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जून, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अक्रूरजी की ब्रजयात्रा

अब आगे..........               जिनके चरणकमल की रज का सभी लोकपाल अपने किरीटों के द्वारा सेवन करते हैं,  अक्रूरजी ने गोष्ट में  उनके चरण चिन्हों  के दर्शन किये l  उन चरण चिन्हों के दर्शन करते ही अक्रूरजी के ह्रदय में इतना आह्लाद हुआ कि वे अपने को सँभाल न सके, विह्वल हो गए l  प्रेम के आवेग से उनका रोम-रोम खिल उठा l  नेत्रों में आंसू भर आये और टप-टप  टपकने लगे  l  वे रथ से कूदकर उस धूलि में लोटने लगे और कहने लगे - 'अहो ! यह हमारे प्रभु के चरणों कि रज है' l यहाँ तक अक्रूरजी के चित्त कि जैसी अवस्था रही है, यही जीवों के देह धारण करने का परम लाभ है l  इसलिए जीव मात्र का यही परम कर्त्तव्य कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान् की मूर्ति (प्रतिमा, भक्त आदि) चिन्ह, लीला, स्थान तथा गुणों दर्शन-श्रवण आदि के द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें l                ब्रज में पहुँच कर अक्रूरजी ने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयों को गाय दुहने के स्थान में विराजमान देखा l उनके नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे l उन्होंने अभी किशोर  अवस्था में प्रवेश ही किया था l उनके चरणों में ध्वजा, वज्र , अंकुश

अक्रूरजी की ब्रजयात्रा

अब आगे...........               जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार करने के लिए तुरंत रथ से कूद पडूँगा l उनके चरण पकड़ लूँगा l बड़े-बड़े योगी-यति आत्म साक्षात्कार के लिए मन-ही-मन अपने ह्रदय में उनके चरणों की धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊंगा और लोट जाऊंगा उन पर l मेरे अहोभाग्य ! जब मैं उनके चरणकमलों में गिर जाऊंगा , तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिर पर रख देंगे  ?  इन्द्र तथा दैत्यराज बलि ने भगवान् के उन्हीं करकमलों में पूजा की भेंट समर्पित करके तीनों लोकों का प्रभुत्व - इन्द्रपद प्राप्त कर लिया l अवश्य ही मैं उनके चरणों में हाथ जोड़कर विनीतभाव  से खड़ा हो जाऊंगा l वे मुस्कराते हुए दयाभरी स्निग्ध दृष्टि से मेरी ओर देखेंगे l उस समय मेरे जन्म-जन्म के समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायेंगे और मैं नि:शंक हो कर सदा के लिए परमानन्द में मग्न हो जाऊंगा l मैं उनके कुटुम्ब का हूँ और उनका अत्यंत हित चाहता हूँ l उनका आलिंगन प्राप्त होते ही - मेरे कर्ममय बंधन, जिनके कारण मैं अनादिकाल से भटक रहा हूँ , टूट जायेंगे  l तब मेरा ज

अक्रूरजी की ब्रज यात्रा

महामति अक्रूरजी भी वह रात मथुरा पुरी में बिता कर प्रात:काल होते ही रथ पर सवार हुए और नन्दबाबा के गोकुल की ओर चल दिए l वे इस प्रकार सोचने लगे l 'मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्र को ऐसा कौन-सा महत्वपूर्ण दान दिया है, जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन करूँगा' l ऐसी स्थिति में बड़े-बड़े सात्विक पुरुष भी जिनके गुणों का ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते - उन भगवान के दर्शन मेरे लिया अत्यंत दुर्लभ है, ठीक वैसे ही, जैसे शूद्र्कुल के बालक के लिए वेदों का कीर्तन l परन्तु नहीं, मुझ अधम को भी भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे ही l अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गए l आज मेरा जन्म सफल हो गया l क्योंकि आज मैं भगवान् के उन चरणकमलों में साक्षात नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-पतियों के भी केवल ध्यान के ही विषय हैं l ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलों की अपसना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षण के लिए भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तों के साथ बड़े-

युगलगीत

अब आगे..........               अरी सखी ! उनके गले में तुलसी की मधुर माला की गन्ध उन्हें बहुत प्यारी लगती है l इसीसे तुलसी की माला को तो वे कभी छोड़ते ही नहीं, सदा धारण किये रहते हैं l जब वे बाँसुरी बजाते हुए गाने लगते हैं, उस समय बजती हुई उस बाँसुरी के मधुर स्वर मोहित कर देते हैं l हम गोपियाँ भी तो अपने घर-गृहस्थी की आशा-अभिलाषा छोड़कर गुणसागर नागर नन्दनन्दन को घेरे रहती हैं l                नंदरानी यशोदाजी ! वास्तव में तुम बड़ी पुण्यवती हो l  तभी तो तुम्हे ऐसे पुत्र मिले हैं l वे प्रेमी सखाओं को तरह-तरह से हास-परिहास के द्वारा सुख पहुँचाते  हैं l  उस समय मलयज चन्दन के समान शीतल और सुगन्धित स्र्पर्श से मन्द-मन्द अनुकूल बहकर वायु तुम्हारे लाल की सेवा करती है l  अरी सखी ! इसीलिए तो  श्यामसुंदर ने गोवर्धन धारण किया था l  अब वे सब गौओं को लौटकर आते ही होंगे; देखो, सांयकाल हो चला  है l वे दिन भर जंगलों में घूमते-घूमते थक गए हैं l फिर भी अपनी इस शोभा से हमारी आँखों को कितना सुख, कितना आनन्द दे रहे हैं l देखो, हे यशोदा की कोख से प्रकट हुए सबको आह्लादित करनेवाले चन्द्रमा हमारी आशा-अभिला

