको एक-समझो! किसीको अपनेसे छोटा समझकर उससे घृणा न करो, न अपनेमें बड़प्पनका अभिमान ही आने दो !  बड़ा वही है, जो अपनेको सबसे छोटा मानता है! यह मंत्र सदा स्मरण रखो ! 
गत ब्लॉग से आगे ...  मनके पैदा होनेवाले प्रत्येक संकल्पके साथ राग-द्वेष रहता है, उसीके अनुसार वह सुख या दुःख का अनुभव करता है तथा इसी राग द्वेषके कारण दूसरोंमें गुण या दोष दिखेते हैं ! जिसमे राग होता है, उसके दोष भी गुण दीखते हैं और जिसमें द्वेष होता है, उसका गुण भी दोष दीखता है ! राग-द्वेषका चश्मा उतरे बिना किसीके यथार्थ रूपकी जानकारी नहीं हो सकती ! मनमें उठनेवाली प्रत्येक स्फुरणाके द्रष्टा बन जाओ,स्फुरणाओंका शीघ्र ही नाश हो जायगा; मनको वशमें करनेका यह बहुत सुन्दर तरीका है ! इसी प्रकार राग-द्वेषके द्रष्टा बननेसे राग-द्वेषके नष्ट होनेमें सहायता मिलेगी !  जीवन बहुत थोड़ा है, सबसे प्रेमपूर्वक हिल-मिलकर चलो, सबसे अच्छा बर्ताव करो, अमृतका विस्तार कर जाओ, विषकी बूँद भी कहीं न डालो! तुम्हारा प्रेमपूर्वक व्यवहार अमृत है और द्वेषपूर्ण व्यवहार ही विष है ! 
याद रखो कि उपकार या सेवा करनेवालेके प्रति कृतज्ञ होकर मनुष्य जगत् की एक बड़ी सेवा करता है, क्योंकि इससे उपकार  करनेवालेके चित्तको सुख पहुँचता है, उसका उत्साह बढ़ जाता है और उसके मनमे उपकार या सेवा करनेकी भावना और भी प्रबल हो उठती है! कृतज्ञके प्रति परमात्मा की प्रसन्नता और कृत्घ्नके प्रति कोप होता है! इससे कृतज्ञ बनो और  उपकारीके उपकारको कभी न भूलो!  हमें जो दूसरोंमें दोष दिखायी देते हैं, इसका प्रधान कारण अक्सर हमारे चित्तकी दूषित वृत्ति ही  होती है! अपने चित्तको निर्दोष बना लो, फिर जगत् में दोषी बहुत ही कम दीखेंगे!  अपने दोषोंको देखनेकी आदत डालो, बड़ी सावधानीसे ही अपने मनके दोषोंको देखो, तुम्हें पता लगेगा कि तुम्हारा मन दोषोंसे भरा है, फिर दूसरोंके दोष देखनेकी तुम्हें फुरसत नहीं मिलेगी ! 
याद रखो  दुसरेके द्वारा तुम्हारा तनिक-सा भी उपकार या भला हो अथवा तुम्हें सुख पहुँचे तो उसका ह्रदय से उपकार मानो, उसके प्रति कृतज्ञ बनो, यह मत समझो कि  यह काम मेरे प्रारब्धसे हुआ है, इसमें उसका मेरे ऊपर क्या उपकार है, वह तो निमित्तमात्र है! बल्कि यह समझो कि उसने निमित्त बनकर तुमपर बड़ी ही दया कि है! उसके उपकारको जीवनभर स्मरण रखो, स्थिति बदल जानेपर उसे भूल न जाओ और सदा उसकी सेवा करने तथा उसे सुख पहुँचानेकी चेष्टा करो; काम पडनेपर     हजारों आदमियोंके सामने भी उसका उपकार स्वीकार करनेमें संकोच न करो; ऐसा करनेसे परस्पर प्रेम बढेगा, आनन्द और शान्तिकी वृद्धि होगी, लोगोंमें दुसरोंको सुख पहुँचानेकी प्रवृत्ति  और इच्छा अधिकाधिक उत्पन्न होगी; सहानुभूति और सेवाके भाव बढेंगे!  
गत ब्लॉग से आगे ..... उसके प्रति द्वेष कभी न करो! द्वेष करोगे तो तुम्हारे मनमें वैर, हिंसा  आदि अनेक नये -नये पापोंके संस्कार पैदा हो जायँगे, उसका मन भी शुद्ध नहीं  रहेगा, उसमें पहले वैर न रहा होगा तो अब तुम्हारे असद्व्यव्हारसे पैदा हो जायगा! द्वेषाग्निसे दोनोंका ह्रदय जलेगा, वैर-भावना परस्पर दोनोंको दु:खी करेगी और पापमें डालेगी ! अतएव इस बातको सर्वथा भूल जाओ की अमुकने कभी मेरा कोई अनिष्ट किया है  पापी मनुष्य ही अपने पापोंका दोष हल्का करने या पापोंमें प्रवृत्त होनेके लिये शास्त्रोंका मनमाना अर्थ कर उससे अपना मनोरथ सिद्ध किया चाहते हैं ! भगवान् श्रीकृष्णमें कलंक नहीं है, पापियोंकी पापवासना ही उनमें कलंकका आरोप करती है !  श्रीकृष्णका उदाहरण देकर पाप करनेवाले ही कलंकी हैं, श्रीकृष्णका निर्मल चरित्र तो नित्य ही निष्कलंक है ! 
भूल जाओ  गत ब्लॉग से आगे ---- सम्भव है कि  उससे किसी परिस्थितिमें पड़कर भ्रमसे ऐसा काम बन गया  हो, जिससे तुम्हें कष्ट पहुँचा हो, परन्तु अन वह अपने कियेपर पछताता हो, उसके हृदयमें पश्चातापकी आग जल रही हो और वह संकोचमें पड़ा हुआ हो, ऐसी अवस्थामें तुम्हारा कर्त्तव्य है कि उसके साथ प्रेम करो, अच्छे -से अच्छा व्यवहार करो! उससे स्पष्ट कह दो कि भाई  ! तुम पश्चाताप क्यों  कर रहे हो? तुम्हारा इसमें दोष ही क्या है ? मुझे जो कष्ट हुआ है सो मेरे पूर्वकृत  कर्मका फल है ! तुमने तो मेरा उपकार किया है जो मुझे अपना कर्मफल भुगातनेमें कारण बने हो, संकोच छोड़ दो !  तुम्हारे सच्चे हृदयकी इन सच्ची बातोंसे उसके हृदयकी  आग बुझ जायगी, वह चेतेगा,आइन्दे किसीका बुरा न करेगा ! यदि वास्तवमें कुबुद्धिवश उसने जानकार ही  तुम्हें कष्ट पहुँचाया होगा और इस बातसे उसके मनमें पश्चातापके बदले आनन्द होता होगा तो तुम्हारे अच्छे  बर्ताव और प्रेम-व्यव्हारसे उसके हृदयमें पश्चाताप उत्पन्न  होगा, तुम्हारी महत्ता के सामने उसका सिर आप ही झुक जायगा ! उसका ह्रदय पवित्र हो जायगा! यह निश्चय है! कदाचित् ऐसा न हो तो भी तुम्हारा कोई
भूल जाओ  दुसरेके द्वारा तुम्हारा कभी कोई अनिष्ट हो जाय तो उसके लिये दुःख न करो; उसे अपने पहले किये हुए बुरे कर्मका फल समझो, यह विचार कभी मनमें मत आने दो कि 'अमुकने मेरा अनिष्ट कर दिया है, यह निश्चय समझो कि ईश्वरके दरबारमें अन्याय नहीं होता, तुम्हारा जो अनिष्ट हुआ है या तुमपर जो  विपत्ति आयी है, वह अवश्य ही तुम्हारे पूर्वकृत कर्मका फल है, वास्तवमें बिना कारण तुम्हे कोई कदापि कष्ट नहीं पहुँचा सकता ! न यही सम्भव है कि कार्य पहले हो और कारण पीछे बने, इसलिये तुम्हे जो कुछ भी दुःख प्राप्त होता है, सो अवश्य ही तुम्हारे अपने कर्मोंका फल है; ईश्वर तो तुम्हे पापमुक्त करनेके लिये दयावश न्यायपूर्वक फलका विधान करता है ! जिसके द्वारा तुम्हे दुःख पहुँचा है उसे तो केवल निमित्त समझो; वह बेचारा अज्ञान और मोहवश निमित्त बन गया है; उसने तो अपने ही हाथों अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मारी है और तुम्हे कष्ट पहुँचानेमें निमित्त बनकर अपने लिये दु;खोंको निमन्त्रण दिया है; यह तो समझते ही होंगे कि जो स्वयं दु:खोकों बुलाता है वह बुद्धिमान् नहीं है, भुला हुआ है; अतः वह दयाका पात्र है ! उसपर क्रोध न करो, बदलेमें
