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जुलाई, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भजन क्यों नहीं होता ?

भजन क्यों नहीं होता ? यह प्रबल मोह की ही महिमा है की बार बार दुखो का अनुभव करता हुआ भी मनुष्य उन्ही दुखदायी भोगो को चाहता है | गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है - ज्यो जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुण दुःख उपजे | हिव अनुकूल बिसारी सूल सठ पुनि खल पतिहि भजे || लोलुप भ्रम गृह पसु ज्यु तह सर पढ़ त्रान बजे | तदपि अधम बिचरत तेहि मार्ग कबहू न मूढ़ लजे || 'जैसे युवती स्त्री संतान-प्रसव के समय दारुण दुःख का अनुभव करती है,परन्तु वह मुर्ख सारी वेदना को भूलकर पुन्न उसी दुःख के स्थान पति का सेवन करती है | जैसे लालची कुत्ता जहा जाता है वही उसके सर पर जूते पढ़ते है तोह भी वह नीच पुन्न उसी रस्ते भटकता है ,उस मूढ़ को जरा भी लाज नहीं आती |' बस, यही दशा मोह्ग्रह्स्त मानव की है | बार बार दुःख का अनुभव करने पर भी उन्ही विषयों में सुख खोजता है | इसी मोह के कारण वह भगवान् का भजन नहीं करता | भगवत कृपा से जब यथार्थ सत्संग का सूर्य उदय होता है,तब मनुष्य के मोह निशा भंग होती है और वह विवेक के मंगल प्रभात का दर्शन प्राप्त करता है | यथार्थ सत्संग वही है जो इसह मोह का नाश करने में

भजन क्यों नहीं होता ?

भजन क्यों नहीं होता ? सुनहु उमा तह लोग अभागी | हरी तजि होही विषय अनुरागी || ते नर नरक रूप जीवत जग , भव - भंजन - पद विमुख अभागी | निसी बासर रूचि-पाप असुची मन ,खल मति मलिन, निगम पथ त्यागी || * * * * * * * * * * तुलसीदास हरिनाम सुधा तजि, सठ हठी पियत विषय-विष मांगी | सुकर स्वान सृगाल सरिस जन , जनमत जगत जानने दुःख लागी || अत मानव जन्म की सफलता इसी में है की मनुष्य अथक प्रयत्न करके भगवान् को या बह्गावत प्रेम कोप्राप्त कर ले | कम से कम भगवत्प्राप्ति के पवित्र मार्ग पर आरूढ़ हो ही जाये | इसके लिए सत्संग करे और सत्संग में भगवान् के स्वरुप, महत्व तथा उनकी प्राप्ति ही मानव जीवन एकमात्र परम उद्देश्य है - यह जानकार उसी में लग जाये | मनुष्य को यह बड़ा भरी मोह हो रहा है के 'सांसारिक भोगो में सुख है ' | यह मोह जब तक नहीं मिटता , तब तक वह कभी किसी देवता का आराधन भी करता है तोह इसके फलस्वरूप वह सांसारिक विषय भोग ही चाहता है | वह छुटना तोह चाहता है दुःख से और प्राप्त करना चाहता है सुख को - परन्तु विषय सुख की भ्रान

भजन क्यों नहीं होता ?

भजन क्यों नहीं होता ? पाप बनने में प्रधान कारण है - पाप में अज्ञानपूर्ण श्रधा या आस्था | मनुष्य की विषयों में आसक्ति तथा कामना होती है और संग दोष से वह पापो को ही उनकी प्राप्ति तथा सरक्षण सवर्धन में हेतु मान लेता है | फिर उतरोतर अधिक से अधिक पापो में ही लगा रहता है | संसार बंधन से छुटने के लिए निस्काम्भाव से तोह वह भगवान् को भजने के कल्पना भी नहीं कर पता, सकाम भाव से भी भगवान् को नहीं भजता, उधर उसकी वृति जाती ही नहीं और वह दिन रात नये नये पापो में उलज्हता हुआ सदा सर्वदा अशांति का अनुभव करता है | तथा परिणाम में घोर नार्को की यातना भोगने को बाध्य होता है | भगवान् ने स्वयं कहा है 'अर्जुन ! ऐसे मूढ़ (मनुष्य जनम के चरम और परम लक्ष्य ) मुझ (भगवान्) को न पाकर जन्म जन्म में - हजारो लाखो बार असुरी योनी को प्राप्त होते है तदन्तर उससे भी अधम गति में - नरको में जाते है |'(गीता १६\२०) भवाट्वी में भटकते हुए जीव को अकारण करुण भगवान् कृपा करके मनुष्य शारीर प्रदान करते है , यह देव दुर्लभ शारीर मिलता ही है केवल - भगवत्प्राप्ति का सफल साधन करने के लिए | इशी के लिए इ

भजन क्यों नहीं होता ?