युगलगीत

अब आगे..........               अरी सखी ! जितनी भी वस्तुएं संसार में या उसके बाहर देखने योग्य हैं, उनमें सबसे सुन्दर, सबसे मधुर, सबके शिरोमणि हैं - ये हमारे मनमोहन l हमारे नटनागर श्यामसुंदर भौरों के स्वर में स्वर मिलकर अपनी बाँसुरी फूँकने लगते हैं l  उस समय सखी ! उस संगीत को सुनकर सरोवर में रहनेवाले सारस-हंस आदि पक्षियों का भी चित्त उनके हाथसे निकल जाता है l वे विवश होकर प्यारे श्यामसुंदर के पास आ बैठते हैं तथा आँखें मूँद, चुपचाप, चित्त एकाग्र करके उनकी आराधना करने लगते हैं - मानो कोई विहंगम वृति के रसिक परमहंस ही हों, भला कहो तो यह कितने आश्चर्य की बात है l                 हमारे श्यामसुंदर जब बाँसुरी बजाने लगते हैं -बाँसुरी क्या बजाते हैं, आनन्द में भरकर उसकी ध्वनि के द्वारा सारे विश्व का आलिंगन करने लगते हैं - उस समय श्याम मेघ बाँसुरी की तान के साथ मन्द-मन्द गरजने लगता है l अरी सखी ! वह तो प्रसन्न हो कर बड़े ही प्रेम से उनके ऊपर अपने जीवन ही निछावर कर देता है - नन्ही-नन्ही फुहियों के रूप में ऐसा बरसने लगता है, मानो दिव्य पुष्पों की वर्षा कर रहा हो l  कभी-कभी बादलों की ओट में छ

युगलगीत

             भगवान् श्रीकृष्ण के गौओं को चराने के लिए प्रतिदिन वन  में चले जाने पर उनके साथ गोपियों का चित्त भी चला जाता था l उनका मन श्रीकृष्ण का चिंतन करता रहता और वे वाणी से उनकी लीलाओं का गान करती रहतीं l               गोपियाँ आपस में कहतीं - अरी सखी ! तुम यह आश्चर्य की बात सुनो ? ये नन्दनन्दन कितने सुन्दर हैं ? जब वे हँसते हैं तब हास्य रेखाएँ हार का रूप धारण कर लेती हैं, शुभ मोती-सी चमकने लगती हैं l उनके वक्ष:स्थल  पर जो श्रीवत्स की सुनहली रेखा है, वह तो ऐसी जान पड़ती है, मानो श्याम मेघ पर बिजली ही स्थिररूप से बैठ गयी हो l जब वह अपनी बाँसुरी को अपने अधरों से लगाते है तथा अपनी सुकुमार अँगुलियों को उसके छेदों पर फिराते हुए मधुर तान छेड़ते हैं, तो उस तान को सुनकर अत्यंत ही चकित तथा विस्मित हो जाती हैं l उनकी ऐसी दशा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि यह बाँसुरी की तान उनके चित्त को चुरा लेती है  l                 हे सखी ! जब वे नन्द के लाडले लाल अपने सिर पर मोरपंख मुकुट बाँध लेते हैं, घुंघराली अलकों में फूल के गुच्छे खोंस लेते है, और नए नए पल्लवों से ऐसा वेष सजा लेते हैं, जैसे कोई

महारास

अब आगे........ .               भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत के एकमात्र स्वामी हैं l उन्होंने अपने अंश श्रीबलरामजी के सहित पूर्णरूप में अवतार ग्रहण था l उनके अवतार का उद्धेश्य ही यह था कि धर्म की स्थापना हो और अधर्म का नाश हो l भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णकाम थे, उन्हें किसी भी वास्तु की कामना नहीं थी l सूर्य, अग्नि आदि ईश्वर (समर्थ ) कभी-कभी धर्म का उल्लंघन और साहस का काम करते देखे जाते हैं l परन्तु उन कामों से उन तेजस्वी पुरुषों को कोई दोष नहीं होता l जिन लोगों में ऐसी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मन से भी वैसी बात कभी नहीं सोचनी चाहिए, शरीर से करना तो दूर रहा l यदि कोई मूर्खता वश कोई ऐसा काम कर बैठे, तो उसका नाश हो जाता है l  भगवान् शंकर ने हलाहल विष पी लिया था, दूसरा कोई पिए तो वह जलकर भस्म हो जायेगा l इसलिए इस प्रकार के जो शंकर आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकार के अनुसार उनके वचन को ही सत्य मानना और उसी के अनुसार आचरण करना चाहिए l  इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि उनका जो आचरण उनके उद्धेश्य के अनुकूल हो उसी को जीवन में उतारे l वे सामर्थ्यवान पुरुर्ष अहंकारहीन होते हैं, वे स्वार्थ और अनर्थ से ऊप

