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मई, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वर्षा और शरद ऋतु का वर्णन

अब आगे........               वर्षा ऋतु में वृन्दावन इसी प्रकार शोभायमान और पके हुए खजूर तथा जामुनो से भर रहा था l उसी वन में विहार करने के लिए श्याम और बलराम ग्वालबाल और गौओंके साथ प्रवेश किया l भगवान् ने देखा कि वनवासी भील और भीलनियाँ आनंदमग्न हैं l वृक्षों कि पंक्तियाँ मधुधारा उँडेल रही हैं l पर्वतों से झर-झर करते हुए झरने झर रहे हैं l जब वर्षा होने लगती, तब श्रीकृष्ण कभी किसी वृक्ष की गोद में या खोडर में जा छिपते l और कभी कंद-मूल-फल खाकर ग्वालबालों के साथ खेलते रहते l वर्षा ऋतु की सुन्दरता अपार थी l वह सभी प्राणियों को सुख पंहुचा रही थी l  इसमें संदेह नहीं कि वह ऋतु गाय, बैल, बछड़े  - सब-के-सब भगवान् की लीला के ही विलास थे l फिर भी उन्हें देखकर भगवान् बहुत प्रसन्न होते और बार-बार उनकी प्रशंसा करते l                 इस प्रकार श्याम और बलराम बड़े आनंद से ब्रज में निवास कर रहे थे l इसी समय वर्षा बीतने पर शरद ऋतु आ गयी l अब आकाश में  बादल नहीं रहे, जल निर्मल हो गया, वायु बड़ी धीमी गति से चलने लगी l शरद ऋतु में कमलों की उत्पत्ति से जलाशयों के जलने अपनी सहज स्वच्छता प्राप्त कर ली  

वर्षा और शरद ऋतु का वर्णन

              वर्षा ऋतु का आगमन हुआ है l इस ऋतु में सभी प्रकार के प्राणियों की बढती हो जाती है l उस समय सूर्य और चन्द्रमा पर बार-बार प्रकाशमय मण्डल बैठने लगे l इससे आकाश की ऐसी शोभा होती, जैसे ब्रह्मस्वरूप होने पर भी गुणों से ढक जाने पर जीव की होती है l जैसे दयालु पुरुष जब देखते हैं कि प्रजा बहुत पीड़ित हो रही है, तब वे दयापरवश होकर अपने जीवन-प्राण तक निछावर कर देते हैं  - वैसे ही बिजली कि चमक से शोभायमान घनघोर बादल तेज हवा कि प्रेरणा से प्राणियों के कल्याण के लिए अपने जीवंस्वरूप जल को बरसाने लगे l जेठ-आषाढ़ कि गर्मी से पृथ्वी सूख गयी थी l अब वर्षा के जल से सिंचकर वह फिर हरी-भरी हो गयी  - जैसे सकामभाव से तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है, परन्तु जब उसका फल मिलता है, तब हृष्ट-पुष्ट हो जाता है l पृथ्वी पर कहीं-कहीं हरी-हरी घास की हरियाली थी, तो कहीं-कहीं बीरबहूटियों की लालिमा और कहीं-कहीं बरसाती छत्तों के कारण वह सफ़ेद मालूम देती थी l उन्हें देखकर किसान तो मारे आनंद के फूले न समाते थे, परन्तु सब कुछ प्रारब्ध के अधीन है  - यह बात न  जाननेवाले धनियों के चित्त में बड़ी जलन

गौओं और गोपों को दावानल से बचाना

अब आगे.......               अपने सखा ग्वालबालों के दीनता से भरे वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - 'डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो' l भगवान् कि आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालों ने कहा 'बहुत अच्छा' और अपनी ऑंखें मूँद लीं l तब योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने उस भंयकर आग को अपने मुंह से पी लिया l और इस प्रकार उन्हें उस घोर संकट से छुड़ा दिया l इसके बाद जब ग्वालबालों ने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा, तब अपने को भांडीर वट के पास पाया l इस प्रकार अपने-आपको और गौओं को दावानल से बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए l श्रीकृष्ण की इस योगसिद्धि तथा योगमाया प्रभाव को एवं दावानल से अपनी रक्षा को देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं l                सांयकाल होने पर बलरामजी के साथ भगवान् श्रीकृष्ण ने गौएँ लौटायीं और वंशी बजाते हुए उनके पीछे-पीछे ब्रज की यात्रा की l उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे l  इधर ब्रज में गोपियों को श्रीकृष्ण के बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युग के समान हो रहा था l  जब भगवान् श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानंद में मगन हो गयीं l  बड़