भजन क्यों नहीं होता ? दुसरे वे पापी है, जो परिस्थिती या दुर्बलता के कारण बड़े से बड़ा पापकर्म तोह कर बैठते है,परन्तु वे उस पाप को पाप सम्जहते है , पाप करके पश्चाताप करते है,पाप उनके हृदय में शूल से चुभते है और वे उससे त्राण पाने तथा भविष्य में पापकर्म सर्वथा न बने, इसके लिए सदा चिंतित और सचेस्ट रहते है, ऐसे लोग कही आश्रय , आश्वासन न पाकर अंत में भगवान् को ही परम आश्रय मानकर करुण भाव से उनको पुकारते है | भगवान् कहते है - 'अत्यंत दुराचारी (पाप कर्मी मनुष्य ) भी यदि मुझ (भगवान्) को ही एकमात्र शरणदाता परम आश्रय मानकर दुसरे किसी का कोई भी आशा भरोश न रख कर (पाप नाश और मेरी भक्ति की प्राप्ति के लिए ) केवल मुझको भजता है, आर्त होकर एकमात्र मुझको ही पुकार उठता है | उसे साधू ही मानना चाहिए; क्युकी उसने एकमात्र मुझ (भगवान् ) को ही परम आश्रय मानने और केवल मुझको ही पुकारने का सम्यक निश्चय कर लिया है | केवल मानने की ही बात नहीं, वह तुरंत ही धर्मात्मा (पापकर्मो से बदलकर धर्म स्वरुप ) बन जाता है और भगवत्प्राप्ति रूप परमशान्ति को प्राप्त होता है | अर्जुन ! तुम यह सत्य समजो के

भजन क्यों नहीं होता ?

भजन क्यों नहीं होता ? भगवान् एक है, उन्ही से अनंत जगत की- जगत के समस्त चेतना चेतन भूतो के उत्पत्ति हुई है , उन्ही में सबका निवास है ,वही सबमे सदा सर्वदा व्याप्त है, अत एव उनकी भक्ति का, उनके ज्ञान का और उनकी प्राप्ति का अधिकार सभी को है | किसी भी देश , जाती धर्म,वर्ण,वर्ग का कोई भी मनुष्य -स्त्री पुरुष अपनी अपनी विसुध पद्दति से भगवान् का भजन कर सकता है और उन्हें प्राप्त कर सकता है | परन्तु भजन में एक बड़ी बाधा है - भगवान् में अविस्वाश और संसार के भोगो में विश्वास , बस इसी कारन - इसी मोह या अविद्या के जाल में फशा हुआ मनुष्य भगवान् का कभी स्मरण नहीं करता और भोग विषयों के लिए विभिन्न प्रकार के कुकार्य करने में अपने अमूल्य जीवन को खोकर आगे के भयानक दुखभोग के अचूक साधन को उत्पन्न कर लेता है | मनुष्य में कमजोरी होना आश्चर्य नहीं , वह परिस्थिथि वश पाप कर्म भी कर सकता है, परन्तु यदि उसका भगवान् का विश्वास है, भगवान् के सौहार्द और उनकी कृपा पर अटूट और अनन्य श्रधा है तोह वह भगवान् का आश्रय लेकर पाप समुद्र से उबर सकता है | और भगवान् के सुखद गोद को प्राप्त कर सकता है

मान बड़ाई - मीठा विष

मान बड़ाई - मीठा विष आप लोगो ने मुझे माला पहनाई , सुगन्धित पुष्पों के सुन्दर हार पहनाये - यह आपकी बड़ी ही कृपा है | जिस समय में हार पहन रहा था , अपनी प्रसंसा सुन रहा था , उस समय मेरे मन में आया के हम गीता जी में रोज पढ़ते है - ' तुल्यानिन्दतंस्तुति : |' तोः इस प्रशंसा तथा फूलो के हारो के स्थान पर गलिया सुनने को मिलती और पुष्पहार के बदले जूतों के हार मिलते तोह क्या मेरा यही भाव रहता , जो प्रशंसा सुनने में और हार पहने के समय रहा है | यदि नहीं तोह , फिर यह समता के बात पढ़ कर मैंने क्या लाभ उठाया | सच तोह यह है की में मान बड़ाई का विरोध तोह करता हु , परन्तु मेरे मन में मान बड़ाई की छिपी वासना है , उसी की पूर्ति हो रही है | यदि वासना न होती और सुख न मिलता , मान बड़ाई में गाली और जूते के हार की भावना होती तोह में यहाँ से भाग जाता और आप मुझे न तोह हार पहना सकते , न मेरी प्रशंसा हे कर पाते | पर यह मेरी दुर्बल

मान बड़ाई - मीठा विष

मान बड़ाई - मीठा विष आपको जो मुझमे गुण समूह के दर्शन हुए है और जिनका आप लोगो ने मधुर सब्दो में वर्णन किया है, वे वस्तुत मुझमे नहीं है | यह मैं आपसे सत्य कहता हु | आपको गुण दीखते है इसमें आपका मेरे प्रति अकृत्रिम प्रेम ही कारण है अथवा यह आपकी केवल सद्गुण दर्शिनी द्रिस्टी का परिणाम है | किसी में गुण समूह देखकर कोई दूसरा उसका वर्णन करता है, तब उसमे प्राय तीन बाते होती है :- (१) वह इतना महान्हाई के उसे जगत में सर्वर्त्र वैसे ही केवल गुण ही दीखते है , जैसे ब्रह्मदर्शी ज्ञानी को अथवा भगवतप्रेमी को सर्वत्र ब्रह्म या भगवान की ही अनुभूति होती है| (२) या उसे गुणों के साथ दोष भी दीखते है और वह केवल गुणों को ही ग्रहण करता है | दोष को ग्रहण करता ही नहीं | (३) अथवा उसे गुण दोष दोनों दीखते तोह है पर वह दोष का वर्णन न करके गुण का ही वर्णन करता है | इन तीन ही बातो में गुण वर्णन करने वाले का महत्व है , यह उसका आदर्श गुण है | गुण सुनने वाला यदि गुण वर्णन करने वाले के इश महत्व को न समजह कर बिना ही हुए अपने में उन गुणों को आरोप कर लेता है , अपने को उन गुणों से संपन्न मान लेता है , तो