महारास

अब आगे...........               गोपियों का सौभाग्य लक्ष्मीजी से भी बढ़कर है l  भगवान् श्रीकृष्ण ने उनके गलों को अपने भुजपाश में बाँध रखा था, उस समय गोपियों के बड़ी अपूर्व शोभा थी l वे रास मण्डल में भगवान् श्रीकृष्ण के साथ नृत्य कर रही थीं l उनके कंगन और पायजेबों के बाजे बज रहे थे l  जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकारभाव से अपनी परछाईं के साथ खेलता है, वैसे ही रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण कभी उन्हें अपने ह्रदय से लगा लेते, कभी प्रेमभरी तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते, तो कभी लीला से उन्मुक्त हँसी हसने लगते l भगवान् श्रीकृष्ण की यह रास क्रीडा देखकर स्वर्ग की देवांगनाएँ भी मिलन की कामना से मोहित हो गयीं और समस्त तारों और ग्रहों के साथ चन्द्रमा चकित, विस्मित हो गए l यद्यपि भगवान् आत्माराम हैं - उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी की भी आवश्कता नहीं है - फिर भी उन्होंने जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण किये और खेल-खेल में उनके साथ इस प्रकार विहार किया l भगवान् के करकमल और नखस्पर्श गोपियों को बड़ा आनन्द हुआ l उन्होंने प्रेमभरी चितवन से, जो सुधा से भी मीठी मुसकान से उज्जवल हो रही थी, भगवान् श्रीकृष्ण का

महारास

                     गोपियाँ भगवान् की इस प्रकार प्रेमभरी सुमधुर वाणी सुनकर जो कुछ विरह्जन्य ताप शेष था, उससे भी मुक्त हो गयीं l भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरे की बाँह-में-बाँह  डाले कड़ी थीं l उन स्त्री रत्नों के साथ यमुनाजी के पुलिन पर भगवान् ने अपनी रसमयी रासक्रीडा प्रारम्भ की l सम्पूर्ण योगों के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में प्रकट हो गए और उनके गले में अपना हाथ डाल दिया l इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, यही क्रम था l सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे तो हमारे ही पास हैं l इस प्रकार सहस्त्र-सहस्त्र गोपियों से शोभायमान भगवान् श्रीकृष्ण का दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ l उस समय आकाश में शत-शत विमानों की भीड़  लग गयी l  सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आ पहुँचे l स्वर्ग की दिव्य दुन्दुभियाँ  अपने आप बज उठीं l स्वर्गीय पुष्पों की वर्षा होने लगी l रास मण्डल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुंदर के साथ नृत्य करने लगीं l असंख्य गोपियाँ थीं, इसलिए यह मधुर ध्वनि भी बड़े ही जोर की हो रही थी l ऐसा जान पड़ता था, मानो अगणित प

भगवान् का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना

अब आगे.............                            बड़े-बड़े योगेश्वर अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए ह्रदय में जिनके लिए आसन की कल्पना करते रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने ह्रदय-सिंहासन पर बिठा नहीं पाते, वाही सर्शक्तिमान भगवान् यमुनाजी की रेती में गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गए l तीनों लोकों में - तीनों कालों में जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान् के बिन्दुमात्र सौन्दर्य का आभासभर है l  वे उसके एकमात्र आश्रय हैं l गोपियों ने अपनी मन्द-मन्द मुस्कान,विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भोहों से उनका सम्मान किया l वे उनके संस्पर्श का आनंद लेती हुई कभी-कभी कह उठती थीं - कितना सुकुमार है, कितना मधुर है l                गोपियों ने कहा - नटनागर ! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो प्रेम करने वालों से  ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालों से प्रेम करते हैं l परन्तु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते l  प्यारे ! इन तीनों में तुम्हे कौन-सा अच्छा लगता है ?                 भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - मेरी प्रिय सखियों ! जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है

भगवान् का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना

                  भगवान् की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश में, प्यारे के दर्शन की लालसा से वे अपने को रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुर स्वर से फूट-फूटकर रोने लगीं l ठीक उसी समय उनके बीचों-बीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गए l  उनका मुखकमल मन्द-मन्द  मुस्कान से खिला हुआ था l उनका यह रूप क्या था , कामदेव के मन को भी मथनेवाला था l अपने श्यामसुंदर को आया देख गोपियों के नेत्र प्रेम और आनंद से खिल उठे l मानो प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राणों का संचार हो गया हो, शरीर के एक-एक अंग से नवीन चेतना - नूतन स्फूर्ति आ गयी हो l एक गोपी ने उनके चन्दनचर्चित भुजदंड को अपने कंधे पर रख लिया l  एक गोपी, जिसके ह्रदय में भगवान् के विरह से बड़ी जलन हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमल को दबाने लगी l एक गोपी अपन निर्निमेष नयनों से उनके मुखकमल मकरन्द-रस पान करने लगी l परन्तु जैसे संत पुरुष भगवान् के चरणों के दर्शन से कभी तृप्त नहीं होते, वैसे ही वह उनकी मुख-माधुरी का निरंतर पान करते  रहने पर भी तृप्त नहीं होती थीं l एक और गोपी नेत्रों के मार्ग से भगवान् को अपने ह्रदय में ले गयी और फिर उसने आँखें बंद कर लीं l यों तो भगवान