                                    गीता -जयन्ती याद रखो     यदि कभी किसी जीवको तुम्हारे द्वारा कुछ भी कष्ट पहुँच जाय  तो उससे क्षमा माँगो, अभिमान छोड़कर उसके सामने हाथ जोड़कर उससे दया- भिक्षा चाहो, हजार आदमियोंके सामने भी अपना अपराध स्वीकार करनेमें संकोच न करो, परिस्थिति बदल जानेपर भी अपनी बात  न बदलो, उसे सुख पहुँचाकर उसकी सेवा करके अपने प्रति उसके ह्रदयमें सहानुभूति और प्रेम उत्पन्न कराओ ! यह ख़याल मत करो कि कोई मेरा क्या कर सकता है ? मैं सब तरहसे बलवान् हूँ, धन,विद्या,पद आदिके कारण बड़ा हूँ ! वह कमजोर-अशक्त मेरा क्या बिगाड़ सकेगा? ईश्वरके दरबारमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है! वहाँके न्यायपर तुम्हारे धन, विद्या और पदोंका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा ! कमजोर-गरीबकी दुःखभरी आह तुम्हारे अभिमानको चूर्ण करनेमें समर्थ होगी! तुम्हारे द्वारा दुसरेके अनिष्ट होनेकी छोटी-से-छोटी घटना भी तुम्हारे हृदयमें सदा शूलकी तरह चुभने चाहिये, तभी तुम्हारा ह्रदय शीतल होगा और तुम पापमुक्त हो सकोगे ! 
याद रखो  तुम्हारे द्वारा किसी प्राणीका कभी कुछ भी अनिष्ट हो जाय या उसे दुःख पहुँच जाय तो इसके लिये बहुत ही पश्चात्ताप करो ! यह ख़याल मत करो कि उसके भाग्यमें तो दुःख बदा ही था, मैं तो निमित्तमात्र हूँ, मैं निमित्त न बनता तो उसको कर्मका फल ही कैसे मिलता, उसके भाग्य से ही ऐसा हुआ है, मेरा इसमें क्या दोष है, उसके भाग्यमें जो कुछ भी हो इससे तुम्हें मतलब नहीं ! तुम्हारे लिये ईश्वर और शास्त्रकी यही आज्ञा है कि तुम किसीका अनिष्ट न करो! तुम किसीका बुरा करते हो तो अपराध करते हो और इसका दण्ड तुम्हें अवश्य भोगना पड़ेगा; उसे कर्मफल भुगतानेके लिये ईश्वर आप ही कोई दूसरा निमित्त बनाते, तुमने निमित्त बनकर पापका बोझा क्यों उठाया?  याद रखो कि तुम्हें जब दुसरेके द्वारा जरा-सा भी कष्ट मिलता है, तब तुम्हें कितना दुःख होता  है, इसी प्रकार उसे भी होता है! इसलिये कभी भूलकर भी किसीके अनिष्टकी भावना ही न करो, ईश्वरसे सदा यह प्रार्थना करते रहो कि ' हे भगवन् ! मुझे ऐसी सदबुद्धि दो जिससे मैं तुम्हारी सृष्टिमें तुम्हारी किसी भी संतानका अनिष्ट करने या उसे दुःख पहुँचानेमें कारण न बनूँ ! सदैव सबकी सच्ची हित
                                          भूल जाओ  तुम्हारे द्वारा किसी प्राणीकी कभी कोई सेवा हो जाय तो यह अभिमान न करो कि मैंने उसका उपकार किया है ! यह निश्चय समझो कि उसको तुम्हारे द्वारा बनी हुई सेवासे जो सुख मिला है सो निश्चय ही उसके किसी शुभकर्मका फल है! तुम तो उसमें केवल निमित्त बने हो, ईश्वरका धन्यवाद करो  जो उसने तुम्हें किसीको सुख पहुँचानेमें निमित्त बनाया और उस प्राणीका उपकार मानो जो उसने तुम्हारी सेवा स्वीकार कि ! वह यदि तुम्हारा उपकार माने या कृतज्ञता प्रकट करे तो मन-ही-मन सकुचाओ और भगवान् से प्रार्थना करो कि हे भगवन् ! तुम्हारे कार्यमें मुझे यह झूठी बढाई क्यों मिल रही है ? और उससे नम्रतापूर्वक कहो कि भाई ! तुम ईश्वरके प्रति कृतज्ञ होओ, जिसने तुम्हारे लिये ऐसा विधान किया और पुनः -पुनः सत्कर्म करते रहो, जिनके फलस्वरूप तुम्हें बार-बार सुख ही मिले! मैं तो निमित्त-मात्र हूँ, मेरी बढाई करके मुझे अभिमानी न बनाओ ! उसपर कभी अहसान न करो कि मैंने तुम्हारा उपकार किया है ! अहसान करोगे तो उसपर भारी बोझ  पड़ जायगा ! वह दु:खी होगा, आइन्दे तुम्हारी सेवा स्वीकार करनेमें उसे संकोच हो
निर्दोष सत्यकार्यको किसी भय, संकोच या अल्प मतिके कारण कभी छोड़ना नहीं चाहिये ! कार्यकी निर्दोषता,उसकी उपकारिता और तुम्हारी श्रद्धा, नेकनीयत तथा टेकके प्रभावसे आज नहीं तो कुछ समय बाद लोग उस कार्यको जरुर अच्छा समझेंगे !  याद रखना चाहिये कि संसारके सुखोंकी अपेक्षा परमात्मसुख अतयन्त विलक्षण है, अतः संसार-सुखके लिये परमात्मसुखकी चेष्टामें कभी बाधा नहीं पहुँचानी चाहिये !  कर्त्तव्यमें प्रमाद न करना ही सफलताकी कुंजी है और उसीपर परमात्माकी कृपा होती है, आलसी और कर्तव्यविमुख लोग उसके योग्य नहीं !  किसीके मुँहसे कोई बात अपने विरूद्ध सुनते ही उसे अपना विरोधी मत मान बैठो, विरोधका कारण ढूँढो और उसे मिटानेकी सच्चे हृदयसे चेष्टा करो! हो सकता है तुमसे ही कोई दोष हो जो तुम्हें अबतक न दिख पड़ा हो अथवा वह ही बिना बुरी नियतके ही किसी परिस्थितिके प्रवाहमें बह गया हो ! ऐसी स्थितिमें शान्ति और प्रेमसे काम लेना चाहिये !  अपने हृदयको सदा टटोलते रहना ही साधकका कर्त्तव्य है, उसमें घृणा, द्वेष, हिंसा,वैर,मान-अहंकार , कामना आदि अपना डेरा न जमा लें ! बुरा कहलाना अच्छा है; परन्तु अच्छा कहलाकर बुरा ब
जो भगवान् का भक्त बनना चाहता है, उसे सबसे पहले अपना ह्रदय सुद्ध करना चाहिये और नित्य एकान्तमें भगवान् से यह कातर प्रार्थना करनी चाहिये कि हे भगवन् ! ऐसी कृपा करो जिससे मेरे हृदयमें तुम्हे हर घड़ी हाजिर देखकर तनिक-सी पापवासना भी उठने और ठहरने न पावे ! तदनन्तर उस निर्मल ह्रदय-देशमें तुम अपना स्थिर आसन जमा लो और मैं पल-पलमें तुम्हे निरख-निरखकर निरतशय आनन्दमें मग्न होता रहूँ !  फिर भगवन् ! तुम्हारे लिये मैं सारे भागोंको विषम रोग समझकर उनका भी त्याग कर दूँ  और केवल तुम्हें लेकर ही मौज करूँ ! इन्द्र और ब्रम्हाका पद भी उस मौजके सामने तुच्छ -- अति तुच्छ हो जाय ! फिर शंकराचार्यकी तरह मैं भी गाया करूँ -- सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम् !  सामुद्रो ही तरग्ड: व्कचन समुद्रो न तारंग : !! बाहरी पवित्रताकी अपेक्षा हृदयकी पवित्रता मनुष्यके चरित्रको उज्जवल बनानेमें बहुत अधिक सहायक होती है ! मनुष्यको काम,क्रोध,हिंसा, वैर , दम्भ आदि दुर्गन्धभरे कूड़ेको बाहर फेंककर हृदयको सदा साफ रखना चाहिये !  बाहरसे निर्दोष कहलानेका प्रयत्न न कर मनसे निर्दोष बनना चाहिये! मनसे निर्दोष मनुष्यको