मान बड़ाई - मीठा विष

मान बड़ाई - मीठा विष मनुष्य जहा सर्व जीवो के अपेक्षा विलक्षण शक्ति सामर्थ्य युक्त है,वह वह एक ऐसी दुर्बर्लता को धारण करता है, जो पशु पक्षी, किट-पतंगों में नहीं है | यह दुर्बलता है - मान बड़ाई की इच्छा , यश कीर्ति की कामना | यह बड़े बड़े त्यागी कहलाने वालो में भी प्राय: पाई जाती है | इसको लोग दोष की वस्तु नहीं मानते और इतिहास में नाम अमर रहने की वासना रखते है और कामना करते है | यह मीठा विष है , जो अत्यंत मधुर प्रतीत होता है ; परन्तु परिणाम में साधन जीवन की समाप्ति का कारण बन जाता है | मान बड़ाई किसकी ? शरीर की और नाम की ! जो शरीर और नाम को अपना स्वरुप मानता है और उनकी पूजा-प्रतिष्टा, उनका नाम यश चाहता है , वह नाम रूप में अहं भाव रखने वाला ज्ञानी है या अज्ञानी ? यह प्रत्यक्ष है की 'शरीर' माता पिता के रज-वीर्य का पिंड है और माता के गर्भ में इसका निर्माण हुआ है | यह आत्मा नहीं है और 'नाम' तोह प्रत्यक्ष कल्पित है | जब यह माता के गर्भ में था,तब तोह यही पता नहीं था के लड़की है या लड़का | प्रसव होने के बाद नामकरण हुआ | वह नाम अच्छा नहीं लगा, दूसरा बदल गया,

महामना मालवीय जी के कुछ भगवनाम -सम्बन्दी संस्मरण

महामना मालवीय जी के कुछ भगवनाम -सम्बन्दी संस्मरण महामना एक बार गोरखपुर पधारे थे और मेरे पास ही दो तीन दिन ठहरे थे | उनके पधारने के दुसरे दिन प्रात: काल में उनके चरणों में बैठा था | वे अकेले ही थे | बड़े स्नेह से बोले -"भैया ! मैं तुम्हे आज एक दुर्लभ तथा बहुमूल्य वस्तु देने चाहता हु | मैंने इसको अपनी माता से वरदान के रूप में प्राप्त किया था | बड़ी अद्भुत वस्तु है | किसी को आज तक नहीं दी , तुमको दे रहा हु | देखने में चीज छोटी से दिखेगी पर है महान 'वरदान रूप' | इस प्रकार प्राय आधे घंटे तक वे उस वस्तु के मेहता पर बोलते गए | मेरी जिज्ञासा भी बढती गयी | मैंने आतुरता से पूछा - 'बाबू जी ! जल्दी दीजिये , कोई आ जायेंगे |' तब वे बोले - लगभग चालिश वर्ष पहले की बात है | एक दिन मैं अपनी माता जी के पास गया और बड़ी विनय के साथ उन्स्से यह वरदान माँगा के आप ऐसा वरदान दीजिये , जिससे में कही भी जाऊ सफलता प्राप्त करू |' "माता जी ने स्नेह से मेरे शीर पर हाथ रखा और कहा - 'बच्चा - ! बड़ी दुर्लभ चीज दे रही हु | तुम जब कही भी जाओ तोह जाने के समय ' नार

सर्वार्थ साधक भगवनाम

सर्वार्थ साधक भगवनाम मजदूर हाथो से हर प्रकार का काम करते रहे और नाम जपते रहे | घर से काम के स्थान पर जाते - आते नाम जप करे | उच्च अधिकारी , मिनिस्टर , सेक्रेटरी , जज , मुंसिफ , जिलाधीश , परगना अधिकारी , पोलिश ऑफिसर , रेलवे अफसर तथा कर्मचारी . डाक तार के कार्यकर्ता , आदि सभी कर्मचारी सभी अपना अपना काम करते तथा आते जाते समय भगवान् का नाम जीभ से लेते रहे | व्यापारी , सेठ साहूकार , उद्योगपति , दलाल आदि सब समय जीभ से भगवान् लेते रहे | गृहस्थ माँ बहिने चरखा कातते समय , चकी पिसते समय , पानी भरते समय , गौ सेवा करते समय , बच्चो का पालन करते समय , रसोई बनाते समय , धान कूटते समय तथा घर के अन्य काम करते समय भगवान् का नाम जपती रहे | पढ़ी लिखी बहने साज श्रींगार बहुत करती है , फैसन परस्त होती जा रही है , यह बहुत बुरा है ; पर वे साज श्रींगार करते समय भगवान् का नाम जपे | अध्यापिकाए और शिक्षाअर्थनी छा