गौओं और गोपों को दावानल से बचाना

                उस समय जब ग्वालबाल खेल-कूद में लग गए, तब उनकी गौएँ बेरोक-टोक चरती हुई बहुत दूर निकल गयीं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वन में घुस गयीं l जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओं का तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूद पर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करने पर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके l गौएँ ही तो ब्रजवासियों कि जीविका का साधन थीं l पृथ्वी पर बने हुए खुरों के चिन्हों से उनका पता लगाते हुए आगे बढे l अंत में  उन्होंने देखा कि उनकी गौएँ मुन्जाटवी में रास्ता भूलकर डकरा रही हैं l उस समय वे एकदम थक गए थे और उन्हें प्यास भी बड़े जोर से लगी हुई थी l इस से वे व्याकुल हो रहे थे l भगवान् श्रीकृष्ण अपनी मेघ के समान गंभीर वाणी से नाम ले-लेकर गौओं को पुकारने लगे l                  इस प्रकार भगवान् उस गायों को पुकार ही रहे थे कि उस वन में सब ओर अकस्मात् दावाग्नि लग गयी, जो वनवासी जीवों का काल ही होती है l साथ ही बड़े जोर से आंधी भी चलकर उस अग्नि के बढने में सहायता देने लगी l जब ग्वालों और गौओं ने देखा कि दावानल चारों ओर से हमारी ही

कालिया पर कृपा

अब आगे........                आप को हमारा नमस्कार है l  आप स्थूल,सूक्ष्म समस्त गतियों के जाननेवाले तथा सबके साक्षी है l यद्यपि कर्तापन न होने के कारण  आप कोई भी कर्म नहीं करते, निष्क्रिय हैं - तथापि अनादि  कालशक्ति को स्वीकार करके प्रकृति के गुणों के द्वारा आप इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करते हैं l  क्योंकि आप की लीलाएँ अमोघ हैं l आप सत्यसंकल्प हैं l इसलिए जीवों के संस्काररूप से छिपे हुए स्वभावों को अपनी दृष्टि से जाग्रत कर देते हैं l इस समय आपको सत्त्वगुण प्रधान शांतजन ही विशेष प्रिय हैं; क्योंकि आपका यह अवतार और ये लीलाएं साधुजनों की रक्षा तथा धर्म  की रक्षा एवं विस्तार के लिए ही हैं l यह मूढ़ है ,आपको पहचानता नहीं है, इसलिए इसे क्षमा कर दीजिये l भगवन ! कृपा कीजिये; अब यह सर्प मरने ही वाला है l साधुपुरुष सदा से ही हम अबलाओं पर दया करते आये हैं l अत: आप हमें हमारे प्राणस्वरूप पतिदेव को दे दीजिये l हम आपकी दासी हैं l क्योंकि जो श्रद्धा के साथ आपकी आज्ञाओं का पालन  -आपकी सेवा करता है, वह सब प्रकार के भयों से छुटकारा पा  जाता है l                   भगवान् के चरणों  क

कालिया पर कृपा

             अब आगे.........               भगवान्  के इस अद्भुत ताण्डव-नृत्य से कालिया के फनरूप छत्ते छिन्न-भिन्न हो गए l उसका एक-एक अंग चूर-चूर हो गया और मुंह से खून की उल्टी होने लगी l     वह मन-ही-मन भगवान् की शरण में गया l भगवान् श्रीकृष्ण के उदर में सम्पूर्ण विश्व है l इसलिए उनके भरी बोझ से कालिया नाग के शरीर की एक-एक गाँठ ढीली पड़ गयी l  अपने पति की यह दशा देखकर उसकी पत्नियाँ भगवान् की शरण में आयीं l भगवान् श्रीकृष्ण को शरणागत-वत्सल जानकार अपने अपराधी पति को छुड़ाने की इच्छा से उन्होंने उनकी शरण ग्रहण की l                  नागपत्नियों ने कहा   - आपका यह अवतार ही दुष्टों को दंड देने के लिए हुआ है  l इसलिए इस अपराधी को दंड देना सर्वथा उचित है l आपने हमलोगों पर यह बड़ा ही अनुग्रह किया l यह तो आपका कृपा-प्रसाद ही है l क्योंकि आप जो दंड देते हैं, उस से उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं l अवश्य ही पूर्वजन्म में इसने स्वयं मानरहित होकर और दूसरों का सम्मान करते हुए कोई बहुत बड़ी तपस्या की है l तभी तो आप इस के ऊपर संतुष्ट हुए हैं l प्रभो !जो आपके चरणों की धूल की शरण ले लेते हैं, वे भक्

