भगवान् ने कहा है - 'माया बड़ी दुस्तर है l इस माया से कोई भी सहज में पार नहीं हो सकता, परन्तु मेरे शरणापन्न व्यक्ति इस माया से तर जाते हैं l ' भगवान् के अतिरिक्त जो कुछ भी है - असत है, माया है और उसको जीवन से निकालना है l भगवान् के शरणापन्न होने पर जीवन में से यह मिथ्यापन निकल सकता है l मानव-जीवन में यही एकमात्र करनेयोग्य कार्य है l मानव-जीवन का यही एकमात्र कर्तव्य और उद्देश्य है l धन की प्राप्ति चाहनेवाला मनुष्य जैसे स्वाभिविक ही क्षुद्र-सी भी धनहानि के प्रत्येक प्रसंग से बचता है और लाभ का प्रत्येक कार्य करता है; वह ऐसा इसलिए करता है कि पैसे के रहने और मिलने में अपना लाभ मानता है और जाने में या न रहने हानि; इसी प्रकार भगवान् का भजन करनेवाला पुरुष भजन होने में लाभ तथा न होने में हानि मानता है l इसलिए वह स्वाभाविक ही वही करता है जिससे भजन बनता और बढ़ता है, वह ऐसा कार्य कभी नहीं करता, जिससे भजन नहीं बनता या घट जाता है l हम सभी आत्यन्तिक सुख चाहते हैं l ऐसा सुख चाहते हैं जो अनंत हो, परन्तु मोहवश चाहते वहां से हैं, जहाँ सुख है नहीं l अ
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