सर्वार्थ साधक भगवनाम

सर्वार्थ साधक भगवनाम इस प्रबल कलिकाल में जीवो के 'कल्याण' के लिए भगवान का नाम ही एकमात्र अवलंबन है | नहीं कलि काल न भगति विवेकू | राम नाम अवलंबन एकु || पर मनुष्य का जीवन इतना व्यस्त हो गया चला है की वह कहता है के 'मुझे अवकाश ही नहीं मिलता | में भगवान् का नाम कब तथा कैसे लू |' यद्यपि यह सत्य नहीं है | मनुष्य के लिए काम - सच्चा काम उतना नहीं है, जितना वह व्यर्थ केरकार्य को अपना कर्तव्य मानकर जीवन का अमूल्य समय नस्ट करता है और अपने को सदा काममें लगा पता है | वह यदि व्यर्थ के कार्यो को छोड़ कर उतना समय भगवान् के स्मरण में लगावे तोह उसके पास भजन के लिए पर्याप्त समय है | पर ऐसा होना बहुत कठिन हो गया है | ऐसे अवस्था में यदि जीभ के द्वारा नाम जप का अभ्यास कर लिया जाये तोह जितने देर जीभ बोलने में लगी रहती है, उसके सिवा प्राय: सब समय सारे अंगो से सब काम करते हुए ही नाम जप हो सकता है | जीभ नाम में लगी रहती है और काम होता रहता है | न काम रुकता है , न घर वाले नाराज़ होते है | बाद विवाद तथा व्यर्थ बोलना बंद हो जाने से वाणी पवित्र और बलवान हो जाती है, ज्हूटी निंदा स

करने योग्य

करने योग्य 'भगवान् स्वभाव से ही दयालु और सुहृद है | भगवान् के मुज़्ह पर अहेतु कृपा बरसती रहती है | वे मेरे लिए जो कुछ भी फल विधान करते है , उसमे निश्चय ही मेरी आत्मा का परम कल्याण है | जो कुछ भी दुःख के रूप में आता है ,वह भगवान् का आशीर्वाद है और जैसे सोने को आग में तपा कर सुध किया जाता है, वैसे ही भगवान् दुखो में तपा कर मुझको सुध कर रहे है तथा अपने पास सदा के लिए बुला लेने की व्यवस्था कर रहे है | भगवान् मेरे है, भगवान् ही मेरे है और कुछ भी मेरा नहीं है | मुझे भगवान् कभी छोड़ते नहीं , छोड़ सकते नहीं | उन्होंने मुझको अपना बना लिया है | इश प्रकार दिन में कई बार निश्चय करना है' | 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे | हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ||' इस नाम मन्त्र के १४ माला का जप रोज करना है | माला पर जप होने में सुभीता न हो तोह दिन भर में ढाई घंटा ( एकबार , या दो बार , या तीन बार ) में जप पूरा कर लेना चाहिए भगवान् के स्वरुप की पहले भलीभाती धारणा करके फिर धयान करना चाहिए | अपने पर भगवान् के महान कृपा समजह कर हर हालत में प्रसन्न रहना चाह

भगवान् की अमोघ कृपा

भगवान की अमोघ कृपा संसार में नर नारीओ के चित स्वाभाविक ही लौकिक पदार्थो की कामना से व्याकुल रहते है और जब तक इन्द्रिय - मन - बुधि इस कामना कलुष से कलंकित रहते है , तब तक भगवान् की उपासना करता हुआ भी मनुष्य अपने उपास्य देवता से स्पष्ट या अस्पस्ट रूप से कामना पूर्ति की ही प्रार्थना करता है | यही नर नारीओ का स्वाभाव हो गया है | इसी से वे भगवत भाव के परम सुख से वंचित रहते है | असल में उपासना का पवित्रतम उद्देश्य ही है - भगवद्भाव से ह्रदय का सर्वथा और सर्वदा परिपूर्ण रहना | परन्तु वह ह्रदय यदि नश्वर धन - जन , यश - मान , विषय - वैभव , भोग विलाश आदि की लालसा से व्याकुल रहता है तो उसमे भगवद्भाव नहीं आता और उपासना का उद्देश्य सिद्ध नहीं होता ; किन्तु सत्संग के प्रभाव से यदि कोई भगवान् के अमोघ कृपा या आश्रय ग्रहण कर लेता है तोह दयामय भगवान् अनुग्रह करके उसके ह्रदय से विषय - भोग की वासना को हटा कर उसमे अपने चरनाविंद - सेवन के व

भक्त की भावना

भक्त की भावना भगवान् नित्य मेरे साथ है, मुझे अकेले किसी परिस्थीथी का सामना करने की आवस्यकता नहीं | चाहने पर भगवान् का प्रेमभरा एवं विवेकपूर्ण परामर्श मेरे लिए प्रस्तुत है | उनका सहाय्य्य आबाध तथा सदा विजयी है | भगवान् अंतर्यामी रूप से नित्य मुझमे अवस्थित है | मैं अपनी किसी भी आवस्यकता के लिए भगवान् के सहाय्य पर निर्भर कर सकता हु - इश ज्ञान से में सदा अविचलित हु | में प्रतिदिन की छोटी छोटी समस्याओ को सुल्ज़ाने में भी भगवान् की सहायता चाहता हु | जब कभी मेरी आवस्यकता तीव्र होती है , अथवा जीवन में कोई विकट स्थिती उपस्थित होती है, तब में भगवान् से सहायता चाहता हु |मेरी आवस्यकता छोटी है या बड़ी, मैं इश बात का विचार किये बिना ही अंतर्मुख हो भगवान् की सहायता चाहता हु | भगवान् मुझे शक्ति देते है और विचलित होते हुए साहस के समय मुझे बल देते है | उनका ज्ञान मुझे अपने सामने आई प्रत्येक समस्या को सुल्ज्हने में मार्गदर्शन करता है | भगवान् का प्रकाश मेरे ग्रहण करने योग्य मार्ग को मेरे सामने अनाव्रत करके रख देता है, अत एव मेरे निश्चय करने में संदेह अथवा हिचक का कोई कारन नहीं