कालिया पर कृपा

अब आगे.......                उन्होंने दूर से ही देखा कि कालियादह में कालिया नाग के शरीर से बंधे हुए श्रीकृष्ण चेष्टाहीन हो रहे हैं l यह सब देखकर वे सब गोप अत्यंत व्याकुल और अंत में मूर्छित हो गए l गोपियों का मन अनंत गुणगणनिलय भगवान् श्रीकृष्ण के प्रेम के रंग में रंगा हुआ था l जब उन्होंने देखा कि हमारे प्रियतम श्यामसुंदर को काले साँप ने जकड रखा है, तब तो उनके ह्रदय में बड़ा ही दुःख और बड़ी ही जलन हुई l सबकी ऑंखें श्रीकृष्ण के मुखकमल पर लगी थीं l नंदबाबा आदि के जीवन-प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे l वे श्रीकृष्ण के लिए कालियादह में घुसने लगे l जब श्रीकृष्ण ने देखा कि ब्रज के सभी लोग स्त्री और बच्चों के साथ मेरे लिए इस प्रकार अत्यंत दुखी हो रहे हैं l तब वे एक मुहूर्त तक सर्प के बंधन में रहकर बाहर निकल आये l  भगवान् श्रीकृष्ण ने उस समय अपना शरीर फुलाकर खूब मोटा कर लिया, इस से साँप का शरीर टूटने लगा l वह अपना नागपाश छोड़कर अलग खड़ा हो गया और क्रोध से आगबबूला हो अपने फन ऊँचा करके फुफकारें मारने लगा l उसके मुंह से आग की लपटें निकल रहीं थीं l अपने वाहन गरुड़ के समान भगवान् श्रीकृष्ण उसके साथ खेलते

कालिया पर कृपा

               यमुना जी में कालिया नाग का एक कुण्ड था l उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था l यहाँ तक कि उसके ऊपर उड़ने वाले पक्षी भी झुलस कर उसमें गिर जाया करते थे l भगवान् का अवतार तो दुष्टों का दमन करने के लिए होता ही है  l जब उन्होंने देखा कि उस सांप के विष का वेग बड़ा प्रचंड (भयंकर) है और वह भयानक विष ही उसका महान बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुनाजी दूषित हो गयी हैं, तब भगवान् श्रीकृष्ण अपनी कमर का फेंटा कसकर एक बहुत ऊँचे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गए और वहां से ताल ठोंककर उस विषेले जल में कूद पड़े l  भगवान् श्रीकृष्ण कालियादह में कूदकर अतुल बलशाली मतवाले गजराज के समान जल उछालने लगे l इस प्रकार जल-क्रीडा करने पर उनकी भुजाओं कि टक्कर से जल में बड़े जोर का शब्द होने लगा l आंख से ही सुनने वाले कालिया नाग ने वह आवाज सुनी और देखा कि कोई मेरे निवास-स्थान का तिरस्कार कर रहा है l उसे यह सहन न हुआ l उसने देखा कि सामने एक सांवला-सलोना बालक है l उसमें लगकर ऑंखें हटने का नाम ही नहीं लेतीं l उसके वक्षस्थल पर एक सुनहली रेखा - श्रीवत्स का चिन्ह है और चरण इतने सुकुमार और सुन्दर हैं. म

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

अब आगे........               तब तक ब्रह्माजी ब्रह्मलोक से ब्रज में लौट आये ! उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण ग्वालबाल और बछड़ों के साथ एक साल से पहले कि भांति ही क्रीडा कर रहे हैं ! वे सोचने लगे - 'गोकुल में जितने भी ग्वालबाल और बछड़े थे, वे तो मेरी मायामयी शय्या पर सो रहे हैं - उनको टी मैंने अपनी माया से अचेत कर दिया था, वे तब से अब  तक सचेत नहीं हुए ! तब मेरी माया से मोहित ग्वालबाल और बछड़ों के अतिरिक्त ये उतने ही दुसरे बालक तथा बछड़े कहाँ से आ गए, जो एक साल से भगवान् के साथ खेल रहे हैं? भगवान् श्रीकृष्ण की माया में तो सभी मुग्ध हो रहे हैं, परन्तु कोई भी माया-मोह भगवान् का स्पर्श नहीं कर सकता l ब्रह्माजी उन्ही भगवान् श्रीकृष्ण को अपनी माया से मोहित करने चले थे l किन्तु उनको मोहित करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होने पर भी अपनी ही माया से अपने-आप मोहित हो गए l                 ब्रह्माजी विचार कर ही रहे थे कि उनके देखते-देखते उसी क्षण सभी ग्वालबाल और बछड़े श्रीकृष्ण के रूप में दिखाई पड़ने लगे l ऐसा जान पड़ता था मानो वे इन दोनों के द्वारा सत्त्वगुण और रजोगुण को स्वीकार करके भक्तजनों