धन, सम्पत्ति या मित्रोंको पाकर अभिमान न करो, जिस परमात्माने तुम्हें यह सब कुछ दिया है उसका उपकार मानो ! भक्त वही है जिसका अन्तः करण समस्त पाप-तापोंसे रहित होकर केवल अपने इष्टदेव परमात्माका नित्य-निकेतन बन गया है ! भक्तका ह्रदय ही जब पापोंसे शुन्य होता है, तब उसकी शारीरिक क्रियाओंमें तो पापको स्थान ही कहाँ है ? जो रात-दिन पापमें लगे रहकर भी अपनेको भक्त समझते हैं, वे या तो जगत् को ठगनेके लिये ऐसा करते हैं अथवा स्वयं अपनी विवेक-हीन बुद्धिसे ठगे गए हैं !  भक्त और साधु बनना चाहिये, कहलाना नहीं चाहिये !  जो कहलानेके लिये भक्त बनना चाहते हैं, वे पापोंसे ठगे जाते हैं !  ऐसे लोगोंपर सांसे पहला आक्रमण दम्भका होता है !  भक्ति अपने सुखके लिये हुआ करती है, दुनियाको दिखलानेके लिये नहीं, जहाँ दिखलानेका भाव है, वहाँ कृत्रिमता है ! भगवान् की ओरसे कृत्रिम मनुष्यको कोपका और अकृत्रिमको करुणाका प्रसाद मिलता है l  कोपका प्रसाद जलाकर, तपाकर उसे शुद्ध करता है और करुणाका प्रसाद तो उस शुद्ध हुए पुरुषको ही मिलता है! अपने विरोधीको अनुकूल बनानेका सबसे अच्छा उपाय यही है कि उसके साथ सरल और सच्चा
किसीको पापी समझकर मनमें अभिमान न करो कि मैं पुण्यात्मा हूँ ! जीवनमें न मालूम कब कैसा कुअवसर आ जाय और तुम्हें भी उसीकी भाँती पाप करने पड़ें !  यदि बार-बार आत्मनिरीक्षण न कर सको -- तो कम-से-कम दिनमें दो बार सुभह और शाम अपना अन्तर अवश्य टटोल लिया करो ! तुम्हें पता लगेगा कि दिनभरमें तुम ईश्वरके और जीवोंके प्रति कितने अधिक अपराध करते हो !  लोग धनियोंके बाहरी ऐश्वर्यको देखकर समझते हैं कि ये बड़े सुखी हैं, हम भी ऐसे ही ऐश्वर्यवान् हों  तब सुखी हों, पर वे भूलते हैं! जिन्होंने धनियोंका ह्रदय टटोला है, उन्हें पता है कि धनि दरिद्रोंकी अपेक्षा कम दु:खी  नहीं हैं ! दुःख के कारण और रूप अवश्य ही भिन्न-भिन्न हैं !  धनकी इच्छा कभी न करो, इच्छा करो उस परमधन परमात्माकी, जो एक बार मिल जानेपर कभी जाता नहीं ! धनमें सुख नहीं है, क्योंकि धन तो आज है कल नहीं! सच्चा सुख परमात्मामें है-- जो सदा बना ही रहता है !  प्रतिदिन सुभह और शाम मन लगाकर भगवान् का स्मरण अवश्य किया करो, इससे चोबिसों घंटे शान्ति रहेगी और मन बुरे संस्कारोंसे बचेगा ! 
इस भ्रममें मत रहो कि पाप प्रारब्धसे होते हैं, पाप होते हैं तुम्हारी आसक्तिसे और उनका फल तुम्हें भोगना पड़ेगा !  परमात्मापर विश्वास न होनेसे ही विपत्तियोंका, विषयोंके नाशका और मृत्युका भय रहता है एवं तभीतक शोक और मोह रहते हैं ! जिनको उस भयहारी भगवान् में भरोसा है, वे शोकरहित, निर्मोह और नित्य निर्भय हो जाते हैं ! मान चाहनेवाले ही अपमानसे डरा करते हैं ! मानक बोझा मनसे उतरते ही मन हल्का और निडर बन जाता है !  शरीरका नाश होना मृत्यु नहीं है, मृत्यु है वास्तवमें पापोंकि वासना ! मृत्युको स्वाभाविक बनानेवाला ही सुखसे मर सकता है !  जो आत्माको अमर नहीं जानते वे ही मृत्युसे काँपा करते है !  किसीको गाली न दो, वृथा न बोलो, चुगली न करो, असत्य न बोलो, सदा कम बोलो और प्रत्येक शब्दको सावधानीसे उच्चारण करो !  दूसरोंकी त्रुटियों और कमजोरियोंको सहन करो, तुममें भी बहुत-सी त्रुटियाँ हैं,जिन्हें दुसरे सहते हैं ! 
१. अपने मनके विरुद्ध सब्द सुनते ही किसीकी नियतपर संदेह करना उचित नहीं ! २ . अपने पापोंको देखते रहना और उन्हें प्रकाश कर देना भी पापोंसे छुटनेका एक प्रधान उपाय है!  ३. जो लोग भगवन्नामका सहारा लेकर पाप करते हैं! जो नित्य नए पाप करके प्रतिदिन उन्हें नामसे धो डालना चाहते हैं, उन्हें तो नीच समझो! उनके पाप यमराज भी नहीं धो सकते!  ४. पापोंसे छुटने या भोगोंको पानेके लिए भी भगवन्नामका प्रयोग करना बुद्धिमानी नहीं है! पापका नाश तो प्रायश्चित या फलभोगसे ही हो सकता है ! तुच्छ नाशवान् भोगोंकि तो परवा ही क्यों करनी चाहिए ? उनके मिलने-न-मिलनेमें लाभ-हानि ही कौन-सी है ? ५. भगवन्नाम तो प्रियेसे भी प्रियतम वास्तु है! उसका प्रयोग तो केवल उसीके लिये करना चाहिए! 
१. दुसरेके पापोंको प्रकाश करने के बदले सुहद् बनकर उनको ढंको! सुई छेद करती है, पर सूत  अपने शारीरका अंश देकर भी उस छेदको भर देता है! इसी प्रकार दुसरेके छिद्रोंको भर देनेके लिए अपना शारीर अर्पण कर दो, पर छिद्र न करो! धागा बनो सुई नहीं !  २. भगवानको साथ रखकर काम करनेसे ही पापोंसे रक्षा और कार्यमें सफलता होती है! ३. वैरी अपना मन ही है, इसे जीतनेकी कोशिश करनी चाहिए ! न्याय और धर्मयुक्त शत्रुको भी अन्याय और अधर्मयुक्त मित्रसे अच्छा समझना चाहिए!  ४. अपनी स्वतन्त्रता बचानेमें दूसरेको परतन्त्र बनाना सर्वथा अनुचित है!  ५. अगर आप दुसरेको चुपचाप बैठाकर अपनी बात सुनाना और समझाना पसंद करते हैं तो इसी तरह उसकी बात सुननेके लिए आपको भी तयार रहना चाहिए!  ६. अगर आप दूसरेको सहनशील देखना चाहते हैं तो पहले खुद शहनशील बनिए!  ७. अगर किसी दुसरेके मनके विरुद्ध कोई कार्य करनेमें आप अपना अधिकार मानते हैं तो उसका भी ऐसा ही समझिये !
१. इस संसारमें सभी सरायके मुसाफिर हैं, थोड़ी देरके लिए एक जगह टिके हैं, सभीको समयपर यहाँसे चल देना है, घर-मकान किसीका नहीं है, फिर इनके लिए किसीसे लड़ना क्यों चाहिए ? २. जगतमें जड कुछ भी नहीं है, हमारी जडवृत्ति ही हमें जड़के  दर्शन करा रही है, असलमें तो जहाँ   देखो, वहीं वह परम सुखस्वरूप नित्य चेतन भरा हुआ है! तुम-हम कोई उससे भिन्न  नहीं! फिर दुःख क्यों पा रहे हो? सर्वदा-सर्वदा निजानन्दमें निमग्न रहो! ३. जहाँ गुणोंका साम्राज्य नहीं है वहीं चले जाओ! फिर निर्भय और निश्चिन्त हो जाओगे! ये गुण ही दु:खोंकी राशि हैं!    ४. पराये पापोंके प्रायश्चित्तकी चिन्ता न करो, पहले अपने पापोंका प्रायश्चित्त करो!  ५. किसीके दोषोको देखकर उससे घृणा न करो और न उसका बुरा चाहो! यदि ऐसा न करोगे तो उसका दोष तो न मालूम कब दूर होगा; पर तुम्हारे अपने अंदर घृणा, क्रोध, द्वेष और हिंसाको अवश्य ही स्थान मिल जायगा! उसमे तो एक ही दोष था; परंतु तुममें चार दोष आ जायेंगे! हो सकता है, तुम्हारे और उसके दोषोंके नाम अलग-अलग हों! 