बहुत अवश्यक ध्यान रखने की बात

बहुत अवश्यक ध्यान रखने की बात सबसे विनयपूर्वक मीठी वाणी से बोलना | किसी की चुगली या निंदा नहीं करना | किसी के सामने किसी भी दुसरे के कही हुई बात को न कहना , जिससे सुनने वाले के मन में उसके प्रति द्वेष या दुर्भाव पैदा हो या बढे | जिससे किसी के प्रति सद्भाव तथा प्रेम बढे , द्वेष हो तोह मिट जाये या घट जाये , ऎसी ही उसकी बात किसी के सामने कहना | किसी को ऐसे बात कभी न कहना जिससे उसका जी दुखे | बिना कार्य जायदा न बोलना , किसी के बिच में न बोलना , बिना पूछे अभिमानपूर्वक सलाह न देना, ताना न मारना, साप न देना | अपने को भी बुरा भला न कहना , गुस्से में आकर अपने को भी साप न देना, न सर पीटना | जहा तक हो परचर्चा न करना, जगचर्चा न करना | आये हुए का आदर सत्कार करना, विनय सम्मान के साथ हस्ते हुए बोलना | किसी के दुःख के समय सहानुभूतिपूर्ण वाणी से बोलना, हसना नहीं,किसी को कभी चिढाना नहीं | अभिमान वश घरवालो को कभी किसी को मुर्ख, मन्द्भुधि, नीच,वृतिवाला तथा अपने से नीचा न मानना , सच्चे ह्रदय से सबका सम्मान-हित करना | मन में अभिमान तथा दुर्भाव न रखना, वाणी से कभी कठोर तथा निंदनीय सब्दो का

भक्त का कर्मयोग

भक्त का कर्मयोग में भगवान् के लिए कर्म कर रहा हु | वे मेरे स्वामी है और में तन -मन से सच्चाई के साथ उनकी सेवा करने का प्रयत्न कर्ता हु | में भगवान् को ही जीवन में प्रथम स्थान देता हु , और प्रत्येक समय भगवान् के सनिधि कीतीव्र अनुभूति के साथ भगवत -कर्म में रत रहता हु | में जानता हु की मुज्मे सफलता प्रदान करने वाली योग्यताये इश्वर की देन है और मैं इन योग्यताओ का बुद्धिमानी एवं विवेकपूर्वक उपयोग कर्ता हु | यो करने से मेरे जीवन में निरंतर वीकाश एवं समृधि की वृद्धि होती है | में यह अनुभव करता हु के भगवान् के राज्य में प्रत्येक प्राणी का अपना उचित स्थान एवं उचित कार्य है | मैं तुछ अप्रन्संताओ , खिनताओ एवं विद्रोहों को कभी मन में स्थान नहीं पाने देता | में कभी दुसरे की अच्छी स्थिती से इर्ष्या नहीं करता | में कभी अपनी अथवा अपनी सफलता के तुलना दुसरो से नहीं करता | इसके विपरीत में परमपिता परमात्मा द्वारा मेरे लिए स्थिर किये आदर्श का अनुसरण करता हु और मानता हु , जो कुछ भी है श्रेस्ठ है | में अपनी प्रत्य

हम भगवान् के ही है

हम भगवान् के ही है यह सारा जगत - जगत के सब चेतना चेतन प्राणी भगवान् से निकले है और भगवान् ही सर्वर्त्र व्याप्त है | हम सभी जीव भगवान् के सनातन अंश है | भगवान् ही हमारे अभिन्न निमितोपदान कारण है | सब कुछ वही है | भगवन हमारे आत्मा है | भगवान् ही हमारे प्राण है | हमारा जीवन , हमारा प्रेम , हमारा आनंद , हमारे स्वासप्र्स्वाश - सब कुछ भगवान ही है | हम कभी भी , किसी प्रकार भी भगवान् से , भगवान् के प्रेम से , भगवान् के आनंद से , भगवान् की योगषेम करने वाली वृति से अपने को अलग नहीं कर सकते | उसकी व्यापकता से बहार नहीं जा सकते | भगवान् हमारे अंतरात्मा है - अत भगवान् हम को जितना यथार्थ रूप से जानते है , उतना हम स्वयं अपने को नहीं जानते | वे हमारे मन के अंदर छिपी - से छिपी बात को जानते है | वे परम आत्मीय है | वे स्वाभाव से परम सुहृदय है | उनका सहायक हस्तकमल सदा ही हमारे सर पर है , उनकी कृपा स्नेहमय