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

अब आगे.........                भगवान् श्रीकृष्ण बछड़े न मिलने पर यमुना जी के पुलिन पर लौट आये, परन्तु यहाँ क्या देखते हैं कि ग्वालबाल भी नहीं हैं ! तब उन्होंने वनमें घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूँढा ! तब वे जान गए कि यह सब ब्रह्मा कि करतूत है ! वे तो सारे विश्व के एकमात्र ज्ञाता हैं ! अब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने-आप को ही बछड़ों और ग्वालबालों  - दोनों के रूप में बना लिया ! क्योंकि वे ही तो सम्पूर्ण विश्व के करता सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं ! वे बालक और बछड़े संख्या में जितने थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपों में सर्वस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो  गए ! सर्वात्मा भगवान् स्वयं ही बछड़े बन गए और स्वयं ही ग्वालबाल ! अपने आत्मस्वरूप बछड़ों और ग्वालबालों के द्वारा घेरकर अपने ही साथ अनेकों प्रकार के खेल खेलते हुए उन्होंने ब्रज में प्रवेश किया ! इसी प्रकार प्रतिदिन संध्यासमय भगवान् श्रीकृष्ण उन ग्वालबालों के रूप में वन से लौट आते और अपनी बालसुलभ लीलाओं से माताओं को आनंदित करते ! इस प्रकार सर्वात्मा श्रीकृष्ण बछड़े और ग्वालबालों के बहाने गोपाल बनकर अपने बालक रूप से वत्सरुप का पालन करते हुए इस वर्

ब्रह्माजी का मोह और उसका नाश

रसिक संतों की वाणी,कान, और ह्रदय भगवान् की लीला के गान,श्रवण और चिंतन के लिए ही होते हैं - उनका यह स्वाभाव ही होता है कि वे क्षण-प्रतिक्षण भगवान् की लीलाओं को अपूर्व रसमयी और नित्य-नूतन अनुभव करते रहें ! यद्यपि भगवान् की यह लीला अत्यंत रहस्यमयी है, तुम एकाग्र चित्त से श्रवण करो ! भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों को मृत्युरूप अघासुर के मुंह से बचा लिया ! इसके बाद वे उन्हें यमुना के पुलिन पर ले आये और उनसे कहने लगे कि यमुना जी का यह पुलिन अत्यंत रमणीय है ! हम लोगों के खेलने के तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है ! एक ओर रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं तो दूसरी ओर सुन्दर-सुन्दर पक्षी बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं ! अब हमलोगों को यहाँ भोजन कर लेना चाहिए, क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हम लोग भूख से पीड़ित हो रहे हैं ! बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें ! ग्वालबालों ने एक स्वर से कहा - 'ठीक है, ठीक है' ! वे अपने-अपने छीके खोल-खोलकर  भगवान् के साथ बड़े आनंद से भोजन करने लगे ! सबके बीच में भगवान् श्रीकृष्ण बैठ गए ! सबके मुंह श्रीकृष्ण की ओर थे और सबकी ऑंखें आनं

गोकुल से वृन्दावन जाना

अब आगे......           राम और श्याम दोनों ही अपनी तोतली बोली और अत्यंत मधुर बालोचित लीलाओं से गोकुल की ही तरह वृन्दावन में भी ब्रजवासियों को आनंद देते रहे ! श्याम और राम कहीं बांसुरी बजा रहे हैं, तो कहीं गुलेल या ढेलवांस से ढेले या गोलियां फेंक रहे हैं, तो कहीं बनावटी गाय और बैल बनकर खेल रहे हैं ! तो कहीं मोर, कोयल,बन्दर आदि पशु-पक्षियों की बोलियाँ निकाल रहे हैं ! इस प्रकार सर्वशक्तिमान भगवान् साधारण बालकों के समान खेलते रहते !           एक दिन की बात है, श्याम और बलराम अपने प्रेमी सखा ग्वालबालों के साथ यमुनातट पर बछड़े चरा रहे थे ! उसी समय उन्हें मारने की नीयत से एक दैत्य आया ! भगवान् ने देखा कि वह बनावटी बछड़े का रूप धारणकर बछड़ों के झुण्ड में मिल गया है ! वे आँखों के इशारे से बलराम जी को दिखाते हुए धीरे-धीरे उसके पास पंहुच गए हैं ! भगवान् श्रीकृष्ण ने पूंछ के साथ उसके दोनों पिछले पैर पकड़कर आकाश में घुमाया और मर जानेपर कैथ के वृक्ष पर पटक दिया ! यह देखकर ग्वालबालों के आश्चर्य कि सीमा न रही ! वे प्यारे कन्हैया कि प्रशंसा करने लगे ! देवता भी बड़े आनंद से फूलों की वर्षा करने लगे !