।। सत्संग-सुधा ।।

मकान मेरा है, चुनेके एक-एक कणमें मेरापन भरा हुआ है, उसे बेच दिया, हुण्डी हाथमें आ गयी,  इसके बाद मकानमें आग लगी! मैं कहने लगा, 'बड़ा अच्छा हुआ, रूपये मिल गए!'  मेरापन छुटते ही मकान जलनेका दुःख मिट गया! अब हुण्डीके कागजमें मेरापन है,  बड़े भारी मकानसे सारा मेरापन निकलकर जरा-से कागजके टुकड़ेमें आ गया!  अब हुण्डीकी तरफ कोई ताक नहीं सकता! हुण्डी बेच दी, रुपयोंकी थेली हातमें आ गयी!  इसके बाद हुण्डीका कागज भले ही फट जाय, जल जाय, कोई चिन्ता नहीं! सारी ममता थेलीमें आ गयी!  अब उसीकी सम्हाल होती है! इसके बाद रूपये किसी महाजनको दे दिए!  अब चाहे वे रूपये उसके यहाँसे चोरी चले जायँ, कोई परवाह नहीं!  उसके खातेमें अपने रूपये जमा होने चाहिए और उस महाजनका फर्म बना रहना चाहिए!  चिन्ता है तो इसी बातकी है कि वह फर्म कहीं दिवालिया न हो जाय! इस प्रकार जिसमे ममता होती है,  उसकी चिन्ता रहती है! यह ममता ही दुखोंकी जड़ है! वास्तवमें ' मेरा' कोई पदार्थ नहीं है!   मेरा होता तो साथ जाता! पर शारीर भी साथ नहीं जाता! झूठे ही ' मेरा' मानकर दु:खोंका बोझ लादा जाता है!  जिसकी चीज़ है, उ

।। सत्संग-सुधा ।।

1. 'नित्य हँसमुख रहो, मुखको कभी मलिन न करो , यह निश्चय कर लो कि शोकने तुम्हारे लिए जगतमें जन्म ही नहीं लिया हैं ! आनंदस्वरूप में सिवा हँसनेके चिन्ताको स्थान ही कहा हैं !' 2.शान्ति तो तुम्हारे अन्दर हैं! कामनारुपी डाकिनीका आवेश उतरा कि शान्तिके दर्शन हुए ! वैराग्य के महामंत्र से कामनाको भगा दो, फिर देखो सर्वत्र शान्ति की शान्त मूर्ति ! 3. जहाँ सम्पत्ति है, वहीं सुख है, परन्तु सम्पत्तिके भेदसे ही सुखका भी भेद है ! दैवी सम्पत्तिवालोंको परमात्म-सुख है, आसुरीवालोंको आसुरी -सुख और नरकके कीड़ोको नरक-सुख ! 4. किसी भी अवस्थामें मनको व्यथित मत होने दो ! याद रखो, परमात्मके यहाँ कभी भूल नहीं होती और न उसका कोई विधान दयासे रहित ही होता है ! 5. परमात्मापर विश्वास रखकर अपनी जीवन-डोरी उसके चरणोंमें सदाके लिए बांध दो, फिर निर्भयता तो तुम्हारे चरणोंकी दासी बन जाएगी ! 6. बीते हुएकी चिन्ता मत करो, जो अब करना है, उसे विचारो और विचारो यही कि बाकीका सारा जीवन केवल उस परमात्माके ही काममें आवे ! 7. धन्य वही है, जिसके जीवनका एक-एक क्षण अपने प्रियतम परमात्माकी अनुकूलतामें बीतता है, चाहे

।। सत्संग-सुधा ।।

'पुत्र , स्त्री और धनसे सच्ची तृप्ति नहीं हो सकती ! यदि होती तो अब तक किसी -न - किसीयोनीमें हो ही जाती! सच्ची तृप्तिका विषय हैं केवल एक परमात्मा, जिसके मिल जानेपर जिवसदाके लिए तृप्त हो जाता हैं !' ' दुःख मनुष्यत्वके विकासका साधन हैं ! सच्चे मनुष्यका जीवन दुःख में ही खिल उठता हैं! सोनेका रंग तापानेपर ही चमकता हैं ! ' 'सर्वत्र परमात्माकी मधुर मूर्ति देखकर आनंदमें मग्न रहो ; जिसको सब जगह उसकीमूर्ति दिखती हैं , वह तो स्वयं आनंदस्वरूप ही हैं ! ' 'आनंदकी लहरें' पुस्तक से

भगवान के आश्रय से सब दोष नष्ट हो जाते हैं

आप अपने को जिन सब मानस शत्रुओं से घिरा देखते हैं , वे सब शत्रु तुरंत भाग जायेंगे , यदि आप श्रीभगवान् के चरणकमलों का  आश्रय ले लेंगे| असल में हमारा ममत्व, जो लोकिक सम्बन्धियों में हो रहा है , वही हमे सता रहा है | यदि हम प्रयत्न करके अपने इस सम्बन्ध  को सबसे तोड़ कर एकमात्र प्रभु में जोड़  सकें और  सबके साथ प्रभु के सम्बन्ध से ही सम्बन्ध रखें तो फिर हमें कोई नहीं सता सकता एवं करने में किसी के साथ व्यावहारिक सम्बन्ध तोड़ने  की आवश्यकता नहीं होती | भगवन के  सम्बन्ध से हम ही सभी के साथ यथायोग्य व्यवहार करें; पर मन से ममत्व रहे केवल प्रभु चरणों में ही | ममता नहीं छूटती  तो मत छोडो , उसे इधर -उधर  बिखेर कर जो दुःख पा रहे हो , कभी इधर  खिंचते हो कभी उधर , फिर तनिक से स्वार्थ का धक्का लगते ही ममता के कच्चे धागे टूट जाते हैं - एस नित्य की आशांति  से अपने आप को छुड़ा लो | यह मान लो की एकमात्र भगवच्चरणारविन्द ही मेरे हैं , उनके अतिरिक्त कुछ  मेरा नहीं है | इस प्रकार अपने मन को भगवान् के साथ मजबूत रस्सी से बांध दो | एक बार यहाँ बंधे की फिर कभी छूटने के नहीं | फिर तो भगवान् हमारे वश में ही हो जायेंगे