गोपिकागीत

अब आगे.........               हमारे प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण  कमल से भी सुकोमल और सुन्दर हैं l तुम्हारे वे युगल चरण गौएँ चराते समय कंकड़, तिनके और कुश-काँटे गड़ जाने से कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता है l हमें बड़ा दुःख होता है l हम देखती हैं, की तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलकें लटक रही हैं l तुम अपना वह सौन्दर्य हमें दिखा-दिखाकर हमारे ह्रदय में मिलने की आकांक्षा - प्रेम उत्पन्न करते हो l एकमात्र तुम्ही हमारे सारे दुखों को मिटाने वाले हो l तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तों की सरमस्त अभिलाषाओं को पूर्ण  करने वाले हैं l आपत्ति के समय एकमात्र उन्ही का चिन्तन करना उचित है, जिससे साड़ी आपत्तियां कट जाती हैं l प्यारे ! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हे देखे बिना हमारे लिए एक-एक क्षण  युग के समान हो जाता है l हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान की गति समझकर, उसी से मोहित होकर यहाँ आई हैं l तुम प्रेम भरी चिंतवन से हमारी ओर देखकर मुस्करा देते थे और हम देखती थीं तुम्हारा वह विशाल वक्ष;स्थल, जिस पर लक्ष्मीजी नित्य-न

गोपिकागीत

                        गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं - प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों में भी ब्रज की महिमा बढ़ गयी है l परन्तु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने  तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं l वन-वन में भटक कर तुम्हे ढूंढ रही हैं l हमारे प्रेमपूर्ण ह्रदय के स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं l हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है ? अस्त्रों से हत्या करना ही वध है ? तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहनेवाले उनके साक्षी हो, अंतर्यामी हो l  सखे ! ब्रह्माजी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो l               जो लोग जन्म-मृत्यु-रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्रछाया में लेकर अभय कर देते हैं l हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओं को पूर्ण करनेवाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा है, हमारे सिर पर रख दो l हमसे रूठो मत, प्रेम करो l  हम तो तुम्हारी दासी हैं

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

अब आगे........               एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी श्रीकृष्ण l यशोदा ने फूलों की माला से श्रीकृष्ण को ऊखल में बाँध दिया l  अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुंदरी गोपी हाथों से मुँह ढँककर भय की नक़ल करने लगी l इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावन के वृक्ष और लता आदि से  फिर श्रीकृष्ण का पता पूछने लगी l इसी समय उन्होंने एक स्थान पर भगवान् के चरणचिन्ह  देखे l  वे कहने लगीं - 'अवश्य ही ये चरणचिन्ह उदार शिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुंदर के हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, व्रज अंकुश और जौ आदि के चिन्ह स्पष्ट ही दीख रहे हैं l तब उन्हें श्रीकृष्ण के साथ किसी ब्रजयुवती के भी चरण चिन्ह दीख पड़े l उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं l अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण की यह 'आराधिका' होगी l इसीलिए इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्रन्प्यारे श्यामसुंदर ने हमें छोड़ दिया है l इस गोपी के उभरे हुए चरण चिन्ह तो हमारे ह्रदय में बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं l भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं l वे अपने-आप में ही संतुष्ट और पूर्ण हैं l जब वे अखण्ड हैं, उनमें दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें काम की

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों की दशा

                भगवान् सहसा अंतर्धान हो गए l  उन्हें न देखकर ब्रजयुवतियों का ह्रदय विरह की ज्वाला से जलने लगा l वे प्रेम की मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं का अनुकरण करने लगीं l अपने श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदि में श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं l उनके शरीर में भी वही गति-मति, वही भाव-भंगी उत आयीं l वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्ण स्वरुप हो गयी l और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई 'मैं श्रीकृष्ण ही हूँ' - इस प्रकार कहने लगीं l भगवान् श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गए थे l  वे तो समस्त जड़-चेतन पदार्थों में तथा उनके बाहर भी आकाश के समान एकरस स्थित ही हैं l  वे वहीँ थे, उन्हीं में थे, परन्तु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पत्तियों से - पेड़ -पोधों से उनका पता पूछने लगीं l                  नन्दनन्दन श्यामसुंदर अपनी प्रम्भारी मुस्कान और चित्तवन से हमारा मन चुराकर चले गए हैं l क्या तुमलोगों ने उन्हें देखा है l प्यारी मालती ! मल्लिके !जाती और जूही ! तुमलोगों ने कदाचित हमारे माधव को देखा होगा l क्य