मृत्यु के समय क्या करे ?...2

मृत्यु के समय क्या करे ? ७. गले में रूचि के अनुसार तुलसी या रूद्राक्षके माला पहना दे | मस्तक पर रूचि के अनुसार त्रिपुंड या उधृरपुंडतिलक का पवित्र चन्दनसे - -गोपीचंदन आदि से कर दे | अपवित्र केसर का तिलक न करे | ७. रोगी के निकट रामरक्षा या मृत्युंजयस्रोत्र का पथ करे | एकदम अंतिम समय में पवित्र 'नारायण' नाम की विपुल धवनि करे | ९. रोगी को कस्ट का अनुभव न होता दीखे तोह गंगाजल या सुद् जल से उसे स्नान करा दे | कस्ट हो ताहो तोहनकरावे | १०. विशेष कस्ट न हो ताहो जमीं को धोकर उस पर गंगाजल ( हो तो ) के छींटे देकर भगवान्कानाम लिखकर गंगा की रज या व्रजरज दाल करचारपाई से निचे सुला दे | ११. मृत्यु के समय तथा मृत्यु के बाद भी 'नारायण' नाम की याअपने ईस्टभगवान् के तुमुल धवनि करे | जब तक अर्थी चली न जाये ,तब तक यथा शक्य कोई घरवाले रोये नहीं | १२. उसके शव को दक्षिण की और पैर करके सुला दे | तदन्तर सुद्ध जल से स्नान करवाकर, नविन धुला हुआ वस्त्र पहनाकरजातिप्रथा के अनुसार शव यात्रा ले जाये ; पर पिंडदान का कार्यजानकारविद्वान के द्वारा अवस्य कराया जाये | सम्शान

मृत्यु के समय क्या करे ?

मृत्यु के समय क्या करे ? मृत्यु के समय सबसे बड़ी सेवा है - किसी भी उपाय से मरणासन्न रोगी का मन संसार से हटा कर भगवान् में लगा देना | इसके लिए:- १. उसके पास बैठ कर घर की,संसार की, कारोबार की, किन्ही में राग द्वेष हो तोह उनकी ममता के पदार्थो की तथा अपने दुःख की चर्चा बिलकुल न करे | २. जब तक चेत रहे, भगवान् के स्वरुप की, लीला की तथा उनके तत्त्व के बात सुनाये,श्रीमद्भगवत गीता का (सातवे,नवे,बारहवे,चौदहवे,पन्द्रहवे अध्याय का विशेष रूप से) अर्थ सुनावे | भागवत के एकादश स्कंध,योग्वासिस्ट का वैराग्य प्रकरण,उपनिषदों के चुने हुए स्थलओ का अर्थ सुनावे | नाम कीर्तन में रूचि हो तोह नाम कीर्तन करे या संतो बह्क्तो के पद सुनाये | जगत के प्राणी पदार्थो की , राग द्वेष उत्पन्न करने वाली बात, ममता मोह को जगाने वाली बात तथा बढ़ाने वाली चर्चा भूल कर भी न करे | ३. रोगी को भगवान् के साकार रूप का प्रेमी हो तोह उसको अपने ईस्ट -भगवान् राम,कृष्ण,शिव,दुर्गा,गणेश-किसी भी भगवत रूप का मनोहर चित्र सतत दिखाते रहे | निराकार निर्गुण का उपासक हो तोह उसे आत्मा या ब्रह्म के सच्चिदानंद अद्वेत तत्व के चर

संत वाणी

संत वाणी इश्वर का स्मरण करो तोह ऐसा करो के फिर दूसरी बार उसे याद करना ही न पड़े | अपने सब काम भूल कर सदा इश्वर का स्मरण करते रहो | परमात्मा के दर्शन में लीन होकर स्मरण करना भी भूल जाओ, यही उचे से उचा स्मरण है भाग्वादाश्रय और भगवान् नाम से पापो का समूल नाश हो जाता है यह निश्चित है | सारे संसार का एक ग्रास बना कर भी यदि बालक के मुह में दे दिया जाये तोह भी वह भूखा ही रहेगा | जिसका मन खान पान और गहने कपडे में बसा है, उसकी स्थितिपसु से भी गयी है | .पहने ओढने में सादगी का ख्याल रखना | शोकीनी की पोशाक और आडमभर से परे ही रहना | जिस समय लोग 'उन्मत' और 'मस्त' कह कर मेरी निंदा करेंगे तभी मेरे मन में गूढ़ तत्वज्ञान का उदय होगा | मनुष्य का सच्चा कर्तव्य क्या है ? इश्वर के सिवा किसी भी दूसरी चीज से प्रीती न जोढ्ना | जब ह्रदय में किसी से कुछ लेने की इच्छा ही नहीं तब जैसा हे धनि वैसे ही गरीब |

संत वाणी

संत वाणी सरीर न बुरा है, न अच्छा है, इसे जल्दी हरी भजन में लगाओ | एक श्री हरी की महिमा गया कर, मनुष्य के गीत न गाये | कथा कीर्तन करके जो द्रव्य देते या लेते है, वे दोनों हे भूले हुए है | जब तक जीवन है तब तक नाम स्मरण करे, गीता भागवत का सरवन करे और हरी मूर्ति का ध्यान करे | मुख में अखंड नारायण-नाम ही मुक्ति के उप्पर की भक्ति जानो | चौपड़ के खेल में गोटी को मारना और जीना जैसा है, ज्ञानी की दृष्टी में जीवो का बंध मोक्ष भी वैसा ही है | भगवान् कल्प वृक्ष है , चिंता मणि है | चित जो जो चिंतन करे उसी पूरा करने वाले है | एक शंन में पचासों जगह चक्कर लगा आने वाले इश मन को भगवान् दया करे तोह ही रोक सकते है | मन की एक बात बड़ी अच्छी है | जिस चीज का उसे चसक लगता है, उसमे वह लग जाता है , इसलिए इससे आत्मानुभव का सुख बराबर देते रहने चाहिए |