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

 ५२० (तर्ज लावनी-ताल कहरवा) सखि ! संयोग-वियोग श्यामका मेरे लिये सुखद सब काल।  पल-पल वर्द्धनशील प्रेममें बाधाको न स्थान भर बाल॥  जब होता दर्शन है प्रियकी रूप-माधुरीका प्रत्यक्ष।  जब मैं अपलक उन्हें निरखती हूँ मुसकाते मधुर समक्ष॥  जब उनका आलिङङ्गन कर मैं पाती हूँ मन परमानन्द।  तब माना जाता है वह शुचितम सुखमय संयोग अमन्द॥  जब मैं देख न पाती प्रियको लगता चले गये वे दूर।  व्याकुल हो अधीर हो उठता चिा दुःखसे हो भरपूर॥  यद्यपि विरहानलकी ज्वाला होती अति संतापिनि घोर।  लपटें अमित निकलतीं उससे विविध भाँतिकी नित सब ओर॥  पर उन ज्वाला-लपटोंमें सुस्पर्श सुशीतल सुधा अपार।  सदा निकलती रहती, करती शुचि शीतलताका विस्तार॥  अगणित शारदीय शशधरका सुधा-सुवर्षी ज्योत्स्ना-जाल।  कर सकता न कदापि सदृशता उस शीतलताकी तत्काल॥  हो जाती रति और तीव्रतम, बढ़ जाता स्मृति-सुख-सभार।  मनोवृति हो जाती प्रियमय; बढ़ जाता आनन्द अपार॥  बाह्य भोग-विरहित जीवनमें होता तुरत आन्तरिक योग।  विप्रलभमें अतुलनीय हो जाता प्रकट दिव्य संयोग॥  अन्तर्ज्वाला बुझती, बहने लगती अमित अमृत-रस-धार।  क्रन्दन हो उठता सुख-रस-सागर, न दीख

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

५१७ (राग बसंत-तीन ताल) मैं तो सदा बस्तु हूँ उनकी, उनकी ही हूँ भोग्य महान।  मेरी पीड़ा, मेरे सुखका इसीलिये उनको ही जान॥  मेरे तनका घाव तथा मेरे मनकी जो व्यथा अपार।  उसके सारे दुःख-दर्दका वही वहन करते हैं भार॥  अगर किसी मेरे सद्‌गुणसे होता है उनको आह्लाद।  तो वह सद्‌गुण भी है दिया उन्हींका अपना कृपा-प्रसाद॥  जीवन उनका, मति उनकी, मन उनका, तन उनका ही धन।  वे ही इन्हें सुरक्षित रखें तोड़ें-फोड़ें, मारें घन॥  जैसे, जब, जो कुछ करवावें और नचावें थनन-थनन।  कटु बुलवावें, गीत गवावें, कहलावें अति मधुर वचन॥ सुग्गा नहीं जानता कुछ भी अर्थ बोलता-’राधेश्याम’।  जिसने उसे सिखाया है, उसका ही अर्थ जानना काम॥  स्वयं मधुर संगीत सिखाकर सुनते, करते यदि यश-गान।  वह यशगान उन्हींका अपना, करे किस तरह शुक अभिमान॥  जीवनमें अपना मधु भर वे करें स्वयं उस मधुका पान।  यों अपने सुखसे ही हों वे सुखी, व्यर्थ दे मुझको मान॥  पर जब मेरा नहीं कहीं भी कुछ भी रहा पृथक्‌ अस्तित्व।  तब सुख-मान सभी हैं उनके, क्योंकि सभी उनका कर्तृत्व॥  मेरा यह ’सबन्ध’ श्यामसे, श्याम बने मेरे आकार।  तन-मन-वचन, भोग्य-भोक्ता सब, वे ही

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे- ५१८

 ५१८ (राग कल्याण-तीन ताल) मेरे इक जीवन-धन घनस्याम। चोखे-बुरे, दयालु-निरद‌ई, वे मम प्रानाराम॥  चाहे वे अति प्रीति करैं, नित राखैं हिय लिपटाय।  रास-बिलास करैं नित मो सँग अन्य सबै छिटकाय॥  मेरे सुख तैं सुखी रहैं नित, पलक-पलक सुख देहिं।  मो कारन सब अन्य सखिन महँ दारुन अपजस लेहिं॥  आठौं जाम रहैं मेरे ढिंग, नित नूतन रस चाखैं।  नित नूतन रस मोहि चखावैं, मधुरी बानी भाषैं॥  अथवा वे अति बनैं निरद‌ई, मेरे दुख सुख मानैं।  मोय दिखा‌इ-दिखा‌इ अन्य जुबतिन कौं नित सनमानैं॥  जो वे प्राननाथ सुख पावैं मेरे दुख तें सजनी।  तो मैं अति सुख मानि चहौं वह बनौ रहै दिन-रजनी॥  प्राननाथ कौ जिय जेहि चाहै, सो जदि करै गुमान।  मेरे हेतु करैं नहिं कुटिला प्रियतम कौ सनमान॥  तौ मैं जा‌इ, चरन परि ताके, करि मनुहार मनावौं।  दासी बनी रहूँ जीवनभर, कबौं न मान जनावौं॥  जा बिधि तिन्हैं होय सुख, ताही बिधि मैं अति सुख पान्नँ।  प्राननाथ कौं सुखी देखि पल-पल मैं मन हरषान्नँ॥  जो तिय निज-‌इंद्रिय सुख चाहै, इहि कारन प्रिय सेवै।  गाज गिरै ताके सिर, जो इहि बिधि पिय तैं सुख लेवै॥  मैं तौ तिन कें सुख सुख पान्नँ, वे मम जी

ईश्वर-प्राप्ति के उपाय

 १.ईश्वरके प्रभाव और महत्त्वको यथार्थ जानने वाले महापुरुषों का संग एवं उनके आदेशानुकूल आचरण । २.ईश्वरके प्रभाव और महत्त्व से पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन । ३.ईश्वरके नाम का जप और गुणों का श्रवण-कीर्तन । ४.ईश्वर का ध्यान । ५.विश्व रूप भगवान की निष्कामभाव से सेवा । ६. ईश्वर-प्रार्थना। ७.ईश्वरके अनुकूल आचरण यानी सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, विनय, तप, स्वाध्याय, आस्तिकता और श्रद्धा आदि को बढ़ाना । ८.लोक-परलोक के समस्त भोगोंमें वैराग्य । ९.सद्गुरुमें परम श्रद्धा और गुरु सेवा । १०.ईश्वरमें अखण्ड विश्वास । ११.घर-बाहर सर्वत्र ईश्वर चर्चा । १२.अभिमान, दम्भ, और कठोरता का सर्वथा त्याग । १३. काम, क्रोध, लोभ से बचना । १४.नास्तिक संग का सर्वथा त्याग । १५.परधर्म सहिष्णुता । १६. सबमें ईश्वर बुद्धि रखते हुए ही बर्ताव करने की चेष्ठा । from- भगवच्चर्चा page- 261

सच्ची चाह का स्वरुप

१.सच्ची चाह का स्वरुप यह है कि फिर चाही हुई वस्तु के बिना जीना कठिन हो जाता है | सच्ची चाह का स्वरुप होता है अनिवार्य आवश्यकता | उस एक वास्तु के सिवा और किसी कि चाह चाह तो बहुत पहले विदा हो जाती है | जब प्रेमी अपने इष्ट के बिना नहीं रह सकता तो उसे दर्शन देना ही पड़ता है | फिर खाना -पीना, सोना - जगना, उठाना-बैठना सभी बहार हो जाता है | सच्ची छह उत्पन्न होने के बाद फिर दर्शनों में देरी नहीं लगती| २. सच्ची चाह निष्काम होनी चाहिए - इसमें तो कहना ही क्या है ? यदि हमें भगवान् से उनके सिवा कुच्छ और लेने कि लालसा होगी तो वे उसे ही देंगे , अपनेको क्यों देंगे ? पूर्वकाल में सकाम उपासना करने वालों को भी दर्शन हुए हैं | परन्तु उस प्रकार के दर्शन भगवत्प्रेम कि तत्काल वृद्धि नहीं करते| उन्हें दर्शानादी यथार्थ प्राप्ति प्राय: नहीं होती | वे केवल भोग या मोक्ष ही पा सकते हैं , प्रेम नहीं | ३. चाह को बधानेका एकमात्र उपाय यही हा कि भोगों को अनित्य और दुखोत्पदक समझकर उनकी सब इच्छाएं छोड़ दी जाएँ | जबतक दूसरी कोई भी कामना रहेगी तबतक भगवत प्राप्ति कि उत्कंठा तीव्र नहीं होती | ४. निरंतर ध्यान के लिए तो निर