रासलीला का आरम्भ

अब आगे...........                              प्यारे कमलनयन ! तुम वनवासियों के प्यारे हो और  वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं l  इस से प्राय: तुम उन्ही के पास रहते हो l यहाँ तक कि तुम्हारे जिन चरणकमलों की सेवा का अवसर स्वयं लक्ष्मीजी को कभी-कभी ही मिलता है, उन्ही चरणों का स्पर्श हमें प्राप्त हुआ l जिस दिन से तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित किया, उसी दिन से हम और किसी के सामने एक क्षण के लिए भी ठहरने में असमर्थ हो गयी हैं l अबतक के सभी भक्तों ने उस चरणरज का सेवन किया है l उन्ही के समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरज की शरण में आई हैं l तुम्हारी मधुर मुसुकान और चारू चितवन ने हमारे ह्रदय में प्रेम की  - मिलन आकांक्षा की आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उस से जल रहा है l तुम हमें अपनी दासी के रूप में स्वीकार कर लो l  हमें अपनी सेवा का अवसर दो l हमसे यह बात छुपी नहीं है कि जैसे भगवान् नारायण देवताओं कि रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम ब्रजमण्डल का भय और दुःख मिटाने के लिए ही प्रकट हुए हो l और यह भी स्पष्ट है कि दीं-दुखियों पर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी कृपा है l  प्रियतम ! हम भी बड़ी दुखिनी हैं

रासलीला का आरम्भ

अब आगे...........               भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - महाभाग्यवती गोपियों ! तुम्हारा स्वागत है l  ब्रज में तो सब कुशल-मंगल है न ? कहो इस समय यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ गयी l गोपियों रात का समय है , यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता  है और इसमें बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु इधर- उधर घूमते रहते हैं l  अत: तुम सब तुरंत ब्रज में लौट जाओ l तुमलोगों ने रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे हुए इस वन की शोभा को देखा l पूर्ण चन्द्रमा की कोमल रश्मियों से यह रंग हुआ है , मानो उन्होंने अपने हाथों चित्रकारी की हो l परन्तु अब तो तुमलोगों ने यह सब कुछ देख लिया l अब देर मत करो, शीघ्र-से-शीघ्र ब्रज में लौट जाओ l यदि मेरे प्रेम से परवश होकर तुमलोग यहाँ आई हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह तो तुम्हारे योग्य ही है l गोपियों ! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से , रूप के दर्शन से, उन सबके कीर्तन और ध्यान से मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है l वैसे प्रेमकी प्राप्ति पास रहने से नहीं होती l इसलिए तुमलोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ l                भगवान् श्रीकृष्ण का यह अप्रिय भाषण सुनकर गोपियाँ उदास,

रासलीला का आरम्भ

अब आगे......... .               उस समय कुछ गोपियाँ घरों के भीतर थीं l उन्हें बाहर निकलने का मार्ग ही न मिला l तब उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिए और बड़ी तन्मयता से श्रीकृष्ण के सौंदर्य, माधुर्य और लीलाओं का ध्यान करने लगीं l ध्यान में उनके सामने भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए l उन्होंने मन-ही-मन बड़े प्रेम से, बड़े आवेग से उनका आलिंगन किया l उस समय उन्हें इतना सुख, इतनी शांति मिली कि उनके सब-के-सब पुण्य के संस्कार एक साथ ही क्षीण हो गए l उन्होंने जिनका आलिंगन किया, चाहे किसी भी भाव से किया हो, वे स्वयं परमात्मा ही तो थे l इसलिए उन्होंने पाप और पुण्यरूप कर्म के परिणाम बने हुए गुणमय शरीर का परित्याग कर दिया l (भगवान् कि लीला में सम्मलित होने  के योग्य दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया ) l  इस शरीर से भोगे जाने वाले कर्मबंधन तो ध्यान के समय ही छिन्न-भिन्न हो चुके थे l                 भगवान् श्रीकृष्ण ने यह जो अपने को तथा अपनी लीला को प्रकट किया है, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि जीव उसके सहारे अपना परम कल्याण सम्पादन करे l इसलिए भगवान् से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिए l वह सम्बन्ध चा

रासलीला का आरम्भ

               शरद ऋतु थी l  उसके कारण बेला, चमेली, आदि सुगन्धित पुष्प खिलकर महँक रहे थे l  भगवान् ने गोपियों को जिन रात्रियों का संकेत किया था, वे सब-की-सब पुन्जीभूत होकर एक ही रात्रि के रूप में उल्लासित हो रहीं थीं l भगवान् ने उन्हें देखा, देखकर दिव्य बनाया l गोपियाँ तो चाहती ही थीं l अब भगवान् ने भी अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया के सहारे उन्हें निमित्त बना कर रसमयी रासक्रीडा करने का संकल्प किया l भगवान् के संकल्प करते ही चन्द्रदेव ने प्राची दिशा के मुखमण्डल  पर अपने शीतल किरणरुपी करकमलों से लालिमा की रोली-केशर मल दी l इस प्रकार चन्द्रदेव ने उदय होकर न केवल पूर्वदिशा का, प्रत्युत संसार के समस्त चर-अचर प्राणियों का सन्ताप दूर कर दिया l पूर्णिमा की रात्रि थी और चन्द्रदेव नूतन केशर के समान लाल-लाल हो रहे थे l उनका मुखमण्डल लक्ष्मीजी के समान मालूम हो रहा था l  भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य उज्जवल रस के उद्दीपन की पूरी सामग्री उन्हें और उस वन को देख कर अपनी बाँसुरी पर ब्रज सुंदरियों के मन को हरण करने वाली कामबीज 'क्लीं' की अस्पष्ट एवं मधुर तान छेड़ी l भगवान् का वह वंशीवादन