गोकुल से वृन्दावन जाना

अब आगे........ यदि हम हमलोग गोकुल और गोकुलवासियों का भला चाहते हैं, तो हमें यहाँ से अपना डेरा-डंडा उठा कर कूच कर देना चाहिए ! देखो, यह नन्दराय का लड़का सबसे पहले तो बच्चों के लिए काल-स्वरूपिणी हत्यारी पूतना के चंगुल से किसी प्रकार छूटा !  इसके बाद भगवान् की दूसरी कृपा यह हुई कि इसके ऊपर उतना बड़ा छकड़ा गिरते-गिरते बचा ! बवंडररूपधारी दैत्य ने तो इसे आकाश में ले जाकर बड़ी भारी विपत्ति (मृत्यु के मुख) में ही डाल दिया था, परन्तु वहां से जब वह चट्टान पर गिरा, तब भी हमारे कुल के देवेश्वरों ने ही इस बालक कि रक्षा कि ! इसलिए जब तक कोई बहुत बड़ा अनिष्टकारी अरिष्ट हमें और हमारे ब्रज को नष्ट न कर दे, तब तक ही हम लोग अपने बच्चों को लेकर अनुचरों के साथ यहाँ से अन्यत्र चले चलें !  'वृन्दावन'   नाम का एक वन है ! उसमें छोटे-छोटे और भी बहुत-से नए-नए हरे-भरे वन हैं ! गोप,गोपी और गायों के लिए वह केवल सुविधा का ही नहीं, सेवन करने योग्य स्थान है ! तो आज ही हमलोग वहां के लिए कूच कर दें ! देर न करें, गाड़ी-छकड़े जोतें और पहले गायों  को, जो हमारी एकमात्र संपत्ति हैं, वहां भेज दें !           उपनंद

गोकुल से वृन्दावन जाना

                    सर्वशक्तिमान भगवान् कभी-कभी गोपियों के फुसलाने से साधारण बालकों के समान नाचने लगते ! वे उनके हाथ की कठपुतली  - उनके सर्वथा अधीन हो गए ! कभी उनकी आज्ञा से पीढ़ा ले आते, तो कभी दुसेरी आदि तौलने के बटखरे उठा लाते ! कभी खड़ाऊं ले आते, तो कभी अपने प्रेमी भक्तों को आनन्दित करने के लिए पहलवानों की भांति ताल ठोकने लगते ! इस प्रकार सर्वशक्तिमान भगवान् अपनी बाल-लीलाओं  से ब्रजवासियों को आनन्दित करते और संसार में जो लोग उनके रहस्य को जानने वाले हैं, उनको यह दिखलाते कि मैं अपने सेवकों के वश में हूँ !                     एक दिन कोई फल बेचनेवाली आकर  पुकार उठी - 'फल लो फल ! यह सुनते ही समस्त कर्म और उपासना के फल देने वाले भगवान् अच्युत फल खरीदने के लिए अपनी छोटी-सी अंजुली में अनाज लेकर दौड़ पड़े ! उनकी अंजुली में से अनाज तो रास्ते में ही बिखर गया, पर फल बेचनेवाली ने उनके दोनों हाथ फल से भर दिए ! इधर भगवान् ने भी उसकी फल रखने वाली टोकरी रत्नों से भर दी ! एक दिन श्रीकृष्ण और बलराम बालकों के साथ खेलते-खेलते यमुनातट पर चले गए और खेल में ही रम गए, तब रोहिणीजी पुकारने पर भी व

नामकरण- संस्कार और बाललीला

अब आगे.......                     भगवान् श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अनंत है ! वे केवल लीला के लिए ही मनुशय्के बालक बने हुए हैं ! यशोदाजी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है ! आकाश (वह शून्य जिसमें किसी की गति नहीं) दिशाएं, पहाड़, द्वीप,और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहनेवाली वायु, विद्युत, अग्नि,चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मंडल, जल, तेज, पवन, वियत (प्राणियों के चलने-फिरने का आकाश), वैकारिक अहंकार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंच्तंमात्राएँ और तीनो गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े ! जीव, काल, स्वाभाव, कर्म, उनकी वासना और शरीर आदि  के द्वारा विभिन्न रूपों में दीखनेवाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण ब्रज और अपने-आपको  भी यशोदाजी ने श्रीकृष्ण  के नन्हे से खुले हुए मुख में देखा ! वे बड़ी शंका में पड़ गयीं ! वे सोचने लगीं कि 'यह कोई स्वप्न है या भगवान् कि माया? संभव है मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो' ! जिनका स्वरुप सर्वथा अचिन्त्य है - उन प्रभु को मैं प्रणाम करती हूँ ! यह मैं हूँ और यह मेरे पति तथा यह मेरा लड़का है,  साथ ही मैं व