ईश्वर को कैसे पुकारें

{गत ब्लाग से आगे} और पुकार कर कहें - "हे हरे ! आपसे बढ़कर कोई परम दयालु नहीं है और मुझसे बढ़कर कोई सोचनीय नहीं है | यदुनाथ! ऐसा समझकर मुझ पामर के लिए जो उचित हो वह कीजिये |" "भगवन ! आषाढ़ मास के दिन की भांति मेरे पाप बढ़ते चले जाते हैं , शरद ऋतुकी नदी के जल की तरह शारीरिक शक्ति क्षीण होती जा रही है , दुष्टों द्वारा किये हुए अपमान के सामान दुःख मेरे लिए दु:सह हो गए हैं | हाय ! मैं सब तरह से असमर्थ हूँ , अशरण हूँ , दयामय ! मुझपर कृपा कीजिये |" "स्वामिन मैं अज्ञानी हूँ, मेरी बुद्धि मंद है , अत: मैं वैसी चिकनी चुपड़ी बातें नहीं कर सकता जिस से आपका कृपा पात्र बन सकूँ | मैं तो आर्त हूँ , अशरण हूँ , और दीन हूँ ; मैंने केवल क्रन्दन किया है | आप एस क्रन्दन पर ही ध्यान देकर शीघ्र दर्शन दीजिये | और मुझ भाग्य हीन के मस्तकपर अपने चरण रखिये |" "हरे ! मुरारे ! प्रभो ! एक मात्र आप ही मेरे आश्रय हैं | मधुसुदन! वासुदेव ! विष्णो ! आपकी जय हो ! नाथ ! मुझसे निरंतर असंख्य पाप होते रहते हैं ; मुझे कहीं भी गति नहीं है | जगदीश ! मरी रक्षा कीजिये , रक्षा कीजिये |" इस प

ईश्वर को कैसे पुकारें

ईश्वर के विरह में रुन्दन स्वभावत: होना चाहिए | रोना और हँसना सीखना नहीं पड़ता | अत्यंत प्रिय के विछोह का अनुभव प्राणों को बरबस रुला देता है | अभी तो हमने संसार के सगे सम्बन्धियों को ही प्रिय मान रखा है | धन और भोगों के प्रति हमारा अधिक आकर्षण है | ऐसी दशा में भगवन के लिए हम व्याकुल कैसे हो सकते हैं ? हम जानते हैं और सदा देखते हैं कि संसार के धन- भोग क्षणभंगुर हैं - आज  हैं , कल नहीं | इसी प्रकार यहाँ के सगे -सम्बन्धि  यहाँ के भोग  यहाँ तक कि यह शरीर भी मृत्यु के बाद साथ छोड़ देता है । प्रत्येक अवस्था में यदि कोइ साथ देता है तो वो है परम करुणामय भगवान। उनकी दया इतनी है कि वे सबको अपनी शरण में आने के लिये स्वयं पुकार रहे हैं। एक हम हैं , भगवान को पुकारना, उनके लिये रोना तो दूर रहा, उनके प्रिय आह्वानतकको नहीं सुनते या सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। जो हमारे आत्माके भी आत्मा हैं, प्रणों के भी प्राण हैं, जिनसे बढ़कर कोई प्रियतम नहीं है, वे हमसे दूर नहीं हैं। हम उन्हें प्राणमें भी निहार न सकें, अपने प्रेमाश्रुओंसे उनके चरण पखार न सकें-- यह कितने दु:ख की बात है। हमें यह विरह इसलिये मिला है कि हम

एक भरोसो तेरौ अब हरि! एक भरोसो तेरौ।

एक भरोसो तेरौ अब हरि! एक भरोसो तेरौ। नहिं कछु साधन ग्यान-भगति कौ, नहिं बिराग उर हेरौ॥ अघ ढोवत अघात नहिं कबहूँ, मन बिषयन कौ चेरौ। इंद्रिय सकल भोगरत संतत, बस न चलत कछु मेरौ॥ काम-क्रोध-मद-लोभ-सरिस अति प्रबल रिपुन तें घेरौ। परबस पर्यौ, न गति निकसन की जदपि कलेस घनेरौ॥ परखे सकल बंधु, नहिं कोऊ बिपद-काल कौ नेरौ। दीनदयाल दया करि राखउ, भव-जल बूड़त बेरौ॥ प्रेम भगति निष्काम चहौं बस एक यहीं श्रीराम। अबिरल अमल अचल अनपाइनि प्रेम- भगति निष्काम॥ चहौं न सुत-परिवार, बंधु-धन, धरनी, जुवति ललाम। सुख-वैभव उपभोग जगत के चहौं न सुचि सुर-धाम॥ हरि-गुन सुनत-सुनावत कबहूँ, मन न होइ उपराम। जीवन-सहचर साधु-संग सुभ, हो संतत अभिराम॥ नीरद-नील-नवीन-बदन अति सोभामय सुखधाम। निरखत रहौं बिस्वमय निसि-दिन, छिन न लहौं बिश्राम॥ -श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार

साधना का स्वरूप भाईजी के अनुसार

१.भगवत्प्रेम ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझना और इसे हर हालतमें निरन्तर लक्ष्य में रखकर ही सब काअम करना। २.जहाँतक बने, सहज ही स्वरूपतः भोग-त्याग तथा भोगासक्तिका त्याग करना। जगत् के किसीभी प्राणी पदार्थ-परिस्थितिमें राग न रखना। ३. अभिमान,मद,गर्व आदिको तनिक-सा भी आश्रय न देकर सदा अपने को अकिञ्चन, भगवानके सामने दीनातिदीन मानना। ४.कहीं भी ममता न रखकर सारी ममता एकमात्र भगवान प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणोंमें केन्द्रित करना। ५.जगतके सारे कार्य उन भगवानकी चरण-सेवाके भावसे ही करना। ६.किसीभी प्राणीमें द्वेष-द्रोह न रखकर, सबमें श्रीराधामाधवकी अभिव्यक्ति मानकर सबके साथ विनयका, यथासाध्य उनके सुख-हित-सम्पादनका बर्ताव करना। सबका सम्मान करना,पर कभी स्वयं कभी मान न चाहना,न कभी स्वीकार करना। ७.जगतका स्मरण छोड़कर नित्य-निरन्तर भगवानके स्वरूप,नाम,गुण,लीला आदिका प्रेमके साथ स्मरण करना। ८.प्रतिदिन नियत संख्यामें,जितना सुविधापूर्वक कर सकें षोडस-मंत्र का जप करना/दिनभर रटते रहना। सुविधा हो तो कुछसमयतक इसीका कीर्तन करना। ९.स्वसुख-वाञ्छाका, निज-इन्द्रिय-तृप्तिका, अपने मनके अनुकूल भोग-मोक्षकी इच्छाका सर्