श्रीकृष्ण का अभिषेक

अब आगे.........               भगवन ! मेरे अभिमान का अन्त नहीं है और मेरा क्रोध बहुत ही तीव्र , मेरे वश के बाहर है l जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मूसलाधार वर्षा और आँधी के द्वारा सारे ब्रजमंडल को नष्ट कर देना चाह l  परन्तु प्रभो ! आपने मुझ पर बहुत ही अनुग्रह किया l मेरी चेष्टा व्यर्थ होने से मेरे घमण्ड कि जड़ उखड गयी l  आप मेरे स्वामी हैं, मेरे गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं l  मैं आपकी शरण में हूँ l                श्रीभगवान ने कहा - इन्द्र ! तुम ऐश्वर्य और धन-संपत्ति के मद से पूरे-पूरे मतवाले हो रहे थे l इसलिए तुम पर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है l  यह इसलिए कि अब तुम मुझे नित्य-निरंतर स्मरण रख सको l इन्द्र ! तुम्हारा मंगल हो l अब तुम अपनी राजधानी अमरावती में जाओ और मेरी आज्ञा का पालन करो l अब कभी घमण्ड न करना l अपने अधिकार के अनुसार उचित रीती से मर्यादा का पालन करना l भगवान् इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनु ने अपनी संतानों के साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्ण की वन्दना की और उनको संबोधित करके कहा  -                  कामध

श्रीकृष्ण का अभिषेक

            जब भगवान् श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्द्धन को धारण करके मूसलाधार वर्षा से ब्रज को बचा लिया, तब उनके पास गोलोक से कामधेनु (बधाई देने के लिए) और स्वर्ग से देवराज इन्द्र (अपने अपराध को क्षमा कराने के लिए) आये l इसलिए एकान्त स्थान में भगवान् के पास जाकर अपने सूर्य के सामान तेजस्वी मुकुट से उनके चरणों का स्पर्श किया l              इन्द्र ने कहा - भगवन ! आपका स्वरुप परम शांत, ज्ञानमय,रजोगुण तथा तमोगुण से रहित एवं विशुद्ध अप्राकृत सत्वमय है l जब आपका सम्बन्ध अज्ञान और उसके कारण प्रतीत होनेवाले देहादि से है ही नहीं, फिर उन देहादि की प्राप्ति के कारण तथा उन्ही से होनेवाले लोभ-क्रोध आदि दोष तो आप में हो ही कैसे सकते हैं l आप अपने भक्तों के लालसा पूर्ण करने के लिए स्वछन्दता से लीला-शरीर प्रकट करते हैं और जो लोग हमारी तरह अपने को ईश्वर मान बैठते हैं, उनका मान-मर्दन करते हुए अनेकों प्रकार की लीलाएं करते हैं l प्रभो ! मैंने ऐश्वर्य के मद से चूर होकर आपका अपराध किया है l परमेश्वर ! आप कृपा करके मुझ मूर्ख अपराधी का यह अपराध क्षमा करें और ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर कभी ऐसे दुष्ट अज्ञान क

गोवर्द्धन धारण

अब आगे...... .               भगवान् ने देखा कि वर्षा और ओलों कि मार से पीड़ित होकर सब बेहोश हो रहे हैं l  वे समझ गए कि यह सारी करतूत इन्द्र की है l  उन्होंने ने ही क्रोध वश ऐसा किया है l हमने इन्द्र का यज्ञ-भंग कर दिया है, इसी से ब्रज का नाश करने के लिए बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं l ये मूर्खता वश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूंगा l देवता लोग तो सत्वप्रधान होते हैं l  अत: यह उचित ही है कि इन सत्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान-भंग कर दूँ l  इस से अंत में उन्हें शांति ही मिलेगी l अत: इस सारे ब्रज को मैं अपनी योगमाया से इसकी रक्षा करूँगा l संतों कि रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है l                इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया l इसके बाद भगवान् ने गोपों से कहा -  तुमलोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढे में आकर आराम से बैठ जाओ l जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सब को आश्वा