नामकरण- संस्कार और बाललीला

अब आगे........ कुछ ही दिनों में यशोदा और रोहिणी के लाड़ले लाल घुटनों का सहारा लिए बिना अनायास ही खड़े होकर गोकुल में चलने-फिरने लगे ! अब कन्हैया और बलराम अपनी ही उम्र के ग्वालबालों को अपने साथ लेकर खेलने के लिए ब्रज में निकल पड़ते और ब्रज की भाग्यवती गोपियों को निहाल करते हुए तरह-तरह के खेल खेलते ! एक दिन सभी गोपियाँ नंदबाबा के घर आयीं और यशोदा माता को सुना-सुनाकर कन्हैया के करतूत कहने लगीं ! अरी यशोदा! यह तेरा कान्हा बड़ा नटखट हो गया है ! यह चोरी के बड़े-बड़े उपाय करके हमारे मीठे-मीठे दही-दूध चुरा-चुराकर खा जाता है ! केवल अपने ही खाता तो भी एक बात थी, यह तो सारा दही-दूध  वानरों को बाँट देता है  तब यह हमारी मटकियों को ही फोड़ डालता है ! जब हम दही-दूध को छीकों पर रख देतीं हैं और इसके छोटे-छोटे हाथ वहां तक नहीं पहुँच पाते, तब वह बड़े-बड़े उपाय रचता है ! कहीं दो-चार पीढ़ों को एक के ऊपर एक रख देता है और चढ़ जाता है ! इसे इस बात की पक्की पहचान रहती है कि किस छीके पर किस बर्तन में क्या रखा है ! इसके शरीर में भी ऐसी ज्योति है कि जिससे इसे सब कुछ दीख जाता है ! ऐसा करके भी ढिठाई की बातें क

नामकरण- संस्कार और बाललीला

अब आगे.... तुम्हारे पुत्र के जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं ! यह तुमलोगों का परम कल्याण करेगा !  समस्त गोप और गौओं  को यह बहुत ही आनंदित करेगा ! इसकी सहायता से तुम लोग बड़ी-बड़ी विपत्तियों को बड़ी सुगमता से पार कर लोगे ! नंदजी चाहे जिस दृष्टि से देखें - गुणमें, संपत्ति  और सौंदर्य में, कीर्ति और प्रभाव में  तुम्हारा यह बालक साक्षात भगवान् नारायण के सामान है ! तुम बड़ी सावधानी और तत्परता से इसकी रक्षा करो ! नंदबाबा को बड़ा ही आनंद हुआ ! उन्होंने ऐसा समझा कि मेरी सब आशा-लालसाएं पूरी हो गयीं, मैं अब कृतकृत्य हूँ ! कुछ ही दिनों में राम और श्याम घुटनों और हाथों के बल बकैयाँ चल-चलकर गोकुल में खलने लगे ! दोनों भाई अपने नन्हें-नन्हें पांवों को गोकुल की कीचड़ में घसीटते हुए चलते ! उस समय उनके पाँव और कमर के घुँघरू रुनझुन बजने लगते ! वे दोनों स्वयं वह ध्वनि सुनकर खिल उठते ! माताएं यह सब देख-देखकर स्नेह्से भर जातीं ! उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगती थी ! माताएं उन्हें आते ही दोनों हाथों से गोद में लेकर ह्रदय से लगा लेतीं और स्तनपान कराने लगतीं, जब वे

नामकरण-संस्कार और बाललीला

वासुदेवजी की प्रेरणा से एक दिन उनके कुलपुरोहित श्री गर्गाचार्य जी नंदबाबा के गोकुल में आये ! नंदबाबा ने उनके चरणों में प्रणाम किया ! जब गर्गाचार्य जी आराम से बैठ गए तो उनका विधिपूर्वक आतिथ्य-सत्कार किया ! आप ब्रह्मवेताओं में श्रेष्ठ हैं ! इसलिए मेरे इन दोनों बालकों के नामकरण आदि  संस्कार आप ही कर दीजिये; क्योंकि ब्राह्मण जन्म से ही मनुष्य का गुरु है ! गर्गाचार्य जी ने कहा यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार कर दूँ और कंस इस बालक को वासुदेव जी लड़का समझ कर मार डाले, तो हमसे बड़ा अन्याय हो जायेगा ! नंदबाबा ने कहा  - आचार्यजी ! आप चुपचाप इस एकांत गौशाला में केवल स्वस्तिवाचन  करके इस बालक का द्विजातिसमुचित नामकरण-संस्कारमात्र  कर दीजिये ! औरों की कौन कहे मेरे सगे-सम्बन्धी भी इस बात को न जानने पावें !  गर्गाचार्य जी ने कहा  - यह रोहिणी का पुत्र है ! इसलिए इसका नाम होगा रौहिनेय ! यह अपने सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से अत्यंत आनंदित करेगा, इसलिए इसका दूसरा नाम होगा 'राम' ! इसके बल की कोई सीमा नहीं है, अत: इसका एक नाम 'बल' भी है ! यह यादवों में और तुमलोगों में को