भगवान् में सच्चे विश्वास का स्वरूप

ईश्वर में सच्ची श्रद्धा ,सच्चा विश्वास तभी हुआ मानना  चाहिए जब उनके मंगल विधान में श्रद्धा हो ; फिर वह विधान देखने में कितना भी भयंकर हो , चाहे जितनी कठोर से कठोर विपतियों से भरा हो , चाहे अत्यंत दुखों ,अभावों, क्लेशों , अपमानो और असफलताओं से परिपूर्ण हो | वह भयंकर से भयंकर प्रतिकूलता में जहाँ दृढ निश्चिय रहता है कि 'भगवान् ने यह जो कुछ मुझे दिया है निश्चिय ही मेरे कल्याण के लिए है ' तभी सच्चे  श्रद्धा विश्वास का पता लगता है | भगवान् में श्रद्धा विश्वास रखने वाला मनुष्य बड़ी-से बड़ी काट- छांट में भी परम प्रसन्न  होता है और जैसे रोगी रोगनाश की भावना से प्रसन्न होकर डॉक्टर को धन्यवाद देता है  वैसे ही  वह विश्वासी  मनुष्य भगवान् का कृतज्ञ होकर उनका नित्य दास बन जाता है | ऊपर से देखने में बड़ी भयानक ऐसी घटनाओं से उसका विश्वास जरा भी हिलता नहीं , बल्कि बढ़ता है | यह सत्य है की ऐसा विश्वास होना हंसी -खेल नहीं है | भगवान् का भजन और भगवत -प्रार्थना करते करते अंत:करणकी मलिनता का नाश होने पर ही इस प्रकार का विश्वास उत्पन्न होता है |  from - महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर्

जयति जय श्री वृषभानु दुलारी ||

812 जयति जय श्री वृषभानु दुलारी || जयति कीर्तिदा जननी , जाई जिन गुण- खानि राधिका प्यारी | जय वृषभानु महीप -मुकुट-मनि, जिन घर जन्मी जग- उजियारी || कृष्णा    कृष्ण-जीवना,  कृष्णाकर्षिनि कृष्ण-प्रान- आधारी । परम प्रेम प्रतिमा, परिपूरन प्रिय-सुख अति सुख माननिहारी ॥ प्रिय-सुख समैं परम चतुरा नित , निज सुख समैं सुभोरी - भारी। प्रिय-सुख लागि बिसरि सब अग-जग, सहित समूद प्रसंसा - गारी॥ टेक-बिबेक एक  प्रियतम  सॊं,  सब  के  सब  संबंध   निवारी । भजत - भजत भजनीय  भई अब, तुम्हरॊ  भजन  करत, कंसारी॥ from - padratnakar

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

 ४८५ (राग भीमपलासी-ताल कहरवा) नहीं छोड़ते हैं पलभर भी करते रहते मनमानी।  नटखट निपट निरन्तर मुझसे करते मधुर छेडख़ानी॥  अपने मनकी मुझे कभी वे तनिक नहीं करने देते।  कभी रुलाते, कभी हँसाते, कभी नचाकर सुख लेते॥  हृदय लगाते कभी मोद भर, कभी हटाते कर दुर-दुर।  सुधा पिलाते मधुर कभी, भर मुरलीमें अपना ही सुर॥  इसीलिये इस जीवनमें, बस उनका ही सुर है बजता।  उनके ही रससे रसमय मन सदा सहज उनको भजता॥  मेरे मनकी रही न कुछ भी, उनके मनकी सब मेरी।  करें-करायें वे चाहे सो, मिटी सभी हेरा-फ़ेरी॥

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

(राग जंगला-ताल कहरवा) हटे वह सामनेसे, तब कहीं मैं अन्य कुछ देखूँ।  सदा रहता बसा मनमें तो कैसे अन्यको लेखूँ ?  उसीसे बोलनेसे ही मुझे फ़ुरसत नहीं मिलती।  तो कैसे अन्य चर्चाके लिये फिर जीभ यह हिलती ?  सुनाता वह मुझे मीठी रसीली बात है हरदम।  तो कैसे मैं सुनूँ किसकी, छोड़ वह रस मधुर अनुपम ?  समय मिलता नहीं मुझको टहलसे एक पल उसकी।  छोडक़र मैं उसे, कैसे करूँ सेवा कभी किसकी ?  रह गयी मैं नहीं कुछ भी किसीके कामकी हूँ अब।  समर्पण हो चुका मेरा जो कुछ भी था उसीके सब॥   from padratnakar  ४८२

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

हु‌आ समर्पण प्रभु-चरणोंमें जो कुछ था सब-मैं-मेरा।  अग-जगसे उठ गया सदाको चिर-संचित सारा डेरा॥  मेरी सारी ममताका अब रहा सिर्फ प्रभुसे सबन्ध।  प्रीति, प्रतीति, सगा‌ई सबही मिटी, खुल गये सारे बन्ध॥  प्रेम उन्हींमें, भाव उन्हींका, उनमें ही सारा संसार।  उनके सिवा, शेष को‌ई भी बचा न जिससे हो व्यवहार॥  नहीं चाहती जाने को‌ई मेरी इस स्थितिकी कुछ बात।  मेरे प्राणप्रियतम प्रभुसे भी यह सदा रहे अजात॥  सुन्दर सुमन सरस सुरभित मृदुसे मैं नित अर्चन करती।  अति गोपन, वे जान न जायें कभी, इसी डरसे डरती॥  मेरी यह शुचि अर्चा चलती रहे सुरक्षित काल अनन्त।  रहूँ कहीं भी कैसे भी, पर इसका कभी न आये अन्त॥  इस मेरी पूजासे पाती रहूँ नित्य मैं ही आनन्द।  बढ़े निरन्तर रुचि अर्चामें, बढ़े नित्य ही परमानन्द॥  बढ़ती अर्चा ही अर्चाका फल हो एकमात्र पावन।  नित्य निरखती रहूँ रूप मैं उनका अतिशय मनभावन॥  वे न देख पायें पर मुझको, मेरी पूजाको न कभी।  देख पायँगे वे यदि, होगा भाव-विपर्यय पूर्ण तभी॥  रह नहिं पायेगा फिर मेरा यह एकाङङ्गी निर्मल भाव।  फिर तो नये-नये उपजेंगे ’प्रिय’से सुख पानेके चाव॥  PadRatnakar 472

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

बने रहें प्रभु एकमात्र मेरे जीवनके जीवन-धन।  प्राणों के प्रियतम वे मेरे, प्राणाधार, प्राण-साधन॥  स्वप्न-जागरणमें प्रमादसे भी न कभी हो भूल विभोर।  नहीं जाय मेरा मन उनको छोड़ कदापि दूसरी ओर॥  जैसा, जो कुछ भला-बुरा, सब रहे सदा प्रिय-सेवा-लीन।  रहे देह भी सदा एक प्रियकी पूजामें ही तल्लीन॥  पूजाकी बन शुचि सामग्री होते रहें नित्य सब धन्य।  रहूँ किसी भी स्थितिमें, कैसे भी, पर मानस रहे अनन्य॥  कुछ भी करें, रहे नित तन-मन-धन सबपर उनका अधिकार।  रस-चिन्तनमें लगा रहे मन, नित्य करे गुण-गान उदार॥  घुली-मिली मैं रहूँ नित्य प्रियतमसे, रहूँ दूर या पास।  बाहर-भीतर मेरे प्रियतम, करें सदा-सर्वत्र निवास॥  PadhRatnakar 460

चैतन्य चरितावली

अपने आप को तृण से भी नीचा  समझना चाहिए तथा तरु से भी अधिक सहनशील बनना चाहिए | स्वयं तो सदा अमानी ही बने रहना चाहिए , किन्तु दूसरों को सदा सम्मान प्रदान करते रहना चाहिए | अपने को एसा बना लेने पर ही श्रीकृष्णकीर्तन के अधिकारी बन सकते हैं | क्योंकि श्रीकृष्णकीर्तन प्राणियों के लिए कीर्तनीय  वस्तु है  - चैतन्य चरितावली - पेज -१२५

भगवत प्राप्ति के लिए तीव्र विरह कि आवश्यकता

भगवत्प्राप्तिकी उत्कट इच्छा - इसी इच्छा कि जैसे प्यास से मरते हुए मनुष्य को जल कि होती है | जैसे प्यासे को जल का अनन्य  चिंतन होता है और जल मिलने में जितनी देरी होती है , उतनी ही उसकी व्याकुलता बढती है, वैसे ही भगवान् का अनन्य चिंतन होगा और भगवन के लिए परम व्याकुलता होगी | इससे सहज परमात्मा कि प्राप्ति हो जाएगी| भगवन किसी कर्म के फलस्वरूप नहीं प्राप्त होते , वे तो प्रबल और उत्कट इच्छा होने पर ही मिलते हैं |  ऎसी इच्छा होने पर उसकी प्रत्येक क्रिया भजन बन जाती है |भगवान् के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण  कर देने पर सहज ही प्रत्येक कार्य भगवान् के लिए ही होता है  क्योंकि भगवन उसके परम आश्रय,परम गति , परम प्रियतम हैं | उसकी साड़ी आसक्ति , ममता , प्रीति सब जगहं से सिमट कर  एकमात्र भगवान् के प्रति ही हो जाती है | वह उन्ही का स्मरण करता रहता है | भगवान् जब उसकी व्याकुल इच्छा को देखते हैं , तब सहज ही  आकर्षित होकर उसके सामने  प्रकट हो जाते हैं | और उसे अपने अंक में ले कर अपने हृदय से लगाकर सदा के लिए निहाल कर देते हैं |     महत्त्वपूर्ण  प्रश्नोत्तर page - 53-54 

प्रार्थना--मेरे प्राणों के प्राण !