गोवर्द्धन धारण

अब आगे..........               जब इन्द्र को पता लगा  कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नंदबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए l इन्द्र को अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं हो त्रिलोकी का ईश्वर हूँ l  उन्होंने क्रोध से तिलमिलाकर प्रलय करनेवाले मेघों के सान्वर्तक नामक गण को ब्रज पर चढ़ाई करने कि आज्ञा दी और कहा - 'ओह , इन जंगली ग्वालों को इतना घमण्ड ! सचमुच यह धन का ही नशा है l  भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला l अब तुम लोग जाकर इनके इस धन के घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो l मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथी पर चढ़कर नन्द के ब्रज का नाश करने के लिए महापराकर्मी मरूदगणों के साथ आता हूँ' l                इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बंधन खोल दिए l  अब वे बड़े वेग से नंदबाबा के ब्रज पर चढ़ आये और मूसलाधार पानी बरसाकर सारे ब्रज को पीड़ित करने लगे l चारों ओर बिजलियाँ चमकने लगी, बादल आपस में टकराकर कडकने लगे और प्रचण्ड आंधी कि प्रेरणा से वे बड़े-बड़

गोवर्द्धन धारण

            भगवान् श्रीकृष्ण सबके अंतर्यामी और सर्वज्ञ हैं l  फिर भी विनयवनत होकर उन्होंने नंदबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों से पूछा - 'पिताजी ! आपलोगों  के सामने यह कौन -सा उत्सव आ पंहुचा है ? आप मुझे यह अवश्य बतलाये l नंदबाबा ने कहा - बेटा ! भगवान् इन्द्र वर्षा करनेवाले मेघों के स्वामी हैं l वे समस्त प्राणियों को तृप्त करनेवाला एवं जीवनदान करनेवाला जल बरसाते हैं l उन्ही इन्द्र की हम यज्ञों के द्वारा  पूजा किया करते हैं l यह धर्म हमारी कुलपरम्परा से चला आया है l               श्रीभगवान ने कहा - पिताजी ! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता और कर्म से मर जाता है l उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है l जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोग रहे हैं तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है ? अपने कर्म के अनुसार ही 'यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है' - ऐसा व्यवहार करता है l ब्राह्मण वेदों के अध्ययन -अध्यापन से , क्षत्रिय पृथ्वी पालन से, वैश्य वार्ता वृति से और शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा से अपनी जीविका का निर्वा

यज्ञपत्नियों पर कृपा

अब आगे..........                            भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - देवियों ! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु, - कोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे l उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा l  अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो l देखो न, ये देवता मेरी बात का अनुमोदन कर रहे हैं l इसलिए तुम जाओ अपना मन मुझमें लगा दो l  तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जाएगी l                जब भगवान् ने इस प्रकार कहा, तब ब्राह्मणपत्नियाँ यज्ञशाला में लौट गयीं l  उन ब्राह्मणों ने अपनी स्त्रियों में तनिक भी दोषदृष्टि नहीं  की l उनके साथ मिल कर अपना यज्ञ पूरा किया l इधर भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणियों के लाये हुए उस चार प्रकार के अन्न से पहले ग्वालबालों को भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन  किया l इधर जब ब्राह्मणों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ l वो सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा का उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है l वे कहने लगे - हाय ! हम भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख हैं l धि

यज्ञपत्नियों पर कृपा

अब आगे........               अब की बार ग्वालबाल पत्निशाला में गए l उन्होंने द्विजपत्नियों को प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यह बात कही - 'आप विप्रपतिनियों को हम नमस्कार करते हैं l आप कृपा करके हमारी बात सुने l  भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ से थोड़ी ही दूर पर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है l इस समय उन्हें और उनके साथियों को  भूख लगी है आप उनके लिए कुछ भोजन दे दें l श्रीकृष्ण के आनेकी बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं l  उन्होंने बर्तनों में अत्यंत स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, और चोष्य - चारों प्रकार की भोजन सामग्री ले ली तथा भाई-बंधू, पति-पुत्रों के रोकते रहने से भी अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्ण के पास जाने के लिए घर से निकल पड़ीं - ठीक वैसे ही जैसे नदियाँ समुद्र के लिए l ब्राह्मणपत्नियों ने जाकर देखा कि अशोक-वन में ग्वालबालों से घिरे हुए बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं l गले में वनमाला लटक रही है l मस्तक पर मोरपंख का मुकुट है l एक हाथ अपने सखा ग्वालबाल के कंधे पर रखे हुए हैं और दूसरे हाथसे कमल का फूल नचा रहे हैं l मुखकमल मंद-मंद मुसकानकी रेखा से प्

यज्ञपत्नियों पर कृपा

             ग्वालबालों के कहा - हमारे चित्तचोर श्यामसुन्दर  ! नयनाभिराम बलराम ! तुमने बड़े-बड़े दुष्टों का संहार किया है l  उन्ही दुष्टों के समान यह भूख भी हमें सता रही है l अत: तुम दोनों इसे भी बुझाने का कोई उपाय करो l               जब ग्वालबालों ने देवकीनंदन भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार प्रार्थना के, तब उन्होंने मथुरा की अपनी भक्त ब्राह्मणपत्नियों  पर अनुग्रह करने के लिए यह बात कही  - 'मेरे प्यारे मित्रों ! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर वेदवादी ब्राह्मण स्वर्ग की कामना से आंगिरस नाम का यज्ञ कर रहे हैं l तुम उनकी यज्ञशाला में जाओ l ग्वालबालों ! मेरे भेजने से वहां जाकर तुम लोग मेरे बड़े भाई भगवान् श्री बलरामजी का और मेरा नाम लेकर कुछ थोडा-सा भात  - भोजन की सामग्री मांग लाओ' l जब भगवान् ने ऐसे आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उस ब्राह्मणों की यज्ञशाला में गए और उनसे भगवान् की आज्ञा के अनुसार ही अन्न माँगा - 'पृथ्वी के मूर्तिमान देवता ब्राह्मणों ! आपका कल्याण हो ! आपसे निवेदन है कि हम ब्रज के ग्वाले हैं l भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम कि आज्ञा से हम आपके पास आये हैं l  आप हमारी बात सुने l