गोकुल में भगवान् का जन्ममहोत्सव

अब आगे..... भगवान् श्रीकृष्ण समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं ! उनकी ऐश्वर्य, माधुर्य, वात्सल्य - सभी अनंत हैं ! वे जब नंदबाबा के ब्रज में प्रकट हुए, उस समय उनके जन्मका महान,उत्सव मनाया गया ! आनंद से मतवाले होकर गोपगण एक दूसरे के मुंह पर मक्खन मलने लगे और मक्खन फेंक-फेंककर आनंदोत्सव मनाने लगे ! नंदबाबा के अभिनन्दन करने पर परम सौभाग्यवती रोहिणी जी दिव्य वस्त्र, माला और गले के भांति-भांति के गहनों से सुसज्जित होकर गृहस्वामिनी की भांति आने-जाने वाली स्त्रियों का सत्कार करती हुई विचर रही थीं ! भगवान् श्री कृष्ण के निवास तथा अपने स्वाभाविक गुणों के कारण वह लक्ष्मी जी  का क्रीड़ास्थल बन गया ! कुछ दिनों बाद नंदबाबा कर चुकाने के लिए मथुरा चले गए ! वहां वे वासुदेव जी से मिले और कहने लगे कि यह भी बड़े आनंद का विषय है कि आज हम लोगों का मिलना हो गया ! अपने प्रेमियों का मिलना भी बड़ा दुर्लभ है ! इस संसार का चक्र ही ऐसा है ! मनुष्य के लिए वे ही धर्म,अर्थ, और काम शास्त्रविहित हैं, जिनसे उसके स्वजनों को सुख मिले ! जिनसे केवल अपने को सुख मिलता है; किन्तु अपने स्वजनों तो दुःख मिलता है, वे धर्म,अर्थ औ

गोकुल में भगवान का जन्महोत्सव

नंदबाबा बड़े मनस्वी और उदार थे ! पुत्र का जन्म होने पर तो उनका विलक्षण आनंद भर गया ! उन्होंने स्नान किया और पवित्र  होकर सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये ! फिर देवता और पितरों की विधिपूर्वक पूजा भी करवायी ! उन्होंने ब्राह्मणों को वस्त्र और आभूषण से सुसजित दो लाख गौए दान कीं ! रंत्नो और सुनहले वस्त्रों से ढके हुए तिलके सात पहाड़ दान किये ! ब्रजमंडल के सभी घरों में द्वार, आँगन और भीतरी भाग झाड़-बुहार दिए गए; उनमें सुगन्धित जल का छिडकाव किया गया; उन्हें चित्र-विचित्र ध्वजा-पताका, पुष्पों की मालाओं, रंग-बिरंगे वस्त्र और पल्लवों के वन्दनवारों से सजाया गया ! सभी ग्वाल बहुमूल्य वस्त्र, गहने अंगरखे और पगड़ियों से सुसज्जित होकर और अपने हाथों में भेंट की बहुत-सी सामग्रियां ले-लेकर नंदबाबा के घर आये ! यशोदाजी के पुत्र हुआ है, यह सुनकर गोपियों को भी बड़ा आनंद हुआ ! उन्होंने सुन्दर-सुन्दर वस्त्र, आभूषण और अंजन आदि से अपना श्रृंगार किया ! गोपियों के मुखकमल बड़े ही सुन्दर जान पड़ते थे ! वे बड़े सुन्दर-सुन्दर रंग-बिरंगे वस्त्र पहने हुए थीं ! नंदबाबा के घर जाकर वे नवजात शिशु को आशीर्वाद देतीं &#

भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य

अब आगे.....  परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण अपनी अंगकांति से सूतिकागृह  को जगमग कर रहे थे ! जब वासुदेवजी को यह निश्चय को गया कि  वे तो परम पुरुष परमात्मा हो हैं,तब भगवान का प्रभाव जान लेने से उनका सारा भय जाता रहा ! अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान के चरणों में अपना सिर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने लगे - वासुदेवजी ने कहा -  मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात पुरुषोत्तम हैं ! आपका स्वरुप है केवल अनुभव और केवल आनंद ! आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं ! आप ही सर्गके आदि में अपनी प्रकृति से इस त्रिगुणमय जगत की सृष्टि करते हैं ! फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप प्रविष्ट के समान जान पड़ते हैं ! जब महत्तत्त्व इन्द्रियादि सोलह विकारों के साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसी में अनुप्रविष्ट-से जान पड़ते हैं; परन्तु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते ! ऐसा  होने का कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु है, उसमें वे पहले से ही विद्यमान रहते हैं ! ठीक वैसे ही बुद्धि के द्वारा केवल गुणों के लक्षणो