मेरे प्राणों के प्राण !                                       भोगों में सुख नहीं है, यह अनुभव बार-बार होता है ; फिर भी मेरा दुष्ट मन उन्हीकी ओर दोड़ता है | बहुत समझाने की कोशिश करता हूँ , परन्तु नहीं मानता | तुम्हारे स्वरुप चिंतन में लगाना चाहता हूँ , कभी कभी कुछ लगता सा दीखता भी है , परन्तु असल में लगता नहीं| मैं तो जतन करके हार गया मेरे स्वामी ! अब तुम अपनी कृपा शक्ति से इसे खीच लो | मुझे एसा बना दो कि मई सब प्रकार से तुम्हारा ही हो जाऊँ| धन, ऐश्वर्य, मान जो कोई भी तुम्हारी और लगने में बाधक हों उन्हें बलात मुझसे छीन लो | मुझे चाहे रह का भिखारी बना दो , चाहे सबके द्वारा तिरिस्कृत करा दो , परन्तु अपनी पवित्र स्मृति मुझे दे दो | मई बस तुम्हारा स्मरण करता रहूँ | मेरे सुख दुःख , हानि-लाभ , सब कुछ तुम्हारी स्मृति में समा जाय| वे चाहे जैसे आयें - जाएँ, मै सदा तुम्हारे प्रेम में डूबा रहूँ|   प्रार्थना page no 22 

Radha ke Vachan shri Krishan ke prati

तुमसे सदा लिया ही मैंने, लेती-लेती थकी नहीं। अमित प्रेम-सौभाग्य मिला, पर मैं कुछ भी दे सकी नहीं॥ मेरी त्रुटि, मेरे दोषोंको तुमने देखा नहीं कभी। दिया सदा, देते न थके तुम, दे डाला निज प्यार सभी॥ तब भी कहते-"दे न सका मैं तुमको कुछ भी, हे प्यारी ! तुम-सी शील-गुणवती तुम ही, मैं तुमपर हूँ बलिहारी"॥ क्या मैं कहूँ प्राणप्रियतमसे, देख लजाती अपनी ओर। मेरी हर करनीमें ही तुम प्रेम देखते नन्दकिशोर !॥

जीवन में ढालने योग्य बात

जीवन में ढालने योग्य बात-   " अब तो प्रभु की शरण में आ गया हूँ। सब तरफ़ से मन, बुद्धि, इन्द्रियों को समेट कर प्रभु के चरणोंमें रख देता हूँ। प्रभु के चरणों में लगा देना चाहता हूँ। मैं अब संसारके प्राणी-पदार्थों के लिये नहीं रोता। श्वास- श्वास पर प्रभु का अधिकार है। मेरा अपना कुछ नहीं है। प्रभु की अखण्ड स्मृति ही मेरी है, उसमें अपने आप को भूल जाऊँ, अपने आप को सदा के लिये खो दूँ। उनकी मधुर स्मृतियों में स्वयं को डुबो दूँ। मेरी अलग कमना-वासना-इच्छा आदि रहे ही नहीं।" - साधकों के पत्र, पृष्ठ-१३५

अपना तन-मन-धन सब भगवानके अर्पण कर दो

अपना तन-मन-धन सब भगवानके अर्पण कर दो; तुम्हारा है भी नहीं, भगवानका ही है| अपना मान बैठे हो- ममता करते हो इसीसे दुखी होते हो| ममताको सब जगहसे हटाकर केवल भगवानके चरणोंमें जोड़ दो, अपने माने हुए सब कुछ्को भगवानके अर्पण कर दो| फिर वे अपनी चीजको चाहे जैसे काममें लावें; बनावें या बिगाडें| तुम्हें उसमें व्यथा क्यों होने लगी? भगवानको समर्पण करके तुम तो निश्चिंत और आनंदमग्न हो जाओ|-

अपना तन-मन-धन सब ....

अपना तन-मन-धन सब भगवानके अर्पण कर दो; तुम्हारा है भी नहीं, भगवानका ही है| अपना मान बैठे हो- ममता करते हो इसीसे दुखी होते हो| ममताको सब जगहसे हटाकर केवल भगवानके चरणोंमें जोड़ दो, अपने माने हुए सब कुछ्को भगवानके अर्पण कर दो| फिर वे अपनी चीजको चाहे जैसे काममें लावें; बनावें या बिगाडें| तुम्हें उसमें व्यथा क्यों होने लगी? भगवानको समर्पण करके तुम तो निश्चिंत और आनंदमग्न हो जाओ|- 

चौकन्ने हो जाओ

जब संसारी लोग तुम्हें भाग्यवान और और भगवानका कृपापात्र बतलाएं तब चौकन्ने हो जाओ| संसारी लोग अपनी बुद्धि के काँटेपर ही तो भाग्य और भगवानकी कृपको तौलते हैं! उनका काँटा पत्थर तौलता है, हीरा नहीं| वे भोगी को भाग्यवान और भगवानका कृपापात्र मानते हैं और विषय-विरागी भगवदनुरागीको अभागा तथा भगवानका कोपभाजन|

श्रीराधा-माधव-स्वरूप-माधुरी

श्रीराधा-माधव-स्वरूप-माधुरी  १५३ (राग भैरव-ताल कहरवा) श्रीवृन्दावन, वेदी, योगपीठ और अष्टस्न्दल कमल सुमन-समूह, मनोहर सौरभ मधु प्रवाह सुषमा-संयुक्त।  नव-पल्लव-विनम्र सुन्दर वृक्षावलिकी शोभासे युक्त॥  नव-प्रड्डुल्ल मजरी, ललित वल्लरियोंसे आवृत, द्युतिमान।  परम रय, शिव सुन्दर श्रीबृन्दावनका यों करिये ध्यान॥  उसमें सदा कर रहे चचल चचरीक मधुमय गुजार।  बढ़ी और भी, विकसित सुमनोंका मधु पीनेको झनकार॥  कोकिल-शुक-सारिका आदि खग नित्य कर रहे सुमधुर गान।  मा मयूर नृत्यरत, यों श्रीबृन्दावनका करिये ध्यान॥  यमुनाकी चचल लहरोंके जल-कणसे शीतल सुख-धाम।  ड्डुल्ल कमल-केसर-परागसे रजित धूसर वायु ललाम॥  प्रेममयी ब्रज-सुन्दरियोंके चचल करता चारु वसन।  नित्य-निरन्तर करता रहता श्रीबृन्दावनका सेवन॥  कल्पवृक्ष उस अरण्यमें सर्वकामप्रद एक कल्पतरु शोभाधाम।  नव पल्लव प्रवाल-सम अरुणिम, पत्र नीलमणि-सदृश ललाम॥  कलिका मुक्ता, प्रभा, पुज-सी पद्मराग-से फल सुमहान।  सब ऋतु‌एँ सेवा करतीं नित परम धन्य अपनेको मान॥  सुधा-बिन्दु-वर्षी उस पादपके नीचे वेदी सुन्दर।  स्वर्णमयी, उद्भासित जैसे दिनकर उदित मेरु-गिरिपर॥  मणि-निर्मित जगमग अति प्रा