संत वाणी

जो इश्वर के चरण-कमल पकड़ लेता है , वह संसार से नहीं डरता | पहले इश्वर के प्राप्ति का यत्न करो, पीछे जो इच्छा हो कर लेना | गुरु लाखो मिलते है , पर चेला एक भी नहीं मिलता | उपदेश करने वाले अनेको मिलते है, पर उपदेश पालन करने वाले विरले ही | भक्त का ह्रदय भगवान् की बैठक है | संसार के यश और निंदा की कोई परवाह न करके इश्वर के पथ मैं ही चलना चाहिए | एक महात्मा की कृपा से कितने जीवो का उद्धार हो जाता है | साधक के भीतर यदि कुछ भी आसक्ती है तोह समस्त साधना वर्थ चली जाएगी | जिसका जैसा भाव होता है, उसको वैसा ही फल मिलता है | जिस घर में नित्य हरी कीर्तन होता है वहा कलियुग प्रवेश नहीं कर सकता |

श्रीकृष्ण का मथुरा जी में प्रवेश

अब आगे................ अनेक प्रकार के वस्त्रों से विभूषित दोनों भाई और भी अधिक शोभायमान हुए ऐसे जान पड़ते, मानो उत्सव के समय श्वेत और श्याम गजशावक भली भांति सजा दिए गए हों l भगवान् श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए , उन्होंने उसे भरपूर धन-सम्पत्ति, बल-ऐश्वर्य, अपनी स्मृति और इन्द्रिय-सम्बन्धी शक्तियां दीं और मृत्यु के बाद के लिए अपना सारुप्य मोक्ष भी दे दिया l इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण सुदामा माली के घर गए l दोनों को देखते ही उसने पृथ्वी पर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया l और उसने प्रार्थना की - 'प्रभो ! आप दोनों के शुभागमन से हमारा जन्म सफल हो गया l हमारा कुल पवित्र हो गया l आप दोनों सम्पूर्ण जगत के परम कारण हैं l यद्यपि आप प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं l भजन करने वालों को ही भजते हैं - फिर भी आप की दृष्टि में विषमता नहीं है l क्योंकि आप समस्त प्राणियों और प्रदार्थों में समरूप से स्थित हैं l मैं आपका दास हूँ l भगवन ! जीव पर आपका यह बहुत बड़ा अनुग्रह है, पूर्ण कृपा-प्रसाद है कि आप उसे आज्ञा देकर किसी कार्य में नियुक्त करते हैं l सुदामा माल

श्रीकृष्ण का मथुरा जी में प्रवेश

अब आगे................ भगवान् के इस प्रकार कहने पर अक्रूरजी कुछ अनमने से हो गए l उन्होंने पुरी में प्रवेश करके कंस से श्रीकृष्ण और बलराम के ले आने का समाचार निवेदन किया और अपने घर गए l भगवान् ने देखा कि नगर के परकोटे में स्फटिक मणि के बहुत ऊँचे-ऊँचे दरवाजे तथा घरों में भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं l स्थान-स्थान पर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन (केवल स्त्रियों के उपयोग में आने वाले बगीचे) शोभायमान हैं l सड़क, बाज़ार, गली एवं चौराहों पर खूब छिडकाव किया गया है l स्थान-स्थान पर फूलों के गज़रे, जवारे (जौ के अंकुर), खील और चावल बिखरे हुए हैं l वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपले फलसहित केले और सुपारी के वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रों से भली-भांति सजाये हुए हैं l उस समय नगर कि नारियां बड़ी उत्सुकता से उन्हें देखने के लिए झटपट अटारियों पर चढ़ गयीं l कई रमणियाँ तो भोजन कर रही थीं, वे हाथ का कौर फेंक कर चल पड़ीं l सब का मन उत्साह और आनन्द से भर रहा था l कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण मतवाले गजराज के समान बड़ी मस्ती से चल रहे थे l उन्होंने अपनी विलासपूर्ण प्रग

श्रीकृष्ण का मथुरा जी में प्रवेश

अक्रूर जी को भगवान् श्रीकृष्ण ने जल में अपने दिव्य रूप के दर्शन कराये और फिर उसे छिपा लिया, ठीक वैसे ही जैसे कोई नट अभिनय में कोई रूप दिखाकर फिर उसे परदे की ओट में छिपा दे l भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा - 'चाचाजी ! आपने पृथ्वी, आकाश या जल में कोई अद्भुत वस्तु देखी है क्या ? अक्रूरजी ने कहा - 'प्रभो ! पृथ्वी, आकाश या जल में और सारे जगत में जितने भी अद्भुत पदार्थ है, वे सब आप में ही हैं l क्योंकि आप विश्वरूप हैं l जब मैं आप को ही देख रहा हूँ तब ऐसी कौन-सी अद्भुत वस्तु रह जाती है, जो मैंने न देखी हो l उन्होंने यह कहकर रथ हाँक दिया और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी को लेकर दिन ढलते-ढलते वे मथुरापुरी जा पहुँचे l नन्दबाबा और ब्रजवासी तो पहले से ही वहां पहुँच गए थे, और मथुरापुरी के बाहरी उपवन में रूककर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे l भगवान् श्रीकृष्ण ने अक्रूरजी से मुस्कराते हुए कहा - 'चाचाजी ! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरी में प्रवेश कीजिये और अपने घर जाइये l हमलोग पहले यहाँ उतरकर फिर नगर देखने के लिए आयेंगे' l अक्रूरज