भगवान श्री कृष्ण का प्राकट्य

वर्षाकालीन मेघ के समान परम सुन्दर श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है ! बहुमूल्य वैदूर्यमणि किरीट और कुंडल की   कान्ति  से सुन्दर-सुन्दर घुंघराले बाल सूर्य की किरणों के समान चमक रहे हैं ! कमर में चमचमाती करघनी की लड़ियाँ लटक रही हैं ! बाँहों में बाजूबंद और कलाईयों में कंकण शोभायमान हो रहे हैं ! इन सब आभूषणों से सुशोभित बालक के अंग-अंग से अनोखी छटा छिटक रही है ! जब वासुदेवजी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में तो स्वंयं भगवान ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनंद से उनकी ऑंखें खिल उठीं ! उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया ! श्री कृष्ण का जन्मोत्सव मनाने कि उतावली   में उन्होंने उसी समय ब्राह्मणों के लिए दस हज़ार गायों का संकल्प कर दिया ! श्री प्रेम-सुधा-सागर   

भगवान श्री कृष्ण का प्राकट्य

वासुदेवजी ने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है ! उसके नेत्र  कमल के समान कोमल और विशाल है ! चार सुन्दर हाथों में शंख,गदा, चक्र और कमल लिए  हुए  हैं ! वक्ष:स्थल पर श्री वत्सका चिन्ह - अत्यंत सुन्दर स्वर्णमयी रेखा है ! गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है ! 
कल्याणकारी आचरण  (जीवनमें पालन करनेयोग्य) सिद्धान्तकी कुछ बातें -- १ - भगवान् एक ही हैं। वे ही निर्गुण -निराकार, सगुण-निराकार और सगुण -साकार हैं। लीलाभेदसे उन एकके ही अनेक नाम, रूप तथा उपासनाके भेद हैं। जगतके सारे मनुष्य उन एक ही भगवान् की विभिन्न प्रकारसे उपासना करते हैं, ऐसा समझे।  २ - मनुष्य -जीवनका एकमात्र साध्य या लक्ष्य मोक्ष, भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेमकी प्राप्ति ही है, यह दृढ़ निश्चय करके प्रत्येक विचार तथा कार्य इसी लक्ष्यको ध्यानमें रखकर इसीकी सिद्धिके लिए करे। ३ - शरीर तथा नाम आत्मा नहीं है। अतः शरीर तथा नाममें 'अहं' भाव न रखकर यह निश्चय रखे की मैं विनाशी शरीर नहीं, नित्य आत्मा हूँ। उत्पत्ति, विनाश, परिवर्तन शरीर तथा नामके होते हैं -- आत्माके कभी नहीं। ४ - भगवान् का साकार-सगुण स्वरुप सत्य नित्य सच्चिदानन्दमय है। उसके रूप, गुण, लीला सभी भगवत्स्वरूप हैं। वह मायाकी वस्तु नही है। न वह उत्पत्ति -विनाशशील कोई प्राकृतिक वस्तु है। ५ - किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, मतसे द्वेष न करे; किसीकी निंदा न करे। आवश्यकतानुसार सबका आदर करे। अच्छी बात सभीसे ग्रहण करे; प
उद्धवको 'वासुदेवः सर्वम' का उपदेश  यावत् सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोपजायते । तावदेवमुपासीत वाड्.मनः कायवृत्तिभिः ।।६।। जबतक समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना - भगवद्भावना न होने लगे, तबतक इस प्रकारसे मन, वाणी और शरीरके सभी संकल्पों और कर्मोंद्वारा मेरी उपासना करता रहे।।६।। सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्यया त्ममनिषया । परिपश्यन्नुपरमेत् सर्वता मुक्तसंशय : ।।७।। उद्धवजी! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि - ब्रह्माबुद्धिका अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दीनोंमें उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्मास्वरुप दिखने लगता है। ऐसी दृष्टि हो जानेपर सरे संशय -संदेह अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कही मेरा साक्षात्कार करके संसारदृष्टिसे उपराम हो जाता है।।७।। अयं हि सर्वकल्पनां सध्रीचिनो मतो मम । मद्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः ।।८।। मेरी प्राप्तिके जितने साधन हैं, उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ट साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें मन, वाणी और शरीरकी समस्त वृत्तियोंसे मेरी भावना की जाय ।।८।। न ह्यांगोपक्रमे ध्वन्सो मद्धर्मस्योवाण्वपि । मया व्य्वसितः सम्यड