वेणुगीत

अब आगे..........               जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजनमोहिनी  मुरली बजाते हैं, तब मोर मतवाले होकर उसकी तालपर नाचने लगते हैं l यह देखकर पर्वत की चोटियों पर विचरनेवाले सभी पशु-पक्षी चुपचाप - शांत हो कर खड़े रह जाते हैं l वास्तव में उनका जीवन धन्य है l  (हम वृन्दावन की गोपी होने पर भी इस प्रकार उन पर अपने को निछावर नहीं कर पातीं, हमारे घरवाले कुढने लगते है l कितनी विडम्बना है  !)  स्वर्ग की देवियाँ जब युवतियों को आनंदित करनेवाले सौंदर्य और शील के खजाने श्रीकृष्ण को देखती हैं और बाँसुरी पर उनके द्वारा गया हुआ मधुर संगीत सुनती हैं, तब उनके चित्र-विचित्र  आलाप सुनकर वे अपने विमानपर ही सुध-बुध खो बैठती हैं - मूर्छित हो जाती हैं l तुम  देवियों की बात क्या कह रही हो,  इन गौओं को नहीं देखती ? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुख से बाँसुरी स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब अपने दोनों कानों के दोने खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीत का रस लेने लगती हैं l अपने नेत्र के द्वार से श्यामसुंदर को ह्रदय में ले जाकर वे उन्हें वहीं विराजमान कर देती हैं और म

वेणुगीत

             शरद ऋतु के कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था l भगवान् श्रीकृष्ण ने गौओं और ग्वालबालों के साथ उस वन में प्रवेश किया l जल निर्मल था और वायु मंद-मंद चल रही थी l उस वन के सरोवर, नदियाँ और पर्वत - सब-के-सब गूंजते रहते थे l श्रीकृष्ण ने अपनी बाँसुरी पर बड़ी मधुर तान छेड़ी l  श्रीकृष्ण की वह वंशीध्वनि भगवान् के प्रति प्रेमभाव को, उनके मिलन की आकांक्षा को जगानेवाली थी l उसे सुनकर गोपियों का ह्रदय प्रेम से परिपूर्ण हो गया l ब्रज की गोपियों ने वंशी ध्वनि का माधुर्य आपस में वर्णन करना चाह तो अवश्य; परन्तु वंशी का स्मरण होते ही उन्हें श्रीकृष्ण की मधुर चेष्टाओं की, प्रेमपूर्ण चितवन, भोहों के इशारे और मधुर मुस्कान आदि की याद हो आई l उनकी भगवान् से मिलने की आकांक्षा और भी बढ़ गयी l वे मन-ही-मन देखने लगीं कि श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं l गले में पांच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी वैजयन्ती माला है l बाँसुरी के छिद्रों को वे अपने अधरामृत से भर रहे हैं l इस प्रकार वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिन्हों से और भी रमणीय बन गया है l गोपियों ने

वर्षा और शरद ऋतु का वर्णन

अब आगे..........               थोड़े जल में रहनेवाले प्राणियों को शरत्कालीन सूर्य की प्रखर किरणों से बड़ी पीड़ा होने लगी - जैसे अपनी इन्द्रियों के वश में रहनेवाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बी को तरह-तरह के ताप सताते ही रहते हैं l शरद ऋतु में समुद्र का जल स्थिर, गंभीर और शांत हो गया - जैसे मन के नि:संकल्प हो जाने पर आत्माराम पुरुष कर्मकांड का झमेल छोड़कर शांत हो जाता है l किसान खेतों की मेड़ मजबूत करके जल का बहना रोकने लगे - जैसे योगीजन अपनी इन्दिर्यों को विषयों की और जाने से रोककर,प्रत्याहार करके उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञान की रक्षा करते हैं l  शरद ऋतु में दिन के समय बड़ी कड़ी धूप होती, लोगों को बहुत कष्ट होता, परन्तु चन्द्रमा रात्रि  के समय लोगों का सारा संताप वैसे ही हर लेते  -  जैसे देहाभिमान से होनेवाले दुःख को ज्ञान और भगवद्विरह से होनेवाले गोपियों के दुःख को श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं l                 जैसे पृथ्वीतल में यदुवंशियों के बीच यदुपति भगवान् श्रीकृष्ण की शोभा होती है, वैसे ही आकाश में तारों के बीच पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा l फूलों से लदे हुए वृक्ष और लत