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

          अब आगे.............               यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे मथुरा जाने से गोपियों के ह्रदय में बड़ी जलन हो रही है, वे संतप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूत के द्वारा 'मैं आऊँगा' यह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरं बँधाया l  गोपियों को जब तक रथ कि ध्वजा और पहियों से उड़ती हुई धूल दीखती रही, तब तक उनके शरीर चित्रलिखित-से  वहीँ ज्यों-के-त्यों खड़े रहे l  परन्तु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के साथ ही भेज दिया था l अभी उनके मन को आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें l               इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजी के साथ वायु के समान वेग्वाले रथ पर सवार होकर पापनाशिनी यमुना जी के किनारे पहुँच गए l वहां उन लोगों ने हाथ-मुँह धोकर अमृत के समान मीठा जल पिया  l अक्रूरजी ने दोनों भाइयों को रथ पर बैठकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजी के कुण्ड पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे l उसी समय जल के भीतर अक्रूरजी ने देखा कि  श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं l अब उनके मन में शंका हुई कि 'वासुदेवजी के पु

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

          अब आगे..............               देखो सखी ! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है l इधर तो हम इतनी दुखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुंदर को हमारी आँखों से ओझल करके बहुत  दूर ले जाना चाहता है l सचमुच ऐसे अत्यंत क्रूर पुरुष का 'अक्रूर' नाम नहीं होना चाहिए था l और हमारे ये श्यामसुंदर भी तो कम निठुर नहीं हैं l देखो-देखो वे भी रथ पर बैठ गए l आज विथाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है l हम आधे क्षण के लिए भी प्राण वल्लभ नन्दनन्दन का संग छोड़ने में असमर्थ थीं l आज हमारे दुर्भाग्य ने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्त को विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है  l अब भला, उनके बिना हम उन्ही की दी हुई अपर विरहव्यथा का पार कैसे पावेंगी  l वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुस्कान और तिरछी चितवन से देख-देखकर हमारे ह्रदय को बेध डालते हैं l उनके बिना भला हम कैसे जी सकेंगी ?                 गोपियाँ वाणी से इस प्रकार कह रही थीं; परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्ण का स्पर्श, उनका आलिंगन कर रहा था l वे विरह की सम्भावना से अत्यंत व

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

अब आगे.........               जब गोपियों ने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुंदर और गौरसुन्दर बलरामजी को मथुरा ले जाने के लिए अक्रूरजी ब्रज में आये हैं, तब उनके ह्रदय में बड़ी व्यथा हुई l वे व्याकुल हो गयीं l भगवान् के स्वरुप का ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियों कि  चित्त्वृतियाँ सर्वथा निवृत हो गयीं मानो वे समाधिस्थ - आत्मा में स्थित हो गयीं हो l गोपियाँ मन-ही-मन भगवान् कि लटकीली चाल, भाव-भंगी, प्रेमभरी मुस्कान और उनके विरह के भय से कातर हो गयीं l वे झुण्ड -कि-झुण्ड इकट्ठी हो कर इस प्रकार कहने लगीं l                        गोपियों ने कहा - धन्य हो विधाता ! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परन्तु तुम्हारे ह्रदय में दया का लेश भी नहीं है l यह कितने दुःख कि बात है ! विधाता ! तुमने पहले हमें प्रेम का वितरण करनेवाले श्यामसुंदर का मुखकमल दिखलाया l और अब उसे ही हमारी आँखों से ओझल कर रहे हो l सुचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत-ही अनुचित है l वास्तव में तुम्हीं अक्रूर के नाम से यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई ऑंखें तुम हमसे मूर्ख कि भांति छीन रहे हो l                 अहो ! नन्दनन्दन श्यामसुंदर को भी नए-न

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

                भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी ने अक्रूरजी का भलीभांति सम्मान किया l लक्ष्मी जी के आश्रय स्थान भगवान् श्रीकृष्ण के प्रसन्न होने पर ऐसी कौन-सी वास्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती ?  फिर  भी भगवान् के परम प्रेमी भक्जन किसी भी वास्तु की कामना नहीं करते l                 भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - चाचाजी आपका ह्रदय बड़ा शुद्ध है l स्वागत है, मैं आपकी मंगलकामना करता हूँ l मथुरा के आत्मीय सुहृदय, कुटुम्बी सब कुशल और स्वस्थ हैं न ? हमारा नाममात्र का मामा कंस तो हमारे कुल के लिए एक भंयकर व्याधि है l चाचाजी ! हमारे लिए यह बड़े खेद की बात है कि मेरे ही कारण मेरे निरपराध और सदाचारी माता-पिता को अनेकों प्रकार कि यातनाएं झेलनी पड़ीं  - तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़े l मैं बहुत दिनों से चाहता था कि आपलोगों में से किसी-न-किसी का दर्शन हो l यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आज मेरी यह अभिलाषा पूरी हो गयी, सौम्य स्वभाव चाचाजी ! अब आप कृपा करके यह बतलाईये कि आप का शुभागमन किस निमित्त से हुआ ?                   तब अक्रूरजी ने इस प्रकार बतलाया कि 'कंस ने तो सभी यदुवंशियों से घोर वैर ठान रखा